।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 18 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 18 ।। विशेष II
।। क्या परिवार में स्वजनों से विरोध या लड़ना – गीता के अनुसार उचित है?।। विशेष 2.18 ।।
अर्जुन का मोह स्वजनों से युद्ध नही करने का था, इसलिये वह मोहग्रस्त हो कर ज्ञान एवम शास्त्रो का सहारा ले कर युद्ध से पलायन कर के वैराग्य लेने की बात कर रहा था।
आज के युग में भी जब पारिवारिक समस्या सामने आती है तो जो व्यक्ति अति करने लगता है, तो परिवार को बांध कर रखने वाला व्यक्ति भी परिवार की मान मर्यादा, संस्कार एवम मोह में उस का खुल कर विरोध नही करता। उस की पुरजोर कोशिश हमेशा यही रहती है, परिवार नही टूटे, जो गलत रास्ते पर चल रहा है, उसे आगे पीछे कर के सही रास्ते पर लाया जाए। यह ठीक भी है।
किन्तु जब विरोध करने वाला व्यक्ति इस हद्द तक विरोध करना शुरू कर दे कि वह समस्त अधिकार हड़प कर सहने वाले व्यक्ति को बाहर करे, तो भी क्या विरोध नही करना चाहिये?
पांडव की पूर्ण संपत्ति को धूर्तता से जुए में जीतने के बाद उन का और घर की नारियों का अपमान करना आदि अनैतिकता की चरम सीमा थी। फिर समझौते के अनुसार 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का गुप्त वास के बाद हारने पर संपत्ति वापस करने के अधिकार को कपट पूर्ण नकार देना और समझोता भी नही करना, यह क्या दुर्योधन की अतिशयोक्ति नहीं थी? किंतु परिवार में बड़े बुजुर्ग उस पर जानते हुए यह गलत है, कुछ नही कह रहे थे? यह स्थिति आज भी सामयिक दृष्टिकोण से लागू होती है।
सामान्य दृष्टि से अर्जुन की यह लड़ाई अपने अधिकारों की थी, जिसे दुर्योधन ने देने से मना कर दिया। पांडव कम से कम में भी संतुष्ट थे, किन्तु दुर्योधन मतान्ध हो कर कुछ भी नही छोड़ने हो तैयार था, इसलिये युद्ध की तैयारी हो गई।
परिवार में, समाज मे, व्यापार में और रोजमर्रा के जीवन मे प्रत्येक व्यक्ति मेलजोल के सहन तभी तक करता है, जब तक वह उस के सामर्थ्य के बाहर न हो। किन्तु सहन करना शक्तिशाली लोगो की मजबूरी नही, दया, क्षमा, करुणा, अहिंसा एवम मोह होता है। यह कमजोर और लाचार लोगो के लिये नही है। अर्जुन समर्थ है, यदि वह इस स्थिति में भी यदि युद्ध नही करता है तो उस की श्रेणी भी कायर एवम नपुंसक लोगो मे होगी। अतः भगवान श्री कृष्ण उस के ज्ञान की एक श्रेणी ऊपर रखते हुए, उस अपना निर्णय कहते है कि तुम अपने कर्तव्य धर्म का पालन करो और युद्ध करो।
घर -परिवार में भी जब परिस्थितियां नियंत्रण के बाहर जाए तो निर्णय लेने का अधिकार भी उसी सदस्य को होता है जो सामर्थ्यवान हो। यदि उस समय वह भी दया, मोह, करुणा, अहिंसा या बदनामी की सोच रखता है, तो वह भी कायर ही है। क्योंकि निर्णय कुछ पाने के लिये नही, अति करने वाले व्यक्ति को रोकने के लिये लिया जाता है।
क्या मोह से ग्रसित व्यक्ति को हम सुधार सकते है ?, क्या लोभ से ग्रसित व्यक्ति से हम न्याय की उम्मीद रख सकते है? उत्तर होगा, नही। जब तक उसे गहरी चोट न हो, वह अपनी चाले ही चलेगा। शंका या दुविधा उन्हें ही ज्यादा होगी जो सज्जन है। दुर्जन के लिये किसी को कष्ट देना आनंद दायक ही होगा। धृष्टराष्ट्र और दुर्योधन को युद्ध में कोई दुविधा है तो अपनी जीत की। उन को अर्जुन के समान सगे संबंधियों से कोई शिकायत है तो उन से जो उन के साथ नही खड़े।
किंतु यहां विरोध का आधार धर्म होता है, स्वार्थ नही। विरोध करने वाला अपने मन में कोई द्वेष, क्रोध, घृणा आदि नही रखता। उस के मन में विरोध करने का उद्देश्य उसे सबक देना या कष्ट देना भी नही होता। वह ही सही है और श्रेष्ठ है, यह अहम भी नही होता। इसलिए उस का विरोध न्याय और धर्म के मार्ग पर चलने का होता है। निष्काम और निस्वार्थ भाव से अनुचित का विरोध करना ही धर्म का मार्ग है। किंतु निस्वार्थ और निष्काम शब्द लिखना और पढ़ना जितना सरल है, उस से कठिन है आत्मसात करना। इसे हम आगे विस्तृत स्वरूप में गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद में भगवान श्री कृष्ण द्वारा गीता में पढ़ेंगे।
हमे यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि व्यक्तिगत विरोध की चरम सीमा स्वजनों से विरोध ही है, इसलिए धर्म और अधर्म के आधार पर कर्तव्य कर्म को एक ज्ञानी और सामर्थ्य व्यक्ति द्वारा किस प्रकार करना चाहिए, जिस से समाज उस का अनुशरण कर सके। आज भी पद और धन के लालच में स्वार्थी लोग समाज में एक गुट, राजनैतिक पार्टी आदि बना लेते है और पूरे समाज और देश के वातावरण, सभ्यता और संस्कृति को दूषित कर देते है। सामर्थ्यवान लोग किसी पचड़े में नही पड़ने के कारण चुप रहते है और दूरी बना लेते है। यह स्थिति भविष्य में आने वाली पीढ़ी को जो नैतिक हानि करती है, उस की गणना नही हो सकती।
यहां सब से महत्वपूर्ण बात यही है कि जिन तथ्यो एवम ज्ञान के आधार पर हम काम करते है, वह सही है कि नही, इस को श्रेष्ठ ज्ञानी ही समझ सकते है। सीमित ज्ञान के आधार पर लिये निर्णय सही नही होते। ज्ञान का आधार बढ़ाने के लिये अध्ययन एवम मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को चुना, यही उस की सब से बड़ी विजय थी। इसलिये भ्रमित मन के लिये भगवान से कर्तव्य धर्म का आचरण करते हुए उसे युद्ध ही करने की कहा। आज के युग में युद्ध करना का व्यवहारिक अर्थ लड़ाई या हथियार उठाना नही है, जब तक आत्म रक्षा या आत्मसम्मान का प्रश्न न खड़ा हो जाए। युद्ध करने का अर्थ पुरजोर विरोध सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक आदि करना है। इस में धर्म, जाति, भाई भतीजा वाद या कोई प्रतिज्ञा, अनुग्रह, कृतज्ञता या उपकार का भार भी होना चाहिए। जो महाभारत में भीष्म, द्रोण और कर्ण जैसे ज्ञानी और महारथी लोग वहन कर रहे थे। यह विदुर और बलराम जैसे लोग अपने को निष्पक्ष सिद्ध करने में लगे थे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.18 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)