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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.08 II Additional II

।। अध्याय      15.08 II विशेष II

।। पुनर्जन्म और गीता ।। विशेष 15.08 ।।

शरीर को सर्वश मानने वाले अक्सर पूछते है कि मृत्यु के बाद क्या होता है। यह विषय तत्व ज्ञानी पुरुष का है, इसलिए मुझे इस पर प्रमाणिकता से लिखने का कोई हक नही। फिर भी जो मुझे समझा, उसे लिखता हूं।

चार्वाक ऋषि ईश्वर नाम की किसी कल्पना के विरुद्ध थे, उन का मत है कि प्रकृति से संयोग से देह उत्पन्न होती है, प्रकृति में ही मिल जाती है। इसलिए इस देह का जितना उपभोग प्राकृतिक सुख के लिए कर सकते है, करे। ऋण कृतवा, घृत पिबेत, अर्थात उधार ले कर भी ऐश करो, कौन तुम से मरने के बाद उधार मांगने वाला है। अर्थात मृत्यु ही मुक्ति है।

सांख्य प्रकृति और पुरुष के संयोग से जन्म और मृत्यु मानते है। पुरुष को प्रकृति ललचाती है और पुरुष अपने कर्तृत्व और भोक्त्त भाव में उस कर्मो को भोगता है। यही भ्रम जब समाप्त हो जाता है, तो मुक्ति है।

हम में पूर्व में पढ़ा है कि जीव प्राकृतिक रचना में 18 सूक्ष्म तत्व होते है। अर्थात जीव का एक सूक्ष्म शरीर होता है और इस में पांच महाभूतो से मिलने से स्थूल शरीर बनता है। सूक्ष्म शरीर से आसक्ति, कामना, कर्मफल लिपटे रहते है। सावित्री और यमराज प्रसंग में सत्यवान की मृत्यु होने पर यमराज उस के शरीर से अंगूठे भर का सूक्ष्म शरीर ले कर चले थे। इसलिए हम अन्य प्रमाण के अभाव में यही मान लेते है कि यह अंगूठे भर का सूक्ष्म शरीर होता है।

मृत्यु का अर्थ स्थूल शरीर से संबंध समाप्त होना है किंतु सूक्ष्म शरीर जीव को अपने साथ कामना, आसक्ति, कर्मफल और अहम से बांधे रखता है। यही सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद विभिन्न लोकों में भ्रमण करता है। उच्च कर्म होने से उच्च लोक में और निम्न कर्म होने से निम्न लोक में।

कर्मो के फलों से अनुसार इसी सूक्ष्म शरीर को विभिन्न योनि भी मिलती है। गीता में कहा है जो मूर्ख लोग परमात्मा तो नहीं भजते हुए भूत – प्रेत की पूजा करते करते है, वह उन्हीं योनि को प्राप्त होते है। इस का अर्थ हम यही ले सकते है अंगुष्ठ भर का सूक्ष्म शरीर तामसी वृति के कर्म करने पर कर्म के फल स्वरूप भूत – प्रेत की योनि में जन्म लेते है और उच्च कर्म फल होने पर पितर, यक्ष, गंधर्व, देवता आदि योनि में चले जाते है। वहा अपने कर्मो का फल भोगने के बाद पुनः मुक्ति के लिए मृत्यु लोक में जन्म लेते है। मनुष्य जन्म को छोड़ कर अन्य जीव के जन्म भी कर्म फल का भोग भोगने के माने गए है।

मनुष्य जन्म ही एक मात्र जन्म या योनि है जिस में कर्म का अधिकार और बुद्धि का उपयोग है। अतः मुक्ति इसी जन्म से होती है। मुक्ति का अर्थ कर्म फल से मुक्ति अर्थात सूक्ष्म शरीर से अपना सम्बन्ध जैसे ही जीव पहचान लेता है, वह कर्तृत्व और भोक्त्त्व भाव से मुक्त हो कर परमात्मा में विलीन हो जाता है।

मृत्यु के बाद जीव के सूक्ष्म शरीर में संस्कार, कर्मफल, कामनाएं, आसक्ति एवम अहम रहता है। यह आसक्ति उस की लालसा की होती है। इसलिए पूर्व जन्म के रिश्ते, नाते, कर्म, धन संपत्ति आदि का कोई ज्ञान नहीं रहता। पतंजलि योग में योग, ध्यान, समाधि की अवस्था के बाद संयम की अवस्था आती है, जिस से जीव यदि प्रयास करे तो उसे पूर्व जन्म एवम अगले जन्म की स्मृति हो जाती है।

गीता के अनुसार पुनर्जन्म चेतना का स्थान्तरण है जो की आत्मा के द्वारा होता हैं। कृष्ण कहते है कि आत्मा अजन्मी व् अविनाशी है।

जिस प्रकार कपड़े पुराने होने पर लोग कपड़े बदल लेते है उसी प्रकार आत्मा शरीर खत्म होने पर शरीर बदल लेती है। पर इन सब का प्रयोजन क्या है ? चेतना। अगर आप क्रमागत उन्नति की बात करते है तो ऐसा संभव हो कैसे पाया क्योंकि कही न कही चेतना का प्रवाह हुआ।

अतः जब जब कृष्णा कहते है कि कर्मो का फल जन्मो तक भोगना पड़ता है उस का सीधा संबंध यही है कि आप की चेतना आप के साथ चलती है। आप का परिचय बदल जायेगा पर आप की चेतना आप के साथ ही रहेगी। ये पुनर्जन्म उसी चेतना का प्रवाह की एक प्रक्रिया है।

पुर्नजन्म का वर्णन वेद, महाभारत और श्रीमद् भगवत गीता में भी है।

ऋग् वेद:

(१) पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषापथ्यां या सवस्तिः।

शं रोदसी सुबन्धवे यह्वी रतस्य मातरा।।

भावार्थ -: फिर मुझे धरती पर पुनः जन्म प्राप्त करने का मौका मिले, फिर इसी दुनिया पर इसी चाँद- सूरज तले।

(२) आ त एतु मनः पुनः करत्वे दक्षाय जीवसे।

जयोक चसूर्यं दर्शे।।

भावार्थ -: भगवान करे तुम्हारी आत्मा वापस जन्म ले कर अच्छे काम में योगदान करे और दीर्घायु बने।

यजुर्वेद:

सविता ते श्रीदेभ्यः पृथिव्यां लोकमिच्चतु।

तस्मै युज्यंत अमुस्त्रियाः।।

भावार्थ -: भगवान पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार ही शरीर प्रदान करते हैं।

श्रीमद् भगवत गीता अध्याय २, श्लोक २२

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय। नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

अर्थ -: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।।

अध्याय ४, श्लोक ५

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ॥5

अध्याय ८, श्लोक ६

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् | तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ||

अर्थ -: हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस- जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है |

अध्याय चार में पूर्व जन्मों की बात भी याद होने की कही गई है, एवम नीच और निषिद्ध कर्म करने पर निम्न योनि में जाने की बात भी है, किंतु जीव के मृत्यु और जीव द्वारा अन्य योनि में प्रवेश के मध्य की अवस्था के बारे में कुछ नही लिखा है। श्रीमद भागवत पुराण में धुंधकारी को नीच कर्मो के कारण मुक्ति न मिलने और सावित्री और सत्यवान की कथा से आत्मा और सूक्ष्म शरीर का पुनः स्थूल शरीर में प्रवेश की कथा, शंकराचार्य जी द्वारा गृहस्थ धर्म के ज्ञान के पर काया में प्रवेश आदि अनेक कथाएं पढ़ने में आती है, जिस से यह प्रतीत होता है कि सूक्ष्म शरीर की आसक्ति स्थूल शरीर में बनी रहती है। अर्थात मृत्यु के बाद जीव अपने सूक्ष्म शरीर से विचरण करता रहता है। यही सूक्ष्म शरीर कर्म फल के अन्य योनियों में जाता है। जीव अकर्ता है, इसलिए जीव को प्रकृति अपने लुभावन में सूक्ष्म शरीर से बांधे रखती है। क्योंकि सूक्ष्म शरीर भी प्रकृति ही है, इसलिए हम लोग देवताओं को प्रकृति के गुणों से युक्त व्यवहार करते, पुराण की कथाओं में पढ़ते है। कभी कभी कल्याण या गायत्री परिवार की प्रत्रिकाओ में किसी का पुनर्जन्म का लेख पढ़ने को मिल जाता है।

मृत्यु के समय जीव को अपना शरीर और सांसारिक संबंध छूटते स्पष्ट महसूस होते है किंतु शारीरिक अक्षमता से वह  व्यथित होता है और इसलिए उस समय यदि जो भी व्यथा या स्मरण होगा, उस के अनुकूल वृति का जीव शरीर उसे प्राप्त होगा। कहते है अत्यधिक धन की रक्षा हेतु जीव सर्प योनि को प्राप्त होता है।

हिंदू रीति रिवाज में मृत्यु के बाद 12 दिन का शोक और कर्मकांड किए जाते है। ऐसी मान्यता है कि शरीर छूटने के साथ शरीर के साथ की आसक्ति धीरे धीरे ही नष्ट होती है। जीव की अत्यधिक आसक्ति उस के शरीर से होती है, इसलिए उस को जब तक यह ज्ञान नही होता, कि उस का शरीर  से संबंध टूट गया है, जीव अपने शरीर के आस पास ही रहता है, अतः समस्त कर्मकांड से जीव की शरीर की आसक्ति समाप्त होने तक शुद्धि की जाती है।

मनुष्य के मस्तिष्क की सरंचना में अनगिनत कोषों की बात कही गई है। जिस में ज्ञान, स्मृति, चित्र आदि जमा रहते है और जब भी आवश्यकता होती है, यही से ज्ञान  की स्मृति को बुद्धि द्वारा संचालित किया जाता है। अतः मस्तिष्क की सक्रियता में इन कोश के ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो हम बचपन से देखते, सुनते, पढ़ते और करते है, वह सब जाने – अनजाने इस में जमा होता है। स्वस्थ मन और बुद्धि इस में से सूचनाएं मंगा कर कार्य करता है और अवचेतन या अवसाद में जब  इन सूचनाओं पर नियंत्रण न हो तो मन और बुद्धि को यह प्रभावित करती है। जैसे स्वप्न में विचित्र विचार इस का उदाहरण है। जिस जीव से हमारी आसक्ति अत्यधिक होती है, उस स्मृति होने से वह जीव भी हमे मृत्यु के बाद कभी कभी अवचेतन स्मृति से दिखता है। यह भी हो सकता है, जो जीव जब तक अन्य योनि में प्रवेश नहीं करता, अपनी आसक्ति से जीवित जीव से संपर्क करने की कोशिश करे। किंतु यह सब प्राकृतिक सूक्ष्म शरीर की प्रक्रिया है और जीव निसंग होते हुए भी भ्रमित है, अतः मृत्यु के बाद उस का जगत से कोई संबंध नहीं रहता, वह अपने ही सूक्ष्म शरीर में कर्मफलो, संस्कारों और मुक्ति के प्रयास के अतिरिक्त मृत्यु लोक के किसी संबंध, संपत्ति या ज्ञान को की स्मृति नही रखता। क्योंकि ज्ञान कोश का मस्तिष्क सूक्ष्म शरीर नही ले कर चलता। अतः भूत, प्रेत या किसी का दिखना या किसी का कुछ कहना आदि वर्तमान मनुष्य के अवचेतन मन की उपलब्धि ही होती है।

सजीव सृष्टि के सचेतन तत्व को संख्यवादी ‘ पुरुष ‘ कहते है, पुरुष चाहे संख्या में असंख्य हो, स्वभावत: उदासीन और अकर्ता ही है। विभिन्न योनि में जन्म का कारण कर्म फल है, तो कर्म प्रकृति के सत्व – रज – तमो गुण का ही विकार है। लिंग शरीर में जिन अठारह तत्वों का समुच्चय है, उस में से बुद्धि तत्व प्रधान है। इस का कारण यह है, कि बुद्धि ही से आगे अहंकार आदि सत्रह तत्व उत्पन्न होते है। अर्थात वेदांत जिसे कर्म कहते है, उसी को सांख्य शास्त्र में सत्व रज तम गुणों के न्युनाधिक परिमाण से उत्पन्न होने वाला, बुद्धि का व्यापार, धर्म या विकार कहते है। बुद्धि के इस धर्म का नाम भाव है। सत्व रज एवम तम गुणों के तारतम्य से ये भाव कई प्रकार के हो जाते है। जिस प्रकार फूल में सुगंध लिपटी है, उसी प्रकार यह भाव भी लिंग शरीर से लिपटे रहते है। इन भावों के अनुसार, वेदांत परिभाषा में कर्म के अनुसार, लिंग नए नए जन्म लिया करता है और जन्म लेते समय, माता पिता के शरीर में से जिन द्रव्य को वह आकर्षित किया करता है, उन द्रव्य के भी भाव आ जाते है, अतः मृत्यु के बाद का जन्म भावों की समुच्चयता का ही परिणाम है।

इसलिए किसी जीव का देह छोड़ने के बाद पुनः उसी देह के प्रति आकर्षण भावो के समुच्चय से प्रकट हो सकता है किंतु अन्य योनि में प्रविष्ट होने के बाद नही रहता। यह एक प्राकृतिक क्रिया ही है, जीव में सात्विक भाव के उत्कर्ष होने से, मनुष्य को ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है और उसे पुरुष और प्रकृति का भेद भी समझ में आने लगता है। यही मार्ग पुरुष को मूल स्वरूप अर्थात कैवल्य की ओर ले जाता है।

सत्य क्या है, यह वही जान सकता है, जो ब्रह्मविद हो। हम उन का अनुसरण करते है। गीता और अन्य ग्रंथो में मृत्यु के बाद विभिन्न योनियों और लोकोमें जीव के कर्म फलों के अनुसार प्रस्थान, निवास और पुनर्जन्म का जो विवरण है, वही प्रस्तुत किया है।

।। हरि ॐ तत् सत् ।। विशेष गीता – 15.8 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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