।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.08 II
।। अध्याय 15.08 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.8॥
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
“śarīraḿ yad avāpnoti,
yac cāpy utkrāmatīśvaraḥ..।
gṛhītvaitāni saḿyāti,
vāyur gandhān ivāśayāt”..।।
भावार्थ:
शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण कर के एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है। (८)
Meaning:
When the lord acquires a body, and when he leaves it, he takes them and departs, like the wind takes odours from their seats.
Explanation:
when the material body dies, the soul continues to carry the mind along with the experiences of its past lifetimes from its former body to the new one. That explicates why people who are born blind can still dream, probably based on their experiences from past lives. Dreams are considered to be a visual representation of what we see or think during waking hours. It might be in a distorted or rambled form, which gets connected in our mind when we sleep. For example, someone saw a bird flying and thought, “How wonderful will it be to fly like a bird!” Sometime later, he dreams that he is flying in his human body itself. Yet, a blind person who has not seen anything from birth dreams, this can only be due to all the impressions that are stored in the subconscious mind, which it carries with it from past lifetimes.
Shree Krishna has given the example of the breeze to explain the process of transmigration of a soul from one body into another. Similar to the breeze, which carries with it the fragrances of the flowers, upon the death of the gross body, the soul carries with it the subtle and the causal bodies, these include the senses and the mind.
Earlier, we saw how the individual soul, the jeeva, wants to interact with Prakriti in order to exhaust its desires. In preparation to do so, it surrounds itself with the mind (which contains the desires) and the five senses. This collection of the jeeva, the mind and the senses are also known as the subtle body, because it is invisible. We can think of the subtle body as a computer file. Just as a computer file needs a computer to express itself, a subtle body needs a physical body to express itself. Whenever the timespan of one human body ends, the subtle body has to find another physical body to continue exhausting its desires.
Shri Krishna says that in such a situation, the subtle body, the jeeva with the mind and senses, ejects itself from the physical body and finds another body to settle in. It is similar to a international diplomat who goes from one assignment to another, taking his staff with him wherever he goes. Since the mind and senses follow the jeeva, it is referred to as Ishvara or the lord here, not to be confused with the meaning of Ishvara that has been used throughout the Gita. Once the jeeva finds a new home, it slowly starts unpacking its belongings, the mind and senses, in sequence. It is fascinating to see time- lapse videos of an embryo growing inside a mother’s womb. This is the jeeva slowly gaining its faculties, which are nothing but accumulations of additional upaadhis.
Imagine that a small wooden box contains a strong perfume. If the box – the seat of the perfume – is opened, the fragrance will slowly start leaving the box and fill the room. Shri Krishna uses this analogy to explain the transfer of the jeeva from one physical body to another. If we bring in the analogy of the eternal essence as space, and combine it with this analogy, we will find that they fit together perfectly. Walls, fragrance, wind, boxes – all these limitations of space are apparent, not real. They are upaadhis, apparent limitations. Space does not care whether we build 2 walls or 2 million walls. No one or nothing can limit space. There is no coming and going of the perfume in space. It is only from a worldly standpoint that the fragrance is moving from the box to the room.
So then, the jeeva draws a mind and five senses in order to exhaust its desires. However, it still needs a physical body to transact with Prakriti. How does all this happen? We see this in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में हम से यह पढ़ा कि हम सब परब्रह्म के ही अंश है एवम श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसना एवम घ्राण पांच इंद्रियाओ से मन के द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवम गंध पांच विषयो में लिप्त रह कर बंध जाते है। अतः शरीर के कार्य, कारण और भौतिक शरीर में स्वांस का आना – जाना, आंखो का देखना अर्थात कर्म और ज्ञानेद्रियो की क्रियाएं तभी संभव जब तक उस में ब्रह्म का अंश प्रतिबिंब स्वरूप में है। यह प्रतिबिंब जब मन से जुड़ा हो तो चिदाभास है और अज्ञान में अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है। शरीर की क्रियाओं का आधार भी यही ब्रह्म के अंश का प्रतिबिंब है तो इस के बिना शरीर की मृत्यु है किंतु यह प्रतिबिंब कामना और लालसा से सूक्ष्म शरीर से बंधा है।
जब भौतिक शरीर मर जाता है, तो आत्मा अपने पिछले जन्मों के अनुभवों के साथ मन को अपने पूर्व शरीर से नए शरीर में ले जाती है। यह स्पष्ट करता है कि जो लोग अंधे पैदा होते हैं वे अभी भी सपने क्यों देख सकते हैं, शायद पिछले जन्मों के उनके अनुभवों के आधार पर। सपनों को हम जो जागते समय देखते या सोचते हैं उसका एक दृश्य प्रतिनिधित्व माना जाता है। यह विकृत या अस्पष्ट रूप में हो सकता है, जो हमारे सोते समय हमारे दिमाग से जुड़ जाता है। उदाहरण के लिए, किसी ने एक पक्षी को उड़ते हुए देखा और सोचा, “पक्षी की तरह उड़ना कितना अद्भुत होगा!” कुछ समय बाद, उसने सपना देखा कि वह अपने मानव शरीर में ही उड़ रहा है। फिर भी, एक अंधा व्यक्ति जिसने जन्म से कुछ भी नहीं देखा है, वह केवल उन सभी छापों के कारण हो सकता है जो अवचेतन मन में संग्रहीत हैं, जो पिछले जन्मों से उसके साथ हैं।
श्री कृष्ण ने आत्मा के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की प्रक्रिया को समझाने के लिए हवा का उदाहरण दिया है। जिस तरह हवा अपने साथ फूलों की खुशबू ले जाती है, उसी तरह स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा अपने साथ सूक्ष्म और कारण शरीर ले जाती है, जिसमें इंद्रियाँ और मन शामिल हैं।
गीता पुर्नजन्म के सिंद्धान्त को स्वीकार करते हुए कहती है कि विषयो के प्रति मोह, कामना एवम लोभ जीव के संग एक लिंग स्वरूप सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती है जिस में जीव इन विषयों की कामना में आसक्ति सहित जो भी कर्म करता है वह एकत्रित हो जाता है। जैसे हम में मिठाई खाने की लालसा हुई तो यह इस लिंग स्वरूप सूक्ष्म शरीर मे दर्ज हो जाता है। इस लालसा से हम ने मिठाई की चोरी की, यह भी दर्ज हो जाता है, फिर चोरी से मिठाई के परिणाम दर्ज हो जाते है। अतः विषय-कर्म का सूक्ष्म शरीर जीव का ही अभिन्न भाग हो जाता है और शरीर की मृत्यु के बाद जीव को परमात्मा में विलीन होने की जगह इस विषय- कर्म के सूक्ष्म शरीर के अनुसार उस लोक ले जाता है जहां उस को जीव की कामनाओं को भोगने के सुख मिले और उस के बाद पुनः मृत्यु लोक में बचे हुए कर्मो के भोग के विभिन्न शरीर की योनि में लाता है।
देहेन्द्रियादि का ईश्वर अर्थात् स्वामी है जीव। जब तक वह किसी एक देह मे रहता है, तब तक सूक्ष्म शरीर (इन्द्रियाँ और अन्तकरण) को धारण किये रहता है और असंख्य प्रकार के कर्म करता है। अपनी वासनाओं के अनुसार वह कर्म करता है और फिर कर्मो के नियमानुसार विविध फलों को भोगने के लिये उसे अन्यान्य शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं। तब एक शरीर का त्याग करते समय वह सूक्ष्म शरीर को समेट लेता है और अन्य शरीर में जा कर पुन उसके द्वारा पूर्ववत् व्यवहार करता है।सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से सदा के लिये वियोग स्थूल शरीर के लिये मृत्यु है। मृत देह का आकार पूर्ववत् दिखाई देता है, किन्तु विषय ग्रहण, अनुभव तथा विचार ग्रहण करने की क्षमता उसमे नहीं होती, क्योंकि ये समस्त कार्य सूक्ष्म शरीर के होते हैं। जीव की उपस्थिति से ही देह को एक व्यक्ति के रूप में स्थान प्राप्त होता है। जिस प्रकार प्रवाहित किया हुआ वायु पुष्प, चन्दन, इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओं की सुगन्ध को एक स्थान से अन्य स्थान बहा कर ले जाता है, उसी प्रकार जीव समस्त इन्द्रियादि को लेकर जाता है। वायु और सुगन्ध दृष्टिगोचर नहीं होते, उसी प्रकार देह को त्यागते हुये सूक्ष्म जीव को भी नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है। जीव की समस्त वासनाएं भी उसी के साथ रहती हैं।इस श्लोक में जीव को देहादि संघात का ईश्वर कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि उसी की उपस्थिति में विषय ग्रहण, विचार आदि का व्यवहार सुचारु रूप से चलता रहता है।
जीव को यह विषय- कर्म का सूक्ष्म शरीर अपने साथ ले जाता है और कर्म के फल के अनुसार उसे नया शरीर मिलता है। जीव की मृत्यु के समय जो भी चेतना या भाव बना कर रखता है उस के अनुसार यह सूक्ष्म लिंग स्वरूप विषय-कर्म शरीर जो अदृश्य है, उसे उस स्थान पर पहुचा देता है। इसलिये मृत्यु के समय परमात्मा का स्मरण जरूरी माना गया है।
मैत्रयुनिषद में सूक्ष्म शरीर का वर्णन करते समय इस को अठारह तत्व का बताया गया है।यह अठारह तत्व में पांच तन्मात्राएँ, पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, मन, बुद्धि एवम प्राण को माना गया है। मन मे विचरण, आकर्षण, भोगने के गुण होते है, इसलिए इसको इंद्रियाओ का स्वामी भी कहा जाता है।
गीता का यह श्लोक उन सब के प्रश्न का उत्तर है कि जीव की मृत्यु के बाद क्या? प्रकृति की रचना में सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप में पांच महाभुत अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु के स्थूल स्वरूप की मृत्यु के बाद स्थूल शरीर तो या तो अग्नि से जला देते है या पृथ्वी में गाड़ देते है किंतु शेष महंत से तन्मात्राओ तक के अठारह तत्व का सूक्ष्म शरीर अपने कर्म फलो के साथ नष्ट नही होता। अतः अपनी अधूरी इच्छाओं एवम कर्म फलों को भोगने के लिए वह पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेता है या पुण्य कर्म को भोगने उच्च या निम्न लोक में कुछ समय के लिए चले जाता है। जीव का सम्बन्ध प्रकृति से है, संसार से नही। इसलिए जीव संसार के संबंधों, संपत्ति या कर्मो से कोई संबंध नहीं रखता। यह हो सकता है, कि मोह से जीव का सूक्ष्म शरीर कुछ समय के लिए सांसारिक वस्तु से जुड़ा रहे। इसी मान्यता को ले कर हिंदू धर्म में 12 दिन के कर्मकांड एवम पाठ की शुद्धि से उस जीव की मुक्ति की क्रियाएं की जाती है।
कुछ हद तक हम जीव की तुलना सिम कार्ड से कर सकते है और शरीर को मोबाइल मान सकते है। परमात्मा टावर अर्थात सिम कार्ड ऑपरेटर। बिना मोबाइल और बैटरी के सिम कार्ड कुछ नही करता। मोबाइल टूट जाने से सिम card नए मोबाइल में लग जाएगा किंतु उस का स्टोरेज, गैलरी, नंबर सब खत्म हो जाते है। मोबाइल की गुणवंता को जीव के नए कुल या योनि से कर सकते है। बैटरी चेतना या ऊर्जा शक्ति है। आज कल जो गूगल में सेव करने से पुराना पूरा हिसाब मिल जाता है, वह पतंजलि योग का संयम है। बिना मोबाइल के सिम और बिना सिम के मोबाइल की कोई कीमत नहीं और दोनो टावर के बिना काम के नही। उदाहरण अपने में संपूर्ण नही होता, किंतु कुछ कुछ अवश्य चिन्हित करता है।
सांसारिक जीव के साथ स्थूल शरीर होने से उस में संसार को भोगने की क्षमता है, किंतु जिस जीव के साथ स्थूल शरीर नही है, उसे अपने इस सूक्ष्म शरीर के बंधन को भोगने के लिए स्थूल शरीर की आवश्यकता है, इसलिए वह बार बार जन्म लेता है। मुक्ति का वास्तविक अर्थ जीव के इस सूक्ष्म शरीर के अज्ञान से मुक्त होना है। प्रकृति के कर्म के कार्य कारण के दुष्चक्र से निकलने के लिए, निष्काम होना ही प्रथम चरण है।
अतः जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी अपने सूक्ष्म लिंग स्वरूप शरीर से बंधे होने से शरीर से वियोग के बाद भी परब्रह्म में विलीन नहीं होता। जीव अकर्ता एवम साक्षी है, इसलिये यह सूक्ष्म शरीर से उस का सम्बंध प्रकृति का ही है और जब तक वह इस संबंध को मानता है, जन्म मरण से मुक्त नही हो सकता। मुक्त होने के लिये हम ने निःसंग के विषय मे पहले पढ़ा है।
अतः यह वेदान्त शास्त्र एवम गीता का कहना है कि कोई भी जीव जो परमात्मा का ही अंश एवम नित्य है, वह हर बार मृत्यु से परमात्मा में विलीन नहीं होता एवम परमात्मा द्वारा बार बार नए सिरे से पुनः प्रकृति में बीज स्वरूप स्थापित भी नही करना पड़ता।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.08।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)