।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.02 II Additional II
।। अध्याय 15.02 II विशेष II
।। स्वामी रामसुख दास जी द्वारा व्याख्या ।। विशेष 15.02 ।।
संसार वृक्ष को समझने के लिए, स्वामी रामदास जी सरल व्याख्या की है, उसे भी पढ़ने से यह अधिक ग्राह्य हो सकता है।
तस्य शाखा गुणप्रवृद्धाः – संसार वृक्ष की मुख्य शाखा ब्रह्मा है। ब्रह्मा से सम्पूर्ण देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिये ब्रह्मलोक से पाताल तक जितने भी लोक तथा उन में रहनेवाले देव, मनुष्य, कीट आदि प्राणी हैं, वे सभी संसार वृक्ष की शाखाएँ हैं। जिस प्रकार जल सींचने से वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं, उसी प्रकार गुणरूप जल के सङ्ग से इस संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं। इसीलिये भगवान् ने जीवात्मा के ऊँच, मध्य और नीच योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का सङ्ग ही बताया है । सम्पूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई देश, वस्तु, व्यक्ति नहीं, जो प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से रहित हो। इसलिये गुणों के सम्बन्ध से ही संसार की स्थिति है। गुणों की अनुभूति गुणों से उत्पन्न वृत्तियों तथा पदार्थों के द्वारा होती है। अतः वृत्तियों तथा पदार्थों से माने हुए सम्बन्ध का त्याग कराने के लिये ही गुणप्रवृद्धाः पद देकर भगवान् ने यहाँ यह बताया है कि जबतक गुणों से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध है, तब तक संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती ही रहेंगी। अतः संसार वृक्ष का छेदन करने के लिये गुणों का सङ्ग किञ्चिन्मात्र भी नहीं रखना चाहिये क्योंकि गुणों का सङ्ग रहते हुए संसार से सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो सकता ।
विषयप्रवालाः — जिस प्रकार शाखा से निकलनेवाली नयी कोमल पत्ती के डंठल से लेकर पत्ती के अग्रभाग तक को प्रवाल (कोंपल) कहा जाता है, उसी प्रकार गुणों की वृत्तियों से लेकर दृश्य पदार्थ मात्र को यहाँ, विषयप्रवालाः कहा गया है। वृक्ष के मूल से तना (मुख्य शाखा), तने से शाखाएँ और शाखाओँ से कोंपलें फूटती हैं और कोंपलों से शाखाएँ आगे बढ़ती हैं। इस संसार वृक्ष में विषयचिन्तन ही कोंपलें हैं। विषयचिन्तन तीनों गुणों से होता है। जिस प्रकार गुण रूप जल से संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं, उसी प्रकार गुणरूप जल से विषयरूप कोंपलें भी बढ़ती हैं। जैसे कोंपलें दीखती हैं, उन में व्याप्त जल नहीं दीखता, ऐसे ही शब्दादि विषय तो दीखते हैं, पर उन में गुण नहीं दीखते। अतः विषयों से ही गुण जाने जाते हैं। विषयप्रवालाः पदका भाव यह प्रतीत होता है कि विषयचिन्तन करते हुए मनुष्यका संसार से सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता। अन्तकाल में मनुष्य जिस जिस भाव का चिन्तन करते हुए शरीर का त्याग करता है, उस उस भाव को ही प्राप्त होता है – यही विषयरूप कोंपलों का फूटना है।
कोंपलों की तरह विषय भी देखने में बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं, जिस से मनुष्य उन में आकर्षित हो जाता है। साधक अपने विवेक से परिणाम पर विचार करते हुए इन को क्षणभङ्गुर, नाशवान् और दुःखरूप जान कर इन विषयों का सुगमतापूर्वक त्याग कर सकता है। विषयों में सौन्दर्य और आकर्षण अपने राग के कारण ही दीखता है, वास्तव में वे सुन्दर और आकर्षक है नहीं। इसलिये विषयों में राग का त्याग ही वास्तविक त्याग है। जैसे कोमल कोंपलों को नष्ट करने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, ऐसे ही इन विषयों के त्याग में भी साधक को कठिनता नहीं माननी चाहिये। मन से आदर देने पर ही ये विषय रूप कोंपलें सुन्दर और आकर्षक दीखती हैं, वास्तव में तो ये विषयुक्त लड्डू के समान ही हैं। इसलिये इस संसार वृक्ष का छेदन करने के लिये भोगबुद्धिपूर्वक विषय चिन्तन एवं विषय सेवन का सर्वथा त्याग करना आवश्यक है। अधश्चोर्ध्वं प्रसृताः – यहाँ च पद को मध्यलोक अर्थात् मनुष्य लोक ( इसी श्लोक के मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि,पदों) का वाचक समझना चाहिये। ऊर्ध्वम् पद का तात्पर्य ब्रह्मलोक आदि से है, जिस में जाने के दो मार्ग हैं – देवयान और पितृयान (जिसका वर्णन आठवें अध्याय के चौबीसवें पचीसवें श्लोकों में शुक्ल और कृष्णमार्गके नामसे हुआ है)। अधः पद का तात्पर्य नरकों से है, जिस के भी दो भेद हैं — योनि विशेष नरक और स्थान विशेष नरक। इन पदों से यह कहा गया है कि ऊर्ध्वमूल परमात्मा से नीचे, संसार वृक्ष की शाखाएँ नीचे, मध्य और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। इस में मनुष्य योनि रूप शाखा ही मूल शाखा है क्योंकि मनुष्य योनि में नवीन कर्मों को करने का अधिकार है। अन्य शाखाएँ भोग योनियाँ हैं, जिन में केवल पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने का ही अधिकार है। इस मनुष्य योनि रूप मूल शाखा से मनुष्य नीचे (अधोलोक) तथा ऊपर (ऊर्ध्वलोक) – दोनों ओर जा सकता है और संसार वृक्ष का छेदन करके सबसे ऊर्ध्व (परमात्मा) तक भी जा सकता है। मनुष्य शरीर में ऐसा विवेक है, जिस को महत्त्व देकर जीव परमधाम तक पहुँच सकता है और अविवेकपूर्वक विषयों का सेवन कर के नरकों में भी जा सकता है। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है – नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।। अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके – मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में किये हुए पाप पुण्यों का फल भोगने के लिये ही मनुष्य को दूसरी योनियों में जाना पड़ता है। नये पाप पुण्य करने का अथवा पापपुण्य से रहित होकर मुक्त होने का अधिकार और अवसर मनुष्य शरीर में ही है।
यहाँ मूलानि पद का तात्पर्य तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल से है, वास्तविक ऊर्ध्वमूल परमात्मा से नहीं। मैं शरीर हूँ – ऐसा मानना तादात्म्य है। शरीरादि पदार्थों को अपना मानना ममता है। पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा – ये तीन प्रकार की मुख्य कामनाएँ हैं। पुत्र परिवार की कामना पुत्रैषणा और धनसम्पत्ति की कामना वित्तैषणा है। संसार में मेरा मान आदर हो जाय, मैं बना रहू, शरीर नीरोग रहे, मैं शास्त्रों का पण्डित बन जाऊँ आदि अनेक कामनाएँ लोकैषणा के अन्तर्गत हैं। इतना ही नहीं कीर्ति की कामना मरने के बाद भी इस रूप में रहती है कि लोग मेरी प्रशंसा करते रहें मेरा स्मारक बन जाय मेरी स्मृति में पुस्तकें बन जायँ लोग मुझे याद करें, आदि। यद्यपि कामनाएँ प्रायः सभी योनियों में न्यूनाधिकरूपसे रहती हैं, तथापि वे मनुष्य योनि में ही बाँधने वाली होती हैं। जब कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है, तब उन कर्मों के संस्कार उस के अन्तःकरण में संचित होकर भावी जन्म मरण के कारण बन जाते हैं। मनुष्य योनि में किये हुए कर्मों का फल इस जन्म में तथा मरने के बाद भी अवश्य भोगना पड़ता है। अतः तादात्म्य, ममता और कामना के रहते हुए कर्मों से सम्बन्ध नहीं छूट सकता। यह नियम है कि जहाँ से बन्धन होता है, वहीं से छुटकारा होता है जैसे – रस्सी की गाँठ जहाँ लगी है, वहीं से वह खुलती है। मनुष्य योनि में ही जीव शुभाशुभ कर्मों से बँधता है अतः मनुष्य योनि में ही वह मुक्त हो सकता है। पहले श्लोक में आये ऊर्ध्वमूलम् पद का तात्पर्य है – परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उस के मूल आधार हैं और यहाँ मूलानि पद का तात्पर्य है – तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल, जो संसार में मनुष्य को बाँधते हैं। साधक को इन (तादात्म्य, ममता और कामनारूप) मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है, जिसका उल्लेख तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये पद से इसी अध्याय के चौथे श्लोक में हुआ है। मनुष्यलोक में कर्मानुसार बाँधनेवाले तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल नीचे और ऊपर सभी लोकों, योनियों में व्याप्त हो रहे हैं। पशुपक्षियों का भी अपने शरीर से तादात्म्य रहता है, अपनी सन्तान में ममता होती है और भूख लगने पर खाने के लिये अच्छे पदार्थों की कामना होती है। ऐसे ही देवताओं में भी अपने दिव्य शरीर से तादात्म्य, प्राप्त पदार्थों में ममता और अप्राप्त भोगों की कामना रहती है। इस प्रकार तादात्म्य, ममता और कामनारूप दोष किसी न किसी रूप में ऊँच नीच सभी योनियों में रहते हैं। परन्तु मनुष्य योनि के सिवाय दूसरी योनियों में ये बाँधनेवाले नहीं होते। यद्यपि मनुष्य योनि के सिवाय देवादि अन्य योनियों में भी विवेक रहता है, पर भोगों की अधिकता होने तथा भोग भोगने के लिये ही उन योनियों में जाने के कारण उन में विवेक का उपयोग नहीं हो पाता। इसलिये उन योनियों में उपर्युक्त दोषों से स्वयं को (विवेक के द्वारा) अलग देखना सम्भव नहीं है। मनुष्य योनि ही ऐसी है, जिस में (विवेक के कारण) मनुष्य ऐसा अनुभव कर सकता है कि मैं (स्वरूप से) तादात्म्य, ममता और कामना रूप दोषों से सर्वथा रहित हूँ। भोगों के परिणाम पर दृष्टि रखने की योग्यता भी मनुष्य शरीर में ही है। परिणाम पर दृष्टि न रख कर भोग भोगने वाले मनुष्य को पशु कहना भी मानो पशु योनि की निन्दा ही करना है क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोग कर मनुष्य योनि की तरफ आ रहा है, पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोग कर पशु योनि की तरफ ही जा रहा है।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष 15.02 ।।
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