।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.02 II
।। अध्याय 15.02 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.2॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥
“adhaś cordhvaḿ prasṛtās tasya śākhā,
guṇa- pravṛddhā viṣaya- pravālāḥ..।
adhaś ca mūlāny anusantatāni,
karmānubandhīni manuṣya-loke”..।।
भावार्थ:
उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय- भोग रूप कोंपलोंवाली ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध -ये पाँचों स्थूलदेह और इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने के कारण उन शाखाओं की ‘कोंपलों’ के रूप में कहे गए हैं।) देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएँ (मुख्य शाखा रूप ब्रह्मा से सम्पूर्ण लोकों सहित देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है, इसलिए उनका यहाँ ‘शाखाओं’ के रूप में वर्णन किया है) नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में ( अहंता, ममता और वासनारूप मूलों को केवल मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली कहने का कारण यह है कि अन्य सब योनियों में तो केवल पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगने का ही अधिकार है और मनुष्य योनि में नवीन कर्मों के करने का भी अधिकार है) कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता-ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।॥२॥
Meaning:
Its branches are spread below and above, nourished by the gunas. Sense objects are its sprouts, and, below in the human realm, stretch its roots that bind through actions.
Explanation:
Shri Krishna began describing an upside- down tree as a metaphor for the material world in the prior shloka. Here, he continues to describe it in more detail. While in the human form the soul performs karmas, which is the trunk of the tree, and its branches (śhākhās) extend both upward (ūrddhva) and downward (adhaḥ). Based on how the soul performed in its past and present forms it is reborn. If it led a virtuous life, when reborn, it moves to the upward branches which denote the celestial abodes of the gandharvas, devatās, etc. In case, a soul was involved in sinful acts, in the next birth, it gets degraded to the downwards branches, which are for the nether regions and animal species.
Similar to how water irrigates a tree, the three modes of material nature or the three gunas irrigate this eternal tree of material existence. The sense objects generated by these gunas are like buds on the tree (viṣhaya- pravālāḥ), which sprout causing further growth. These buds sprout creating several aerial roots of material desires. When its buds or sprouts grown into branches and touch the ground, they turn into roots that embed firmly into the ground, and then grow into several additional trunks around the main tree. Such gigantic tree structures are common in the Banyan tree family. Over a period of time, a small tree with one trunk becomes a mini forest in itself. This makes the banyan tree grow huge, covering a large area. “The Great Banyan” in the Botanical Garden of Kolkata, is one of the largest known banyan trees. It is spread across a vast area of about 4.7 acres, with over 3700 aerial roots and crown circumference of about 486 meters.
Our lives are no different. For many people, the American dream comprises owning a large house, two cars, good schools for children, a big screen TV and so on. First, the newly married family takes out a big loan to buy a house. The house is empty, so it needs furniture and appliances. The garage is empty, so two cars need to be purchased. The living room is empty, so a large screen TV is needed. The TV requires a cable connection, a DVD player, a Playstation and so on endlessly. The one purchase of a house led to other purchases, which led to other purchases and so on. This is nothing but the upside-down tree of sansaara playing out in our lives.
Likewise, in the context of the material world, the sense objects are like the buds on the aśhvatth tree, which sprout into aerial roots as they evoke desires of bodily pleasures in a person. To satiate these desires, a living being performs karma. But these desires are unending and keep increasing; similar to the aerial roots, which provide nourishment to this metaphorical tree, causing its unlimited expansion. Eventually, the soul gets further entangled into this web of material consciousness.
So, this tree of samsaara, made up of the three gunas of Prakriti, grows and expands through repetitive chasing of sense objects. Each sense object generates desires, desires generate actions to get those sense objects, and attainment of sense objects creates further desires. Actions bind us by making us giving importance to the branches of the tree, by making us run away from Ishvara, who is at the root of the tree. How do we tackle this problem? Shri Krishna gives the solution in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
सामान्य तौर पर गीता में यह अश्वत्थव वृक्ष के बारे में ऋग्वेद से लिखा जाने के कारण पीपल का पेड़ माना गया है। प्राचीन ग्रंथो में यह भी माना गया है कि यह संसार वृक्ष वटवृक्ष होगा, पीपल का नहीं। वट वृक्ष के पाए ऊपर से नीचे को बढ़ते है। महाभारत में लिखा है कि मार्कडेय ऋषि ने प्रलयकाल में बाल रूपी परमेश्वर को एक उस प्रलयकाल में भी न नष्ट होने वाले अव्यय न्यग्रोध अर्थात बड़ के पेड़ की शाखा पर देखा था। छान्दोग्य में अव्यक्त परमेश्वर से अपार दृश्य जगत का निर्माण के जो दृष्टांत दिया गया है, वह न्यग्रोध के बीज अर्थात बट वृक्ष का है।
श्वेताश्वतर उपनिषद एवम मुंडक उपनिषद ने ऋग्वेद से उदरण लिया है अतः इसे पीपल का ही पेड़ माना है।
इस के अतिरिक्त दत्तात्रेय के वृक्ष के रूप में तीसरा नाम औदुम्बर वृक्ष का है। अतः हम कह सकते है ये तीनो कल्पनाएं है कि परमेश्वर की माया से उत्पन्न हुआ जगत एक बड़ा पीपल, बड़ या औदुम्बर है, इसलिये विष्णुसहस्त्रनाम में न्यग्रोधोदम्बरोss शवत्थ नाम विष्णु का दिया है। विष्णुसहस्त्रनाम एवम गीता दोनों ही महाभारत के हिस्से है किंतु यहाँ हम अपने वर्णन में पीपल का वृक्ष ही मानते है।
सृष्टि की यह परिकल्पना वृक्ष के रूप में की गई है। इस श्लोक में वृक्ष रूपक से प्रथम ब्रह्मा, फिर वायुलोक, चंद्रलोक, विद्युतलोक, सूर्यलोक, वरुण लोक, इंद्रलोक एवम मूल में सब से ऊपर ब्रह्मलोक है जहाँ आदि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है। यहाँ गन्धर्व, यक्ष, पितर देवादि रहते है। नीचे मनुष्य, पशु, कीटादि देह रूप में है। यह प्रकृति के तीन गुणों जिन्हें मूसल भी कहा गया है, से बढ़ता है एवम शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवम गंध पांच विषय है। यह सब पांच कर्म इंद्रियाओ और पांच ज्ञान इंद्रियाओ एवम नव द्वार और दस प्रकार की वायु से विकसित है। सुख-दुख इस के दो फल है। जैसे जैसे जीव की उन्नति होती है वह ऊपर की ओर बढ़ता जाता है। परंतु ब्रह्म लोक से लेकर नीचे तक सब अनित्य होते हुए भी चिर काल से चला आ रहा है। मूलतः वृक्ष के माध्यम से यह ही बताया जा रहा पाताल लोक से ब्रह्मलोक तक यह प्रकृति फैली हुई है, लोक इन की शाखाएं है, एवम समस्त प्राणी प्रकृति की त्रियामी गुणों की रचना है। सभी अपने कर्मो से अहम, ममता एवम वासना से बंधे है। यह वृक्ष इतना विशाल है कि इसके आदि, अंत एवम मध्य को जानना असंभव सा है। इसलिये यह माया जाल ही है।
वेदों की शैली ही लक्षणात्मक है। दर्शनशास्त्र के सूक्ष्म सिद्धान्तों को व्यक्त करने के लिए जगत् की किसी उपयुक्त वस्तु का वर्णन ऐसी काव्यात्मक शैली में करना, जिससे धर्म के गूढ़ सन्देश या अभिप्राय का बोध कराया जा सके, लक्षणात्मक शैली कही जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की शाखाएं ऊपर और नीचे फैली हुईं हैं। इनसे तात्पर्य देवता, मनुष्य, पशु इत्यादि योनियों से है। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा जगत् के विकास की दिशा कभी उन्नति की ओर होती है, किन्तु प्राय यह पशु जीवन के निम्न स्तर की ओर रहती है।
प्रकृति के तीनो गुण जीव के अंदर रहते है एवम बाहर विषय का संग रहता है। इसलिये जीव अपने अपने गुणों से बाह्य विषयो में रुचि एवम प्रवृति विकसित करता है। फिर उस रुचि व प्रवृति के अनुसार ही इस जीव के वैसी वैसी योनि की प्राप्ति होती है। इसप्रकार गुण तो इन योनि रूप शाखाओं की वृद्धि करते है एवम बाह्य विषय अपनी आसक्ति द्वारा इन शाखाओं को परिपक्क करते है।
अध और ऊर्ध्व इन दो शब्दों से इन्हीं दो दिशाओं अथवा प्रवृत्तियों की ओर निर्देश किया गया है। गुणों से प्रवृद्ध हुई जीवों की ऊर्ध्व या अधोगामी प्रवृत्तियों का धारण पोषण प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के द्वारा किया जाता है। इन गुणों का विस्तृत विवेचन पूर्व अध्याय में किया जा चुका है।
किसी भी वृक्ष की शाखाओं पर हम अंकुर या कोपलें देख सकते हैं जहाँ से अवसर पाकर नईनई शाखाएं फूटकर निकलती हैं। प्रस्तुत रूपक में इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों को प्रवाल अर्थात् अंकुर कहा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि विषयों की उपस्थिति में हम अपने उच्च आदर्शों को विस्मृत कर विषयाभिमुख हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन भोगों की पूर्ति के लिये उन्मत्त होकर नये नये कर्म करते हैं। अत विषयों को प्रवाल कहना समीचीन है।
यहां यह समझना आवश्यक है कर्म प्रारब्ध से बंधा है अतः जीव की उच्च या निम्न योनि कर्म के फलों से बंधी है तो वह दुष्चक्र में फसा रह जाएगा। किंतु ईश्वर ने मनुष्य को इच्छा शक्ति दी है। अतः कर्म की अनिवार्यता को इच्छा शक्ति से नया आयाम दिया जा सकता है, जब जीव निष्काम भाव से कर्म करेगा तो प्रारब्ध के कर्म करने के बाद भी वह कर्मफलो से मुक्त रहेगा और उस की गति उच्च होती जायेगी। किंतु यदि वह कर्म आसक्ति भाव से करेगा तो शनै शनै वह निम्न स्तर में जाता जाएगा।
इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की गौण जड़ें नीचे फैली हुई हैं। परमात्मा तो इस संसार वृक्ष का अधिष्ठान होने से इसका मुख्य मूल है किन्तु इसकी अन्य जड़े भी हैं , जो इस वृक्ष का अस्तित्व बनाये रखती हैं। मनुष्य देह में यह जीव असंख्य प्रकार के कर्म और कर्मफल का भोग करता है, जिसके फलस्वरूप उसके मन में नये संस्कार या वासनाएं अंकित होती जाती हैं। ये वासनाएं ही अन्य जड़ें हैं, जो मनुष्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिये कर्मों में प्रेरित करती रहती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का कारण भी ये वासनाएं ही हैं। जैसा कि लोक में हम देखते हैं, वृक्ष की ये अन्य जड़ें ऊपर से नीचे पृथ्वी में प्रवेश कर वृक्ष को दृढ़ता से स्थिर कर देती हैं, वैसे ही ये संस्कार शुभाशुभ कर्म और कर्मफल को उत्पन्न कर मनुष्य को इस लोक के राग और द्वेष, लाभ और हानि, आय और व्यय आदि प्रवृत्तियों के साथ बाँध देते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.02।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)