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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.01 II Additional II

।। अध्याय      15.01 II विशेष II

।। ब्रह्म ज्ञान का अध्ययन और हम।। विशेष गीता 15.01 ।।

पूर्व के अध्याय में हम ने विभिन्न योग निष्काम कर्म योग, सांख्य या ज्ञान योग, बुद्धि योग और भक्ति योग के विषय में विस्तार से पढ़ा। अर्जुन के माध्यम से परमात्मा को उन की विभिन्न विभूतियों और प्रत्यक्ष दर्शन दिव्य दृष्टि से प्राप्त किए। ज्ञान की दृष्टि से क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ एवम प्रकृति -पुरुष, प्रकृति के त्रय गुण विभाग आदि पढ़ने के बाद उस  ब्रह्म स्वरूप बीज का ज्ञान होना आवश्यक है, इसलिए इस अध्याय का सूत्र पात किया गया।

वस्तुत: पुस्तक या प्रवचन से ज्ञान नहीं हो सकता। ये लक्ष्य को पाने की जिज्ञासा या संदेह को दूर कर सकते है। ज्ञान अभ्यास और वैराग्य से ही होगा। इसलिए महाभारत के सार में स्वयं वेदव्यास जी ने कहा है कि मैं धर्म धर्म को आवाज दे कर प्राप्त करने के चिल्लाता हूं किंतु मुझे कोई नहीं सुनता। सभी अपने अपने तरीके से जी रहे है।

पुरुषोत्तम योग का यह अध्याय जीव को अपने अज्ञान का बोध भी कराता है और संसार कैसे प्रकृति के द्वारा भ्रमित कर कर के चलाया जा रहा है,बतलाता है। इसलिए जिसे मोक्ष चाहिए, वही इस अध्याय को समझ सकता है। किंतु प्रकृति के सुख – दुख में अज्ञानी जीव मोक्ष को नहीं तलाशता, उसे सुख की तलाश है। यही प्रकृति का सफलता का रहस्य है।

कुछ लोग कहते है कि अगले तीन दिन किसी विपत्ति को टालने के लिए अध्याय 14 का पाठ करना चाहिए। अध्याय 14 आत्म ज्ञान का पाठ है किंतु अध्याय 15 बीज स्वरूप पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान है इसलिए यह अध्याय नियमित पाठ के सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह अध्याय परमात्मा के स्वरूप को वर्णित करता है, इसलिए 20 श्लोको में सिमटा, इस के प्रत्येक श्लोक को मंत्र भी कहते है। मेरे कथन का उद्देश्य यह कदापि नहीं है, पाठ अध्याय 14 की बजाए अध्याय 15 का पाठ करना चाहिए। क्योंकि बिना एक से चौदह पाठ को पढ़े, कोई इस पाठ को समझ नही सकता और बिना चिंतन और मनन के कोई भी पाठ को पढ़ने का कोई लाभ भी नही है। गीता अभ्यास और वैराग्य के कर्म करने का ग्रंथ है। इसलिए गीता का पाठ का अधिकारी भी वही होगा जिस ने अपने कर्तव्य कर्म में दक्षता प्राप्त कर ली है।

संपूर्ण दृश्य सृष्टि में हम जो अनुभव करते है उस में प्रकृति के द्वारा नियमित जीवन और सामाजिक जीवन अधिक है। मनुष्य ने अपनी सुविधा से परमात्मा को भी अपने विचारो से विभिन्न मतों में बांट लिया है। रहने के लिए प्रकृति निष्पक्ष और निरंतर क्रिया शील होने के बावजूद मनुष्य ने अपना देश राज्य, प्रांत, घर के अतिरिक्त धर्म, जाति और विचारो से अलग अलग ही नही किया वरन इस के अनेक युद्ध करते हुए मार काट, लूट पाट और भूमि के उस टुकड़े पर अधिकार जमाने की कोशिश की, जो उस का है ही नही। लाखो – सैंकड़ों लोग आए और खाली हाथ चले भी गए, किंतु इस ब्रह्म ज्ञान को समझने में भूल करते गए। इसलिए वेदांत में यह सब दृश्य सृष्टि परमात्मा की योगमाया का माया जाल है, और जो इस से परे है, उस को जानना ही ब्रह्म ज्ञान है। इसलिए उस को एक वृक्ष  की भांति कल्पना करते हुए यह दर्शाया गया है किस प्रकार एक नष्ट न होने वाले बीज से यह संपूर्ण सृष्टि की रचना होती है और किस प्रकार पुनः बीज में बदल जाती है।

अभी तक जो ज्ञान हमने पढ़ा, वह विज्ञान का भी ज्ञान है, इसलिए विज्ञान उस ज्ञान की बारीकी का अध्ययन भी करता है और शनैः शनैः प्रमाणित भी करता है। किंतु ब्रह्म का ज्ञान विज्ञान का हिस्सा नहीं है। इसलिए इस में जो भी हम पढ़ेंगे वह ज्ञान के अनुभव का हिस्सा ही है, परंतु जब ज्ञाता, ज्ञेय  और ज्ञान सब एक ही हो तो कौन किस को ज्ञान देगा कौन किस से ज्ञान प्राप्त करेगा और क्यों जानने को शेष रहेगा। इसलिए इस ब्रह्मज्ञान के अध्याय के बाद ज्ञान को अधिक जानने का विषय भी नही रहता और इस के बाद गीता,  पूर्व में दिए ज्ञान – विज्ञान के विषय को ही अगले तीन अध्याय में विस्तार से कहती है।

पातंजली योग में योग से सयंम् तक, भक्ति में भजन कीर्तन से पूर्ण समर्पण तक और निष्काम कर्म योग में वर्णानुसार अपने कर्तव्य कर्म के पालन की जो बाते हम ने पढ़ी है या सीखी है, उस के माया जाल में मनुष्य जीवन भर फस कर ज्ञान, ध्यान, भजन, कीर्तन, योग, कथा, पूजा – पाठ आदि करता रहता है और आज के सोशल मीडिया में परमात्मा के चित्र, कथाएं, मंत्र, उपदेश और कर्म काण्ड विधि को प्रसारित भी करता रहता है।

ब्रह्म को प्राप्त करना, जानना और उस में विलीन हो जाना ही मनुष्य या जीव का लक्ष्य है, इसलिए इस ब्रह्म ज्ञान को यद्यपि उन लोगो ने बताया है, जो ब्रह्मविद या ब्रह्मसंन्ध हुए, किंतु जैसे ही वो ब्रह्म में लीन हुए तो शून्य के अतिरिक्त कुछ नही है अर्थात स्वर्ग का दरवाजा खोल भी यदि दिया है, तो प्रवेश स्वयं को ही करना होगा और जो प्रवेश करेगा, वह पुनः लौट कर बताने नहीं आता।

हिंदू अर्थात सनातन धर्म में उदारवादिता, विचारो की स्वतंत्रता, अन्य सभी धर्मो के प्रति सम्मान और उन की ग्राह्य बातो की स्वीकृति के रहते, इस धर्म के लोगो में धर्म के प्रति न केवल कट्टरता या मतांधता का अभाव हो गया बल्कि स्वार्थ, लोभ और अहंकार के दुर्गुणों के रहते, अपने अपने हिसाब से धर्म की व्याख्या भी की गई। लोगो ने धर्म के कर्मकांडो, यज्ञ और वेद के नियम भी अपनी सुविधा से बिना मूल तत्व को समझे, एक सामाजिक प्रक्रिया में बदल कर करना शुरू कर दिया। स्वार्थ – लोभ में अन्य मतों के कट्टर लोगो में इस के उदारवादिता का लाभ उठाया, इस के नियम ग्रंथ भी भ्रष्ट करने का कार्य भी किया। किंतु जिस ज्ञान की नीव हमारे ऋषि – मुनियों ने सनातन सत्य पर रखी, वह अटल है, इसलिए यह विचार धारा समय समय पर नाश किए जाने के बाद भी, पुनः जीवित हो जाती है। इसलिए उसी सनातन सत्य के ज्ञान को हम ब्रह्म ज्ञान के स्वरूप में पढ़ेंगे।

मनुष्य में तामसी गुण स्वावाभिक है, इस के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता भी नहीं रहती। विषय समझने में थोड़ा भी गंभीर हो तो ज्यादा प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती और हम विषय को गहराई से समझने की बजाए, जितना समझते है, उसी में स्वयं को पंडित मान कर तर्क भी कर लेते है और ज्ञान भी बाटने लगते है। प्रकृति की यह स्वावाभिक प्रवृति के कारण योगमाया अपना विस्तार इस सृष्टि में गीता जैसे अनेक महान ग्रंथ के रहते भी, सरलता से करती है। क्योंकि अन्य कोई धर्म में उदारता इतनी अधिक नही है, इसलिए उन के विषय में बात भी करने का अधिकार भी नही है। ब्रह्म ज्ञान के  लिए इस तामसी प्रवृति का भी त्याग आवश्यक है।

इसी प्रकार अश्वस्थ वृक्ष और संसार की तुलनात्मक विशेषता का वर्णन आदि गुरु शंकराचार्य जी बहुत विस्तृत की है, उस की प्रमुख दस समानताओं को हम पढ़ते है।

पहली सामान्य विशेषता है महात्वम्। महात्वम् का अर्थ है कि दोनों बहुत बहुत विशाल हैं; बहुत बहुत विशाल; विशालता सामान्य विशेषता है। ब्रह्मांड भी बहुत विशाल और विशाल है; और अश्वत्थ वृक्ष भी; एक छोटा पौधा नहीं, यह एक विशाल वृक्ष है। विशालता प्रथम असामान्य विशेषता है।

दूसरी सामान्य विशेषता है अद्यन्त रहितत्वम्। आप दोनों की शुरुआत का पता नहीं लगा सकते। इसलिए कभी यह सवाल न पूछें कि पहला कर्म या पहला जन्म कैसे आया। यह कभी नहीं आया; ब्रह्मांड हमेशा से था। इसलिए आप शुरुआत के बारे में बात नहीं कर सकते और इसलिए आप अंत के बारे में भी बात नहीं कर सकते; यह कर्म से जन्म; जन्म से कर्म का एक शाश्वत चक्र है। कर्म के फल को प्रारब्ध में भोग तो रहे है किंतु कर्म का चक्कर कब और कैसे शुरू हुए, इस को कोई नहीं जानता।

तीसरा गुण है अनिवर्चनीयत्व अव्याख्येयता। तार्किक रूप से वर्गीकरण न किया जा सकने वाला। किस अर्थ में? आप कभी नहीं कह सकते कि कोई चीज़ कारण है या प्रभाव। आप कभी भी यह निर्धारित नहीं कर सकते कि कोई चीज़ कारण है या प्रभाव, क्योंकि एक दृष्टिकोण से, कोई चीज़ कारण है, वही चीज़ दूसरे दृष्टिकोण से प्रभाव है। तो आज कारण है या प्रभाव। आप क्या उत्तर देंगे। कल के दृष्टिकोण से यह एक प्रभाव है। कल के दृष्टिकोण से यह एक कारण है। एक व्यक्ति अपने माता-पिता के दृष्टिकोण से एक प्रभाव है और अपने बच्चों के दृष्टिकोण से कारण है और इसलिए पेड़ भी अनिवर्चनीय है। ब्रह्मांड भी अनिवर्चनीय है। इसीलिए हम माया शब्द का प्रयोग करते हैं। यह एक जादू है।

फिर चौथा सामान्य गुण है मूलवत्व। पेड़ की एक जड़ होती है। आपके पास कभी भी ऐसा पेड़ नहीं हो सकता जिसके नीचे जड़ न हो। इस पेड़ की एक अदृश्य जड़ है और संसार की भी एक अदृश्य जड़ है जिसे भगवान कहते हैं।  इसीलिए विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम अदोक्षजः है। अक्षजः का अर्थ है इन्द्रिय ज्ञान। अक्ष का अर्थ है इन्द्रिय अंग। जः का अर्थ है बाहर से पैदा होना। अधः का अर्थ है नीचे या परे। भीतर न गिरना। तो अदोक्षजः का अर्थ है वह जो इन्द्रिय ज्ञान से परे है और इसलिए ब्रह्मांड का अदृश्य मूल भगवान है और यह मूल दोनों में समान है, हम इसे मूलवत्वम् कहते हैं।

फिर पाँचवाँ सामान्य लक्षण है शाकवत्व। एक विशाल वृक्ष की कई शाखाएँ होती हैं; दूर-दूर तक फैली हुई और कुछ शाखाएँ सबसे ऊपर होती हैं। इस प्रकार ब्रह्मांड एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएँ चौदह लोक हैं। तो शाकवत्व अगला सामान्य लक्षण है।

फिर छठी सामान्य विशेषता है पर्णावत्वम्। वृक्ष पत्तों से भरा है। वृक्ष पत्तों से भरा है। और इतने घने पत्ते कि आप तने और शाखाओं को भी नहीं देख पाते; इतने सारे पत्ते हैं; और इसी तरह, सार्वभौमिक वृक्ष में कर्माणि के रूप में पत्ते हैं या वेदों के कर्म कांड की तुलना संसार वृक्ष के पत्तों से की जाती है। पत्ते वृक्ष की निरंतरता और वृद्धि के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। वास्तव में, पत्ते वृक्ष की रक्षा करते हैं; वृक्ष को जीवित रहने में मदद करते हैं। इसी तरह वेदों का कर्म कांड संसार वृक्ष की रक्षा करता है जैसे मूल वृक्ष के पत्ते करते हैं।

फिर सातवीं सामान्य विशेषता है फलवत्वम्। किसी भी पेड़ या अधिकांश पेड़ों में फल होंगे, क्योंकि उन्हें पक्षियों को आकर्षित करने के लिए आकर्षित करना होता है। इसलिए, पेड़ का मतलब है फलम या फल होगा; और फल तीन प्रकार के होते हैं, उनमें से कुछ मीठे होते हैं; उनमें से कुछ खट्टे होते हैं, और उनमें से कुछ खट्टा-मीठा होते हैं; यह एक मिश्रण है। इसी तरह, पूरा संसार वृक्ष भी हमें तीन प्रकार के फल देता है; सुखम फलम, दुख फलम और कभी-कभी मिश्र फलम।

आठवाँ लक्षण है पक्षी आश्रयवत्। वृक्ष पक्षियों के घोंसले के लिए आधार बन जाता है। इस प्रकार वृक्ष पक्षियों के लिए घोंसला बनाने का स्थान बन जाता है, जो अकेले ही फल खाते हैं। वृक्ष खाने वाला नहीं है; केवल पक्षी जो वृक्ष पर रहते हैं, वे ही इस सुख दुःख फल का आनंद लेते हैं। इसी प्रकार विशाल ब्रह्मांड में पक्षी कौन हैं; सभी जीव पक्षी हैं। कुछ जीव उच्च शाखाएँ हैं, अर्थात् स्वर्ग लोक, देव शरीरम्; उनमें से कुछ मध्य शाखा में हैं, अर्थात् मनुष्य लोक, मनुष्य शरीरम्; उनमें से कुछ निचली शाखाओं में हैं, अर्थात् अधो लोक और अधो शरीरम् और इसलिए पक्षी आश्रय का अर्थ है आधार। वृक्ष पक्षियों को सहारा देता है। इसी प्रकार संसार वृक्ष जीव जगत को सहारा देता है।

नौवां गुण है चलनवत्वम्। विशाल वृक्ष हवा के कारण हिलता है; खास तौर पर जब शक्तिशाली चक्रवाती हवा चलती है। भले ही वह एक विशाल वृक्ष है, लेकिन वह ऊपर-नीचे, इधर-उधर घूमता है। इसी तरह, पूरे संसार वृक्ष के साथ-साथ सभी जीव प्रारब्ध कर्म की हवा द्वारा इधर-उधर ले जाए जाते हैं। इसलिए हम सभी को प्रारब्ध की हवा द्वारा विभिन्न स्थितियों, विभिन्न स्थानों, विभिन्न स्थितियों में ले जाया जाता है।

दसवीं और अंतिम सामान्य विशेषता (हमारे लिए अंतिम!) चेद्यत्वम् है। यद्यपि वृक्ष बहुत विशाल है, उचित प्रयास से, इस वृक्ष को जड़ से उखाड़ा जा सकता है। उचित कुल्हाड़ी का उपयोग करके, इस वृक्ष और चक्र को समाप्त करना संभव है। इसी तरह, विशाल संसार चक्र को भी ज्ञानम् नामक विशेष कुल्हाड़ी से उखाड़ा जा सकता है। वास्तव में वृक्षः शब्द का अर्थ ही है जिसे उखाड़ा जा सके। यह मूल वृश्च से निकला है; वृषणम् का अर्थ है चेदानम्। शंकराचार्य ने अपनी टिप्पणी में कहा है ॐ वृश्चु छेदने। तो धातु पात, उद्धरण और वृषणनाथ, वृक्षः, इसे उखाड़ना संभव है; आसान नहीं है। यदि यह एक छोटा पौधा है, तो हम इसे आसानी से हटा सकते हैं, लेकिन यदि यह अश्वत्त वृक्ष है, तो यह इतना आसान नहीं है।

अतः इस ज्ञान के विषय में जो भी   अध्याय में कहा गया है, गंभीरता से पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष 15.01 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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