Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.S II Summary II

।। अध्याय      14.S II सारांश II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ अध्याय: १४ सारांश॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे प्राकृतिकगुणविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥

|| ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē

guṇatrayavibhāgayōgō nāma caturdaśō’dhyāyaḥ ||

भावार्थ : 

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में प्राकृतिक गुण विभाग-योग नाम का चौदहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

Meaning:

Thus is concluded the 14th chapter of the Gītā, which is happily titled guṇathraya

vibhāga, the classification of the three guṇas, satva, rajas and tamas, and also guṇa

athitham brahma. Guṇa thraya, guṇa athitha vibhāga yōgaḥ

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

Summary of Bhagvad Gita Chapter 14:

In the thirteenth chapter, we learned that our existence in this world is the result of a two-step problem. First, ignorance of our real nature creates this illusory but distinct entity called the Purusha or the jeeva. The jeeva gets trapped as a result of its attachment to the three gunas of Prakriti. In order to provide the means by which we can detach ourselves from the three gunas, Shri Krishna reveals this teaching in the fourteenth chapter.

He begins by glorifying this knowledge, and by revealing its fruit as fruit as liberation or moksha. He reiterates that the combination of the awareness aspect and the material aspect of Ishvara gives rise to this entire universe. The jeeva, the awareness aspect of Ishvara present in each of us, identifies with Prakriti, the material aspect. This identification, a product of ignorance, ensnares us in the endless cycle of birth and death in various kinds of wombs.

Next, we are led through a detailed analysis of Prakriti. Like the driver who erroneously identifies with someone else’s car and bears the consequences of that identification, we identify with the three gunas erroneously and are bound by their characteristics. Sattva binds through attachment to joy and knowledge. Rajas binds through attachment to action. Tamas binds through attachment to heedlessness, laziness and sloth. Only one guna dominates at one time. When one guna is strong, it overpowers the others.

Shri Krishna gives us the effects of each guna so that we can look within to understand the proportion of gunas within us. If we are full of radiance and knowledge, sattva prevails. If we are greedy all the time, and it results in desire and action, rajas prevail. If we are full of ignorance, heedlessness and error – tamas prevails.

Our fate after death is also determined by our predominant mental state at the time of death. A sattvic state leads a jeeva to come into a family of knowledge and improve its chance of liberation. A rajasic state leads it into a materialistic and action-oriented family. A tamasic state leads a jeeva to take birth as animals or plants, hurting its chances of liberation. But to achieve liberation, we need to transcend all the three gunas.

Arjuna asks the question – what are signs of one who has transcended the three gunas? Shri Krishna replies – it is one who is not impacted, affected or attached to any of the gunas. Such a person views the entire universe, including his body, as gunas acting upon gunas. How does such a person behave in the world? He shows complete and utter equanimity towards objects, situations and people at all times. And how does one transcend the gunas in practice? Only through single pointed devotion to Ishvara, since Ishvara is the abode of nirguna brahman, the unconditioned and pure eternal essence. We need to detach from Prakriti and attach ourselves to Ishvara.

।। सारांश ।। अध्याय 14 ।।

पूर्व अध्याय में क्षेत्र एवम क्षेत्रज्ञ के विषय मे पढ़ा था। जिस में ज्ञान के विषय मे बताया गया था। ज्ञान से जीव को यह ज्ञात हो पाता है, वह परब्रह्म का ही अंश है, इसलिये साक्षी, दृष्टा एवं नित्य है किंतु प्रकृति के संयोग से वह संसार मे आता है। प्रकृति को माया, त्रिगुणयामि एवम क्षेत्र कहा गया एवम जीव को क्षेत्रज्ञ बताया गया। क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के बाद क्षेत्र का ज्ञान भी विस्तार से जानना आवश्यक है जिस से जीव मुक्त हो सके।

सनातन धर्म किसी विचार की कल्पना मात्र न हो कर ज्ञान – विज्ञान पर आधारित भी है और उस सत्य के प्रकाश को प्रचारित करता है, जिस को विज्ञान द्वारा भी असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। सनातन धर्म में अधिभौतिक, आधिदैविक और अध्यात्म तीन विभाग से सत्य के ज्ञान और विज्ञान का अन्वेषण है। प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप का वर्णन, उस का विस्तार और सृष्टि की रचना को हम अधिभौतिक एवम आधिदैविक सिद्धांतो में त्रयगुण के अंतर्गत जानते है जिन्हे सत, रज और तम कहा गया है। सत अर्थात उत्कृष्ट अवस्था और तम अर्थात निकृष्ट अवस्था और रज अर्थात इन के मिश्रण की अवस्था। सनातन धर्म आधुनिक विज्ञान के अध्ययन का विषय है, क्योंकि यह ज्ञान विज्ञान, ज्योतिषी, रसायन, तकनीकी और गणित आदि विषयों को भी धर्म के अंतर्गत अध्ययन का विषय मानता है, इसलिए वेद इन विषयों के साथ राग – संगीत आदि सहित अध्यात्म का विषय को स्पष्ट भी करते है और विभिन्न पद्धति और विचारो को अध्यात्म में अध्ययन के विषय भी मानते है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष है, इसलिए इस के लिए विभिन्न मार्ग भी स्वीकृत किए गए है और उन सब का समन्वय करते हुए, परमात्मा को अंतिम सत्य भी कहा गया है।

न्याय, सांख्य और वेदांत मत में अंतर को समझते हुए, प्रकृति और पुरुष को अनादि तत्व कहा गया है। वेदांत में प्रकृति और पुरुष का एकात्म स्वरूप परमात्मा कहा गया है। अत: गीता सांख्य और वेदांत दोनो मतों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का एवम पुरुष और प्रकृति का वर्णन करती है। जिसे हम ने विस्तार से पढ़ा।

चतुर्दश अध्याय परमज्ञान का अध्याय है क्योंकि जीव को क्षेत्र का ज्ञान अर्थात प्रकृति के त्रियामी गुणों का परिचय इसी अध्याय में है। इस ज्ञान को जान लेने वाला ही मृत्यु लोक से मुक्त हो कर परब्रह्म को प्राप्त कर सकता है।

त्रियामी गुण सत्व-रज-तम प्रकृति की कोई विशेषता न हो कर प्रकृति ही है। जो कोई जब कभी भी प्रकृति के बंधन से छूट पाया है केवल इस ज्ञान के आश्रय ही मुक्त हुआ है, यज्ञ दान तपादि कर्म   प्रकृति के बंधन से मुक्त करने में न समर्थ हुए है, और न होंगे। इस ज्ञान को जानने वाला जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होता है।

परमात्मा ने बताया कि यह महदब्रह्मरूप प्रकृति समस्त भूतों की योनि है जिस में में पिता रूप में जीव का बीज डालता हूँ। अर्थात प्रकृति परमात्मा का ही स्वरूप है एवम इस मे सब क्षर-अक्षर, जड़- चेतन सभी प्राणी ही परमात्मा से उत्पन्न हुए है।

परमात्मा ने सत्त्व-रज- तम तीन प्रकृति के गुण बताए। सत्त्व गुण प्रकाश, सुख , वैराग्य का प्रतीक है, रज गुण राग, तृष्णा एवम आसक्ति का तथा तम गुण अज्ञान से उत्पन्न प्रमाद, आलस्य एवम निंद्रा का प्रतीक है।

सत्व गुण से सुख एवम संतोष की प्राप्ति है, रज गुण आसक्ति से कर्म को प्रेरित करता है एवम तम गुणी सांसारिक सुखों में मन की गति से पशु जैसा होता है।

सत्व गुणी उच्च लोक को प्राप्त को प्राप्त होता है, रजोगुणी मनुष्य जन्म में प्राप्त होता है एवम अधोगति को प्राप्त होता है। तीनो गुण ही प्रकृति है गुण है अतः बंधनकारी है।

यह तीनों गुण आपस में गुथे हुए है अतः विभिन्न परिस्थिति में कोई एक गुण अन्य गुण को दबा कर आगे होता है, जिस से जीव का स्वभाव भी उसी गुण के अनुसार समय समय पर बदलता रहता है।

सत्वगुणी क्योंकि ज्ञान एवम प्रकाश को प्राप्त करता है इसलिये वह प्रयास करके गुणातीत हो कर मोक्ष को प्राप्त हो सकता है।

जीव अकर्ता एवम साक्षी है, वह प्रकृति के इस गुणो के खेल में कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव के कारण लिप्त होता है एवम कर्म बंधन को प्राप्त होता है। मृत्यु लोक से ब्रह्म लोक तक प्रकृति ही है अतः अनित्य है एवम यहाँ का हर प्राणी इन तीनो गुणों से मुक्त नहीं। मुक्ति मात्र गुणातीत अवस्था से मिलती है और गुणातीत अवस्था का अर्थ है कि इस बात का ज्ञान होना की वह और प्रकृति अलग अलग है।

इस के बाद परमात्मा ने गुणातीत जीव के गुण, आचरण एवम व्यवहार के बारे में बताया जो हम ने पूर्व में कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग एवम भक्तियोग में भी पढ़ा। तातपर्य यही के परमात्मा को प्राप्त करने वाला जीव प्रकृति से मुक्त नहीं होता किन्तु वह गुणातीत हो कर अपना जीवन व्यतीत करता है एवम उस के बाद परमात्मा में विलीन हो जाता है। गुणातीत अवस्था मे उस के किये हुए प्रत्येक कार्य निष्काम भाव के एवम लोक संग्रह के होते है। कर्म का अच्छा या बुरा होना उस के करने वाले गुण पर निर्भर होता है। गुणातीत बिना ज्ञान के आश्रय के प्राप्त नही हो सकता और ज्ञान  बिना गुरु के प्राप्त नही हो सकता,  इसलिये जगत में कृष्ण से बढ़ा गुरु कोई नही, उन का आश्रय जीव को लेना ही चाहिए।

गुणातीत जीव अव्यभिचारणी भक्ति द्वारा सगुण ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त करता है। इस सगुण ब्रह्म, प्रकृति, जीव एवम ब्रह्मांड का आश्रय परमब्रह्म अर्थात स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही है।

श्रीवसिष्ठजी कहते हैं- मनोनिग्रह में, आत्मा या परमात्मा के निरन्तर चिन्तन से मन को मिथ्या अथवा अनात्मवस्तु से हटाकर सत्य अथवा आत्मतत्त्व में लगाया जाता है तथा उस बोध से सम्पन्न किया जाता है।।

व्यवहारिक जीवन मे गुणों का ज्ञान हमे अपने आचरण, व्यवहार एवम कर्म पर अध्ययन करने के लिये दिशा निर्देश है, जिस से हम अपने को तामसी गुणों से बचाते हुए सात्विक गुणों की ओर बढे। वेद मंन्त्र “असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय” मूलतः गुणातीत ही होने का मंन्त्र है। इसलिये जब भी मोह उत्पन्न हो, अधिक निंद्रा आये, आलस्य आये,  प्रमाद उत्पन्न हो, हमे सावधान हो जाना चाहिये एवम मन, बुद्धि विवेक से निर्णय लेना चाहिए। गुण प्रकृति है, प्रकृति पर सवारी घोड़े की सवारी है यदि स्वयं एवम घोड़े पर नियंत्रण नहीं है तो औंधे मुंह गिरना निश्चित है, अन्यथा सवारी का आनंद ले सकते है।

जीवन मे आदर्श विचारों के साथ जीना एवम उस का महत्व इसी अध्याय की देन है जो हमे बताता है कि आदर्श विचार एवम आचरण ही हमे सत्वगुणो की ओर ले जाता है एवम उस से हम गुणातीत हो कर अव्याभिचारणी भक्ति करते हुए स्वयं सगुण ब्रह्म हो सकते। इस के परमात्मा का आश्रय ले कर निष्काम कर्म करते रहना चाहिये।

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के बाद हम ने गुण एवम  गुणातीत अवस्था को पढ़ा। प्रकृति एवम पुरुष की द्वेत की परिभाषा को न स्वीकार करते हुए, जिस एक ही परमेश्वर की विभूतियां प्रकृति एवम पुरुष दोनों है, उस परमेश्वर का ज्ञान एवम विज्ञान दृष्टि से निरूपण पंचदशो अध्याय में किया गया है। यह हम अगले अध्याय में पुरुषोत्तम योग में पढेंगे।

गीता में अभी तक जिन विभिन्न योग का वर्णन एवम स्वरूप को हमे ने पढ़ा है उन में शुरुवात में चाहे वे अलग अलग दिखते है किंतु बाद में वह सब एक ही स्थान में मिलते है। इसलिये कोई भी मार्ग त्याज्य नही है। तेहरवाँ एवम चौदहवां अध्याय उसी एकत्व मार्ग का ज्ञान है, किन्तु यह स्पष्ट संदेश गीता द्वारा दिया गया है कि मार्ग कोई भी हो, जब तक प्रकृति के साथ जीव का संयोग है, कर्म नही छूट सकता, इसलिये लोकसंग्रह हेतु निष्काम कर्मयोग ही एक मात्र मार्ग अंत मे रह जाता है।

।। हरि ॐ तत सत।। सारांश गीता – अध्याय 14 ।।

====================================================================

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply