।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.25 II Additional II
।। अध्याय 14.25 II विशेष II
II गुणातीत अवस्था, कर्मसन्यास, कर्मयोग और फलाशा ।। विशेष 14.25।।
अर्जुन का प्रश्न था कि गुणातित मनुष्य के लक्षण, आचरण और गुणातीत होने के उपाय संबंधी तीन प्रश्न किए। अध्याय 2 में स्थितप्रज्ञ की पहचान, अध्याय 12 में भक्त के गुण एवम अध्याय 13 में ज्ञानी के गुणों का हम ने पढ़ा। प्रायः सभी में समभाव, मानपमानयोस्तुल्यस्तुल्यो, सर्वारंभपरित्यागी, उदासीन आदि गुणों की बात की गई है। मोक्ष के विभिन्न मार्ग में ज्ञान, निष्काम कर्मयोग, भक्तियोग, सांख्य एवम बुद्धि योग के समान गुण बताते हुए, यह संदेश देने की चेष्टा की गई कि संन्यास योग की भांति अन्य सभी योग एक ही परमात्मा तक पहुंचने के विभिन्न मार्ग है।
किंतु गीता के विश्लेषण करने वाले अनेक महान व्यक्तित्व ने अपने अपने तरीके से गीता की विवेचना की और कुछ लोग मनुष्य के सब कुछ त्याग कर साधु बनने या सन्यासी भाव में इन गुणों की विवेचना करने लगे।
महाभारत के शुकानुशासन में शुक जी व्यास जी से प्रश्न किया था कि वेद कर्म करने के लिए भी कहता है और छोड़ने के लिए भी, तो अब मुझे बतलाइए कि विद्या से अर्थात कर्म रहित ज्ञान से और केवल कर्म से कौन सी गति मिलती है? व्यास जी उत्तर में कहा कि कर्म से प्राणी बंध जाता है और विद्या से मुक्त हो जाता है, इसलिए सन्यासी अर्थात पारदर्शी यति कर्म नहीं करते।
किंतु कर्म बंधन का अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि कर्म से बद्धता केवल बाह्य इंद्रियों के कर्म से नही होती अपितु फलाशा एवम कर्ता भाव और भोक्ता भाव से होती है। अध्यात्म रामायण में भगवान राम लक्ष्मण से कहते है कि कर्ममय संसार प्रवाह में पड़ा हुआ मनुष्य बाहरी सब प्रकार के कर्तव्य कर्म करके भी अलिप्त रहता है।
प्रकृति से सृष्टि की रचना में, जब परमात्मा से एक से अनेक होने का विकार आया तो सब से पहले बुद्धि अर्थात महत्व का उदय हुआ, इस के बाद अहंकार अर्थात अहम भाव आया, फिर सूक्ष्म और अव्यक्त इंद्रिय शक्तियां उदय हुई, जिन्होंने स्थूल इंद्रियों अर्थात पंच महाभूतों से जीव का निर्माण किया। यह इंद्रिय शक्ति सात्विक शक्तियां थी जब की स्थूल इंद्रिय पदार्थ तामसी। गीता में भी कहा है कर्म माया सृष्टि के ही क्यों न हो, परंतु किसी अगम्य उद्देश्य से परमात्मा ने ही उन्हें बनाया है, उन को बंद करना मनुष्य के अधिकार की बात नहीं है, इसलिए बुद्धि को निसंग रख कर केवल शारीरिक कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति होती ही है। इस जगत में कोई एक क्षण भी बिना कर्म के रह नही सकता।
अनुगीता का कथन है कि ज्ञानामृत पी कर कृतकृत्य हो जाने वाले पुरुष का फिर आगे कोई कर्तव्य नहीं रहता और यदि रह जाए तो वह तत्ववित अर्थात ज्ञानी नही है। ‘सर्वारंभपरित्यागी’ शब्द का प्रयोग ज्ञानी के सभी कर्म त्यागने के किया जाता है, उस का वास्तविक अर्थ ज्ञानी के अहम और फलाशा त्याग से लेना चाहिए।
स्वयं भगवान कहते है ” हे पार्थ ! मेरा त्रिभुवन में कुछ भी कर्तव्य नहीं है अथवा कोई अप्राप्त वस्तु पाने की लालसा रही नही है, तथापि मैं कर्म करता हूं।” अतः ज्ञानी के लिए “तस्य कार्य न विद्यते” का अर्थ यही लेना चाहिए कि तू ज्ञानी है, इसलिए यह सच है कि तुझे अपने स्वार्थ के लिए कर्म अनावश्यक है; किंतु स्वयं तेरे लिए कर्म अनावश्यक है, इसलिए तू अब उन कर्मो को कर जो शास्त्रों से प्राप्त है। अर्थात उन कर्मो को करना जिन की आवश्यकता अपने लिए नहीं है परंतु शास्त्रों के अनुसार करना चाहिए, ही निष्काम बुद्धि से कर्म करना कहलाता है।
आत्म ज्ञान होने से इंद्रिय जो भी कर्म करेंगी वह अहंकार मुक्त होगा। अहंकार अर्थात मैं या मेरा । अक्सर हम सभी कर्म अहंकार बुद्धि अर्थात मैं या मेरा – मेरा करते हुए करते है। किंतु जब कर्म अनासक्त बुद्धि से शास्त्र सम्मत किए जाए तो वह निर्मम बुद्धि अर्थात जिस बुद्धि में मैं या मेरा न हो यानी निर – मम बुद्धि से किया जाना चाहिए। निर्मम बुद्धि से किया कार्य परमात्मा की सेवा में किया कार्य है। जब समभाव में समस्त सृष्टि में परमात्मा ही कण कण में व्याप्त है, तो प्रकृति की प्रत्येक क्रिया परमात्मा द्वारा, परमात्मा के लिए ही की जाती है, यही ज्ञान है।
किसी भी कार्य को करने के लिए कर्ता आवश्यक है, यही कर्ता अहंकार में मैं – मेरा है और निर्मम बुद्धि में परमात्मा है। अर्थात जब सारे कार्य अनन्य भक्ति से परमात्मा के समर्पण भाव से किए जाए तो कर्म तो प्रकृति की गति में होते ही रहते है, किंतु उस का कर्त्ता परमात्मा के प्रति समर्पित भाव से परमात्मा ही होता है। इसलिए कर्म का बंधन नहीं होता।
कर्म को करने के लिए इच्छा और फल की आशा का होना आवश्यक है। बिना इच्छा के कोई भी कार्य करना और बिना फल की आशा के कर्म के प्रेरित होना, वह कुशलता और दक्षता को नही दे सकता जो किसी कार्य की सफलता के जरूरी है। अहंकार के साथ इच्छा और फल की आशा बंधन युक्त है, जबकि अहंकार छोड़ कर निर्मम भाव अर्थात परमात्मा के लिए किसी भी कर्म की इच्छा या फल की आशा शास्त्र के कर्तव्य कर्म है।
राजा जनक सब से बड़े कर्मयोगी में से एक थे, उन्होंने कहा है कि यह समस्त व्यवहार देव, पितर, सर्वभूत प्राणी और अतिथियों के लिए है, मेरे लिए नही।
व्यवहार में जब आप अपने परिवार में जीवनसाथी, माता पिता, चाचा ताऊ, भाई बहन, पुत्र और पुत्री के बीच में रहते है तो क्या आप सब से समान व्यवहार कर सकते है, यदि हम समान व्यवहार का अर्थ सम अर्थात एक जैसा लगाते है तो गलत होगा। समान व्यवहार का अर्थ है कि आप अपने दायित्व के अनुसार सब से व्यवहार रखे। अर्थात किसी से कोई भी अपेक्षा नहीं रखते हुए, अपने कर्तव्य धर्म से व्यवहार अनुराग शून्य या लगाव से बिना नहीं होता। अनुराग या लगाव यदि आप की कमजोरी नही है तो कर्तव्य कर्म है। राधा से कृष्ण का लगाव, किंतु गोकुल छोड़ने के बाद कृष्ण से लगाव नहीं छूटा लेकिन गोकुल फिर कभी नहीं गए और राधा से मिले भी नहीं। अतः मानवीय मूल्य या सामाजिक जीवन का परित्याग नही करते हुए भी, यदि हमारे कर्म किसी भी अपेक्षा से परे कर्तव्य और लोकसंग्रह के हो तो कोई भी अपेक्षा, अनुराग या मोह, लोभ, राग – द्वेष, काम या क्रोध हमे विचलित नहीं कर सकता। जीव विचार शून्य नहीं होगा किंतु विचार मन को अधिग्रहण कर के राग में कार्य करने को सत्व गुण प्रधान को नहीं लगाता।
निर्मम भाव में यदि तामसी प्रवृति का उदय हो तो चलचित्रों में खलनायक द्वारा गीता के श्लोक पढ़ कर निषिद्ध कार्य करते हुए हम देखते है। अर्थात भाव निर्मम दिखाते हुए भी अहंकार में कार्य करना, ज्ञानी का कर्तव्य कर्म नहीं है। इसलिए परमात्मा समर्पण के भाव को अव्याभिचारणी भक्ति अर्थात अनन्य भक्ति की बात कहते है। अध्याय 14 में श्लोक 22 से 25 में गुणातित मनुष्य के लक्षण और आचरण में बताए गए है, वह व्यवहार में एक मात्र परमात्मा की अव्याभिचारिणी भक्ति और निर्मम भाव से गुणातीत मनुष्य द्वारा की जाती है।
ज्ञानी पुरुष अर्थात गुणातित अवस्था को प्राप्त करने का अर्थ यही है कि जीव को अपने और प्रकृति के संबंधों का ज्ञान हो जाना। किंतु यह अवस्था जीवित रहते ही प्राप्त होती है, इसलिए जीव देह के साथ व्यवहार कर्तृत्व और भोक्तृत्व भाव से नही रहता। उस के समस्त कर्म परमात्मा के होते है, इसलिए वह जो कुछ भी करता है, वह लोक संग्रह हेतु परमात्मा को अर्पित करता हुआ कर्म करता है। वह जानता है कि कर्म प्रकृति कर रही है और वह निमित्त है। अर्जुन ने युद्ध का चयन नही किया था, फिर युद्ध भूमि में उसे प्रकृति ने ला कर खड़ा कर दिया, तो युद्ध करना ही उस कर्तव्य कर्म है। किंतु यह कर्म उसे जीतने के लिए ही परमात्मा का कर्म समझ कर करना है। आज जब प्रकृति हमे अनेक कार्य के लिए अवसर देती है तो उस कार्य को हम अपने अहंकार और बुद्धि से तय करने लगते है। जिस से स्वार्थ, लोभ, आसक्ति और कामना जुड़ जाती है। किसी बड़ी कंपनी में बॉस की आज्ञा से कोई कार्य करते वक्त यदि यह भावना जुड़ी है कि यह कार्य मेरे निमित्त नही है किंतु बॉस के लिए करना है, तो उस कार्य के फल की हमे चिंता नहीं रहती। यही परमात्मा हम सब का पालक है उस को समर्पित करते हुए जो कार्य करते है, तो उस कार्य के फल से भी हमे कोई चिंता नहीं है। यही निर्मम भाव अर्थात गुणातीत अवस्था है।
अंत में, जो लोग यह कहते कि गीता में कर्म के फल की आशा नही होगी तो कर्म कौन करेगा और क्यों करेगा, यह उन का अज्ञान है। फल की आशा या इच्छा को छोड़ने की बात ज्ञान की दृष्टि से अहंकार भाव और निर्मम भाव से जुड़ी है। जब कर्म अहम पद को त्याग कर परमात्मा के लिए निर्मम भाव से लिए जाए तो यही कार्य कर्तव्य कर्म कहलाते है। मनुष्य का अहम उसे भ्रमित करता है कि जो फल उसे कर्म से प्राप्त हुआ, वह उस की बुद्धिमत्ता और मेहनत का नतीजा है। किंतु जब तक धरती, बीज, पानी और वायुमंडल अनुकूल न हो, तो कोई मनुष्य कितना भी बुद्धिमानी और मेहनत से कर्म करे, पौधे को उगा कर फसल तैयार नहीं कर सकता। इसलिए किसी भी कर्म का होना या न होना प्रकृति की अन्य साधन, समय, स्थान और प्रेरणा पर भी निर्भर है। इसलिए वह स्वयं भी प्रकृति के लिए निमित्त मात्र है, कर्ता तो प्रकृति ही है। यह प्रकृति के गुण धर्म को समझ कर जो व्यक्ति प्रकृति में निमित्त हो कर निर्मम भाव से कर्म करता है, वह ही गुणातित है, अर्थात ज्ञानी है। जो भी कर्म है, सृष्टि है, क्रियाएं है, सब परमात्मा से उत्पन्न से और उसी में विलीन होनी है, इसलिए मनुष्य को जो भी कर्तव्य कर्म करना है वह भी परमात्मा के निमित अव्यभिचारिणी भक्ति भाव से ही करना चाहिए। कर्म विहीन व्यक्ति कभी ज्ञानी नही हो सकता।
गुणातीत व्यक्ति के व्यवहार और कर्म को देख कर समाज उस का अनुसरण करता है। ज्ञानी जिस ने संसार को त्याग दिए वह स्थिर और शांत है किंतु उस का कर्म क्षेत्र अत्यंत सीमित है। इसलिए जो कर्मयोगी है, उस के लिए समभाव, मानपमानयोस्तुल्यस्तुल्यो, सर्वारंभपरित्यागी, उदासीन आदि गुणों का अर्थ यही है कि उस ने अपनी व्यवसायिक बुद्धि को साम्य अवस्था में प्राप्त कर लिया, जिस से उस की वासना बुद्धि भी शुद्ध, निर्मल और पवित्र होगी। वह अपने कर्मो के आश्रय नही होगा, तो निराश्रय कहलाएगा। संसार में जितने जीव है सभी साम्य बुद्धि के नही होते, किंतु जब गुणातीत मनुष्य इन से व्यवहार करता है तो इन सब प्रकार के जीव के लिए समान रूप से दया, अहिंसा, सहिंष्णुता, शांति के तरीके व्यवहार नहीं किया जा सकता। साधु पुरुष इन स्वार्थ लिप्त लोगो से कोई द्वेष नहीं रखते, किंतु समाज कल्याण के लिए उन से व्यवहार समता बुद्धि में व्यवहारिक बुद्धि से निराश्रय हो कर किया जाता। कर्मयोग शास्त्र और सन्यास योग का यही विभेद है कि कर्मयोगी समाज में कर्म करते हुए भी स्थितप्रज्ञ की भांति रहता है उस को किसी अतिरिक्त ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं है, वह कर्म करते हुए भी गुणातीत है। इसलिए कर्मयोगी और सन्यासी के लिए यह कह सकते है कि ब्राह्मण, गाय और हाथी यद्यपि पवित्र और साम्य बुद्धि के जीव माने जाते तो भी गाय का चारा ब्राह्मण को नही दे सकते, सब के जीवन की प्रक्रिया पृथक पृथक है। इसलिए कर्म करते हुए भी गुणातीत मनुष्य भी सन्यासी की भांति श्रेष्ठ होता है। अतः उन का वैराग्य कर्म करते हुए भी सन्यासी की भांति है। इसलिए अर्जुन को युद्ध भूमि को छोड़ कर संन्यास की आवश्यकता नहीं है। कर्मयोगी का संन्यास समाज का मार्गदर्शन भी करता है।
गीता में अर्जुन को जो ज्ञान दिया जा रहा है, उस समग्र ज्ञान का आधार एक सामाजिक, गृहस्थ, वर्ण के अनुसार क्षत्रिय और युद्ध भूमि में खड़े मनुष्य के लिए यही है कि कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ की अथवा जीवनमुक्त की बुद्धि के अनुसार सब प्राणियों में जिस की साम्य बुद्धि हो गई है और परार्थ में जिस के स्वार्थ का लय हो गया है, उस को और विस्तृत नीतिशास्त्र सुनाने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं में आत्मप्रकाश अर्थात बुद्ध हो गया है। इसलिए परमात्मा कहते है की तुम स्वयं में अपनी बुद्धि को स्थिर और सम रख, कर्म के त्याग के व्यर्थ के भ्रम हो मन में न रखते हुए, स्थितप्रज्ञ अर्थात गुणातित मनुष्य की भांति अपनी बुद्धि को रख, फिर स्वधर्म के अनुसार प्रकृति से प्राप्त निमित्त कर्मो को कर। यह कहना जितना सरल है, उतना होना कठिन, साम्य बुद्धि प्राप्त करने में वर्षो या अनेक जन्म भी लग सकते है। किंतु गीता जैसे ग्रंथो का अध्ययन, उत्तम और श्रेष्ठ जनों के उपदेशों का श्रवण और चिंतन – मनन से साम्य बुद्धि प्राप्त होती है। संसार में अनेक तरह के विचारो के पुरुष होते है। आप का ज्ञान के लिए किस पुरुष का चयन है, यह भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। विशेष 14.25 ।।
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