।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.24 II
।। अध्याय 14.24 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.24॥
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥
“sama-duḥkha-sukhaḥ sva-sthaḥ,
sama- loṣṭāśma- kāñcanaḥ..।
tulya- priyāpriyo dhīras,
tulya- nindātma- saḿstutiḥ”..।।
भावार्थ:
जो सुख और दुख में समान भाव में स्थित रहता है, जो अपने आत्म-भाव में स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है। (२४)
Meaning:
He to whom sorrow and joy are same, he who is established in his self, who regards mud, stone and gold as same, he who treats the dear and the detested as alike, he who is wise, he who treats insult and praise as alike.
Explanation:
Now Krishna answers the second question in these two verses. The second question is: How does he respond to the worldly situation? Just as the body-mind-complex is made up of the three fluctuating guṇas, the entire world is also made up of the three guṇas only and therefore you will have to interact with people who have all the gunas in different measurements. But those who are established on the transcendental platform of the self-do not identify either with the happiness or the distress of the body. Such self-realized mystics do perceive the dualities of the world but remain unaffected by them. Thus, they become nirguṇa (beyond the influence of the guṇas).
Shri Krishna continues to explain the conduct of one who has gone beyond the gunas. He says that such a person maintains a state of balance, a state of equanimity in his dealing with objects of the world and with people. Right from the second chapter, Shri Krishna has repeatedly emphasized the importance of maintaining samatva or equanimity in our lives and does so again in this shloka. Only he who has transcended the gunas can maintain this level of equanimity. Such a person is termed “dhira” or wise, and “svastha” meaning self-established or healthy by Shri Krishna.
Three types of objects are mentioned in this shloka: a lump of clay, a stone, and a piece of gold. The person who has transcended the gunas will understand the real-world, practical difference in value of all these three objects. He will also know that at some times, some of these objects will bring joy, and some of these objects will bring sorrow. When he has to rush to the hospital to deal with a medical emergency, no piece of gold can bring him joy. He will continually maintain the awareness that clay, stone and gold, and the subsequent joy and sorrow that they bring, are nothing but the gunas playing with themselves. With this knowledge, he will maintain his balance and equanimity.
Now we look at how such a person deals with people. When people praise us or act in our interest, they become dear to us. When they insult us or trouble us in any way, we begin to detest them. Just like objects, different types of people can generate different reactions in different circumstances. Friends can become rivals, relatives can become enemies, even families can fall apart within minutes. One who has learned to transcend the gunas will transact with people appropriate to the situation, but will never hold on to one person, or run away from them. Praise, insult, friend, foe, all these are interactions between gunas. His “I”, his self, has nothing to do with any of these.
।। हिंदी समीक्षा ।।
महाभारत के आदिपर्व में लिखा है कि-
दु:खैर्न तप्येन्न सुखै: प्रह्रष्येत् समेन वर्तेत सदैव धीर:। दिष्टं बलीय इति मन्यमानो न संज्वरेन्नापि ह्रष्येत् कथंचित्।।
इस श्लोक के अनुसार व्यक्ति को कठिन समय में दुखी नहीं होना चाहिए। जब सुख के दिन हों तब हम बहुत ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए। सुख हो या दुख, हमें हर हाल में समभाव रहना चाहिए। जो लोग इस नीति का पालन करते हैं, उनका जीवन सफल हो सकता है।
अब कृष्ण इन दो श्लोकों में दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। दूसरा प्रश्न है: वह सांसारिक परिस्थिति पर कैसे प्रतिक्रिया करता है? जिस प्रकार शरीर- मन- जटिल तीन परिवर्तनशील गुणों से बना है, उसी प्रकार संपूर्ण संसार भी तीन गुणों से ही बना है और इसलिए आपको ऐसे लोगों से मिलना- जुलना होगा जिनके पास अलग- अलग माप में सभी गुण हैं। लेकिन जो लोग स्वयं के पारलौकिक स्तर पर स्थापित हैं, वे न तो शरीर के सुख से पहचान करते हैं और न ही दुख से। ऐसे आत्म- साक्षात्कार प्राप्त रहस्यवादी दुनिया के द्वंद्वों को समझते हैं, लेकिन उनसे अप्रभावित रहते हैं। इस प्रकार, वे निर्गुण (गुणों के प्रभाव से परे) हो जाते हैं।
जो सुखदुःख में समान है अर्थात् सुख और दुःख जिस को समान प्रतीत होते हैं, जो स्वस्थ अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित – प्रसन्न है, जो समलोष्टाश्मकाञ्चन है अर्थात् मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिस के ( विचारमें ) समान हो गये हैं, जो तुल्यप्रियाप्रिय है अर्थात् प्रिय और अप्रिय दोनों ही को जो समान समझता है और जो धीर अर्थात् बुद्धिमान् है तथा जो तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति है अर्थात् जिस के विचार में अपनी निन्दा और स्तुति समान हो गयी है, ऐसा अपनी निन्दास्तुति को समान समझनेवाला यति है।
गीता में गुणातीत के लक्षण दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के 2.55-72 एवम बारहवे अध्याय में सर्वारम्भपरित्यागी, तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति 12.13-20 श्लोकों में एवम पिछले अध्याय 13 में श्लोक 13.24-25 में भी पढ़े। कहने का तात्पर्य यही है कि किसी भी मार्ग (कर्म योग, ध्यानयोग, ज्ञान योग या भक्ति योग) से हम आगे बढे, गुणातीत होने के बाद हम कर्मो के प्रति उदासीन हो जाते है एवम प्रकृति को अपना कार्य निष्काम एवम निद्वन्द भाव से लोकसंग्रह के लिये करने देते है। जब प्रकृति एवम जीव के संबंध का ज्ञान हो जाता है तो जीव स्वतः ही अपने मूल ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। अब उस का संसार से संबंध एक दृष्टा एवम साक्षी की भांति रहता है एवम वह प्रकृति की समस्त क्रियाओं को साक्षी भाव से होते देखता है। वह स्वयं को निमित्त मान कर कर्म निष्काम भाव से करता है। गुणातीत के पहचान के गुण इस श्लोक से ले कर आगे के श्लोक तक वर्णित है, जिन्हें हम क्रमशः पढ़ते है।
जीवन की निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में ज्ञानी पुरुष के मन के समत्व और सन्तुलन का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। अपनी आत्मा के अनुकूल अनुभव को सुख और प्रतिकूल अनुभव को दुख कहते है। त्रिगुणों की क्रूरताओं से परे आत्मा में ज्ञानी पुरुष स्थित रहता है, जहाँ सत्त्वगुण का रोमांचक सुख नहीं है, न रजोगुण का कोलाहल है और न ही तमोगुण की थकान है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है।
सामान्य मनुष्य को समता की यह स्थिति पूर्ण मृत्यु ही प्रतीत होगी और निसन्देह, यह वास्तविकता भी है यह परिच्छिन्न अहंकार की मृत्यु है, जो सांसारिक अनुभवों का भोक्ता है। उपाधियुक्त आत्मा ही जीवरूप में प्रतीत होता है, जो सदैव विक्षुब्ध मन की प्रचण्ड चंचल वृत्तियों पर समुद्री सतह पर बहते हुये काष्ठ खण्ड के समान व्यवहार करता है। प्रेम और घृणा, राग और द्वेष के तूफानों से सदैव विचलित हुआ यह दुखी जीव असंख्य विक्षेपों और दुखों को भोगता रहता है।इसलिये तृष्णा और आसक्ति के इस दुर्व्यवस्थित क्षेत्र से स्वयं को विलग कर स्वस्वरूप में ही स्थित होना ही मुक्ति है। ज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ क्या सम्बन्ध होता है यह प्रश्न ऐसा ही है, जैसे जाग्रत पुरष का अपने स्वप्नजगत् से क्या सम्बन्ध होता है त्रिगुणों के बन्धनों से मुक्त पुरुष जगत् की अनात्म वस्तुओं के साथ के अविद्याजनित अहं और मम भाव को सर्वथा त्याग देता है। उस वास्तविक दैवी जाग्रति की अवस्था में निम्न स्तर के अनुभव, इस जगत् के सुख और दुख, प्रिय और अप्रिय तथा निन्दा और स्तुति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। समस्त अनुभवों में वह सम, असंग साक्षी बनकर रहता है। स्वस्थ अपने सर्व उपाधि विवर्जित सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित पुरुष स्वस्थ कहलाता है।
समभाव में रहना कोई जड़ अवस्था नही है क्योंकि प्रकृति अपने गुणों से व्यवहार करती ही है, समभाव का अर्थ है, सुख – दुख, निंदा – अपमान, स्वर्ण या पत्थर, प्रिय – अप्रिय आदि सभी अवस्था में उत्तेजित न होना, अपने धैर्य, विश्वास और मानसिक स्थिरता में कायम रहते हुए, विवेक पूर्ण निर्णय करना, द्वेष ईर्ष्या, घृणा आदि दोषों से मुक्त रहना ही है।
गुणातीत पुरुष के अन्य गुण को आगे के दो श्लोकों में और विस्तार से पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 14. 24।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)