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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.23 II

।। अध्याय      14.23 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.23

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‍गते॥

“udāsīna-vad āsīno

guṇair yo na vicālyate

guṇā vartanta ity evaḿ

yo ‘vatiṣṭhati neńgate”

भावार्थ: 

जो उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के आने-जाने से विचलित नही होता है और गुणों को ही कार्य करते हुए जानकर एक ही भाव में स्थिर रहता है। (२३)

Meaning:

One who is sits like an indifferent person, is not agitated by the gunas, who, knowing that the gunas interact with each other, is firmly situated and does not move.

Explanation:

Previously, Shri Krishna indicated the mental state of one who has transcended the gunas. He now addresses the second question – how does one who has gone beyond the gunas behave in this world. He says that such a person lives life with ease and grace. He is person of illumination, who knows himself to be transcendental to the functioning of the modes, are neither miserable nor jubilant when the modes of nature perform their natural functions in the world. In fact, even when they perceive these guṇas in his mind, he does not feel disturbed. He is like the graceful elephant who walks on the road, unaffected by the horde of dogs that is barking at him. We have come across such people ourselves, who remain calm and unperturbed even when facing their darkest personal challenges.

What makes a person so calm? There are two factors. First, even though such a person may not look like a monk from the outside, he has a great deal of detachment towards the world. Second, such a person is seated on an unshakeable platform, his own self. Both factors are possible through the conviction and constant awareness that the entire world, including one’s own body, is a play of the three gunas. It is the difference between getting swept away by the waves or sitting calmly on the beach. It is the difference between participating in a street fight or observing the fight from a second-floor balcony.

Shree Krishna further explains that The mind is made from the material energy, and thus contains the three modes of Maya. So it is natural for the mind to be subjected to the influence of the guṇas, and their corresponding thoughts. The problem is that in bodily consciousness we do not see the mind as different from ourselves. And so, when the mind presents a disturbing thought, we feel, “Oh! I am thinking in this negative manner.” We begin to associate with the poisonous thoughts, allowing them to reside in us and damage us spiritually. To the extent that even if the mind presents a thought against God and Guru, we accept the thought as ours. If, at that time, we could see the mind as separate from us, we would be able to dissociate ourselves from negative thoughts. We would then reject the thoughts of the mind, “I will have nothing to do with any thought that is not conducive to my devotion.” Persons on the transcendental platform have mastered the art of distancing themselves from all negative thoughts arising in the mind from the flow of the guṇas.

What does all this mean in practice? It means when our mind is agitated, we will not crave for a peaceful state. We will accept that a certain level of agitation, a certain level of rajas is part and parcel of daily life. We will simply watch that mental state arise, persist, and go away, only to be replaced by another state. We will view the whole world as the gunas interacting with the gunas. The “I” within us will be firmly seated in itself, with a healthy level of distance and detachment from the movement of those gunas. It will stop identifying, giving importance, giving reality to the play of gunas. The gunas will move, but the “I” within us will not.

।। हिंदी समीक्षा ।।

दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों, तो उन दोनों में से किसी एक का पक्ष लेने वाला पक्षपाती कहलाता है और दोनों का न्याय करनेवाला मध्यस्थ कहलाता है। परन्तु जो उन दोनों को देखता तो है, पर न तो किसी का पक्ष लेता है और न किसी से कुछ कहता ही है, वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा – दोनों को देखने से गुणातीत मनुष्य उदासीन की तरह दीखता है।

श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्ति स्वयं को गुणों की क्रियाशीलता से परे मानते हैं। जब प्रकृति के गुण अपनी प्रवृत्ति के अनुसार संसार में कार्यों को सम्पन्न करते हैं तब वे न तो दुखी और न ही हर्षित होते है। वास्तव में जब वे इन गुणों को अपने मन में भी देखते हैं तब भी वे विचलित नहीं होते। मन प्राकृत शक्ति से निर्मित है और माया के तीनों गुण उसमें निहित होते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मन को इन गुणों और इनके समरूप विचारों के प्रभुत्व में रहना पड़ता है।

उस के कहलाने वाले अन्तःकरण में सत्त्व, रज और तम – इन गुणों की वृत्तियाँ तो आती हैं, पर वह इन से विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरों के अन्तःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर अपने में कुछ भी फरक नहीं पड़ता, ऐसे ही उस के कहलानेवाले अन्तःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर उस में कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उस के कहे जानेवाले अन्तःकरण में अन्तःकरण सहित सम्पूर्ण संसार का अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्व का भाव निरन्तर स्वतःस्वाभाविक जाग्रत् रहता है।

किसी कार्य के प्रति निर्लिप्त, निद्वंद एवम निष्काम भाव से कार्य को करना, उदासीनता है। आलस्य एवम असमर्थता के कारण किसी कार्य को हम नही कर पाते, तो उदासीनता नही है। जीवन में अनेक कार्य हमारे सामने होते है, जिन्हे हम पद, स्थान, साधन और योग्यता से नही कर सकते, उन के प्रति कोई क्षोभ नही होना, उदासीनता नही है, क्योंकि उदासीनता का अर्थ है जिन प्राकृतिक गुणों के मध्य हम मानसिक, शारीरिक और व्यवहारिक तौर पर गुजर रहे, उन के प्रति तटस्थ भाव से कर्म करना।

समस्या यह है कि शारीरिक चेतना के कारण हम मन को अपने से अलग नहीं समझते और इसलिए जब मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता है तब हम अनुभव करते हैं-“ओ, मैं नकारात्मक दृष्टिकोण से सोच रहा हूँ।” हम विषाक्त विचारों से जुड़ते है और उन्हें अपने भीतर प्रश्रय देने की और स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देते हैं। इसकी अति ऐसी होती है कि जब हमारा मन भगवान और गुरु के विरुद्ध विचार प्रस्तुत करता है तब हम उन्हें अपने विचार मान लेते हैं। उस समय हमें मन को अपने से अलग इकाई के रूप में देखना चाहिए, तभी हम नकारात्मक विचारों से स्वयं को आबद्ध करने के योग्य हो सकेंगे। तब फिर हम मन के ऐसे विचारों को इस प्रकार से अस्वीकार करेंगे। “मैं ऐसे विचारों को कोई महत्त्व नही दूंगा जो मेरी भक्ति के लिए सहायक नहीं हैं।” लोकातीत अवस्था को प्राप्त मनुष्य गुणों के प्रभाव से मन में उठने वाले सभी नकारात्मक विचारों से दूरी बनाए रखने की कला में पारंगत होता है

उदासीन की सही पहचान उस को अवसर मिलने पर उस के व्यवहार से होती है, अन्यथा बहुत से लोग बाबा जी बन कर घूमते रहते है।ईसा मसीह इतने महान् कभी नहीं थे जितने वे सूली पर चढ़ाये जाने के समय हुए जगत् के द्वारा कुचले जाने पर ही हमारा वास्तविक स्वभाव प्रगट होता है। घर्षण से ही चन्दन की सुगन्ध प्रगट होती है। जिन उँगलियों से हम तुलसी दल को पीसते हैं वह उन्हीं पर अपना सुगन्ध छोड़ जाता है।ज्ञानी पुरुष उदासीन के समान आसीन हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है। जगत् के सभी शुभ, अशुभ और उपेक्ष्य अनुभवों में वह उदासीन के समान रहता है, क्योंकि वह जानता है कि यह सब मन का खेल मात्र है। चित्रपट ग्रह में दर्शाये जा रहे चलचित्र के सुखान्त अथवा दुखान्त से हम विचलित नहीं होते, क्योंकि हम जानते हैं कि यह छायाचित्र का खेल हमारे मनोरंजन के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी पुरुष जगत् की घटनाओं से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं रखता है। व्यासजी अत्यन्त सावधानी पूर्वक शब्दों को चुनते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह उदासीन् हो उदासीनवत् आसीन। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह अपने जीवन में तथा बाह्य जगत् में होने वाली घटनाओं से विक्षुब्ध या उत्तेजित नहीं हो जाता।वह भलीभाँति जानता है कि उसके अन्तकरण में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन केवल गुणों के ही हैं और फिर बाह्य जगत् का अनुभव भी मनस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सम्यक्दर्शी पुरुष अपने आन्तरिक तथा बाह्य जगत् में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानकर उनसे अविचलित रहता है।

गुणातीत जीव के आचरण के निर्लिप्त या निद्वन्द शब्द की जगह उदासीन शब्द का प्रयोग किया है। इस का कारण है प्रकृति क्रियाशील है, इसलिये वह क्रिया करेगी ही, किन्तु जीव जानता है कि सत्वगुण अपने कार्य प्रकाश रूप में, रजोगुण अपना कार्य प्रवृति रूप में एवम तमोगुण अपना कार्य मोह रूप में करता ही रहता है, इस मे जीव कुछ नही कर्त्ता एवम वह मात्र दृष्टा है। इसलिये वह प्रकृति की हर प्रक्रिया के प्रति उदासीन रहता है जिस से उसे सुख-दुख, लाभ-हानि, अपना पराया कुछ भी नही लगता।

व्यवहार में कई लोग कहते है कि उन्हें अब कोई मोह माया नहीं रही, उन का चित्त जनसेवा या ईश्वर की भक्ति में लग गया। किंतु उन की दुनियादारी या पद या सम्मान की आकांक्षा नहीं छूटती। वे मानसिक स्वरूप में सांसारिक सुखों की लालसा में बंधे रहते है और उस प्रकार की सुविधा होने पर ही कार्यरत होते है। एक सुंदर नग्न स्त्री का चित्र देख कर काम जाग भी जाए तो भी यदि स्नायु उत्तेचित न हो और वह चित्र देख कर उसी तरह त्याग दे, जैसे वह चित्र देखने से पूर्व था, तो यह उदासीनता है। इस में तमो गुण ने कार्य किया किंतु उस का मन और बुद्धि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वकील का व्यवसाय उस से असत्य का व्यवहार अपने ग्राहक की रक्षा हेतु करवाता है कि उस कार्य के करने से लोभ, महत्वाकांक्षा आदि उत्पन्न न होना उदासीनता है। युद्ध में अर्जुन को यदि जीतना है तो विपरीत पक्ष की हत्या करनी होगी, किंतु हत्या करते वक्त कर्तव्य भाव में राज की लालसा, शत्रु के प्रति वैर, घृणा या क्रोध का भाव नहीं होना ही उदासीनता है। किंतु युद्ध के प्रेरित होने के जीतने का लक्ष्य और तत्परता, अनुशासन, दक्षता एवम कूटनीति होना आवश्यक है। किंतु इन का श्रेय नही लेना उदासीनता है।

शुकदेव वेदवित्त थे, जिन्हें संसार या शरीर या पिंड का प्रभाव नहीं था। उन पर बच्चे लोग पत्थर फेंकते या उन की तपस्या भंग करने रम्भा नाम की अप्सरा लिपट भी गई तो भी वो अविचलित रहे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस वेश्या के बुलावे पर उस के घर गए। ऐसे महापुरुष न  केवल विचलित या उदासीन रहते है, वे उन के साथ दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति के प्रति भी क्षमा और दया का भाव रखते है, क्रोध में या क्षुब्ध हो कर दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति को श्राप या अन्य कोई नुकसान नहीं करते। ऐसे अनेक प्रसंग हमे सुनने को मिलते है जो गुणातीत के आचरण को बताते है। अध्याय 12 में 16वे श्लोक में भक्त के गुण में भी यही गुण का वर्णन हम ने पढ़ा भी है।

उदासीन व्यक्ति जानता है कि प्रकृति के गुणों का कार्य स्वत: होते है, वह उन के विवेचन के चक्कर में नही पड़ता। गुण ही गुणों को वर्तते है अर्थात जो भी क्रिया हो रही है वह प्रकृति कर रही है, वह उस क्रिया से उदासीन भाव रखता है।

मनुष्य की संस्कृति एक मिथ्या मुखौटा हो सकती है। जब तक पर्याप्त रूप से प्रलोभित करने वाली परिस्थितियां हमारे समक्ष उपस्थित नहीं होती, तब तक हममें से बहुत से लोग ईश्वर के समान व्यवहार कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आती, तब तक हो सकता है कि वह क्रूर न हो वह जब तक दरिद्री है, तब तक शान्त जीवन व्यतीत करता हो और प्रलोभनों के अभाव में वह भ्रष्टाचार से ऊपर हो। इस प्रकार, अनेक ऐसे सद्गुण जिनसे अनेक व्यक्तियों को हम सम्पन्न समझते हैं, वे सब केवल कृत्रिम सौन्दर्य के ही होते हैं। उनका वास्तविक हीन स्वरूप उस मुखौटे से छिपा रहता है।सम्भावित दुष्ट पुरुष ऋण लिये सद्गुणों के कृत्रिम परिधानों को धारण करके जगत् में विचरण करते रहते हैं। इसलिए, ज्ञानी पुरुष की वास्तविक परीक्षा या पहचान जंगलों या गिरिकन्दराओं में नहीं, वरन् बीच बाजार में हो सकती है। दोहरे चरित्र के उदासीन नेताओ और धर्मगुरूवो को कौन नही पहचानता?

आप निष्पक्ष है, किन्तु कोई व्यक्ति लोभ में गलत कार्य करता है, वो आप को अपने साथ किसी से मिलने के लिये चलने को कहता है, किन्तु आप उस से सहमत न होने पर मना करते है। वह आप से अनुरोध करता है कि आप कुछ भी कहे किन्तु उस के साथ चले। जो भी बात करनी होगी वह करेगा। यहाँ उस व्यक्ति की जिस के साथ बात होगी उस मे आप कुछ भी नही कहते एवम न ही आप सहमत है, किन्तु आप की उपस्थिति ही आप को उस कार्य के प्रति दायी सिद्ध करेगी। इसे ही कहते है कि जो जीव गुणों से सम्बन्ध रखेगा, गुण उस के चाहने या न चाहने की परवाह किये बिना बलात नाना प्रकार के कर्मो एवम भोगों में लिप्त कर देते है जिस से वह कर्मफल के बंधन में फस जाता है। गुणातीत जीव ऐसी परिस्थिति में भी विचलित न हो कर पूर्वरत ही रहता है।

प्रारब्ध से प्रेरित कोई उदासीन गुणातीत व्यक्ति यदि अनुचित कार्य अर्थात चोरी या हत्या करता है तो वह न तो उस का श्रेय लेता है और न ही अपने कार्य के अस्वीकृति देता है। कार्य करते हुए भी उस की मानसिक अवस्था किसी भी भावना, लालसा, स्वार्थ या लोभ से परे मात्र कर्तव्य कर्म की होगी। “व्याघ्र गीता” में ब्राह्मण को ज्ञान व्याघ्र अर्थात मांस का व्यापार करने वाले कसाई ने दिया था किंतु यही कार्य तामसी व्यक्ति अर्थात गुणों से प्रभावित व्यक्ति से होगा, तो चोरी करते हुए उस की मानसिक अवस्था लोभ और हिंसा की होगी और उस की अपने कार्य के प्रति अस्वीकृति भी अपने को मजबूर सिद्ध करने की होगी। वह अन्य की दया या सहानुभूति का पात्र बनना चाहेगा। अन्य उदाहरण में वकील जब अपने क्लाइंट का केस लड़ता है तो वह पूर्ण दक्षता और कर्तव्य धर्म से उस के परिणाम के प्रति उदासीन भाव से लड़ता है, किंतु उस की मानसिकता में क्लाइंट से मिलने वाली फीस रहती ही है। इसलिए यह उदासीन भाव किसी कर्मफल से प्रेरित है।इस प्रकार हम यहां उदासीनता में कथनी और करनी के अंतर को समझ सकते है।

जब गुणों के प्रति उदासीन होता है तो उस की प्रत्येक क्रिया में परमात्मा के प्रति समर्पण का भाव होता है अर्थात उस के कर्म परमात्मा से एकीभाव के होते है।

आगे गुणातीत मनुष्य के अन्य आचरण संबंधित गुण पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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