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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.22 II

।। अध्याय      14.22 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.22॥

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‍क्षति॥

“śrī-bhagavān uvāca,

prakāśaḿ ca pravṛttiḿ ca,

moham eva ca pāṇḍava..

na dveṣṭi sampravṛttāni,

na nivṛttāni kāńkṣati”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान ने कहा – जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) तथा मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है। (२२)

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

When light, activity and delusion are present, O Paandava, he does not hate them, nor does he yearn for them when they are absent.

Explanation:

In the first two verses, that is 22 and 23, Krishna answers the first question guṇāthitha liṅgam, then in the next two verses, 24 and 25, Krishna talks about the guṇāthitha ācāraḥ, the conduct, and then in the 26th verse, Krishna answers, the last question guṇāthithatva sādhanā. So, two verses to answer the first question, two verses to answer the 2nd question and one verse the answer the last question.

Shree Krishna now clarifies the traits of those who have transcended the three guṇas. They are not disturbed when they see the guṇas functioning in the world, and their effects manifesting in persons, objects, and situations around them. Illumined persons do not hate ignorance when they see it, nor get implicated in it. Worldly-minded become overly concerned with the condition of the world. They spend their time and energy brooding about the state of things in the world. The enlightened souls also strive for human welfare, but they do so because it is their nature to help others. At the same time, they realize that the world is ultimately in the hands of God. They simply have to do their duty to the best of their ability and leave the rest in the hands of God.

Shri Krishna answers Arjuna’s question – what are the marks of one who has transcended the gunas – in this shloka. Light, activity and delusion refer to sattva, rajas and tamas respectively. One who is indifferent to the rise and fall of each guna, one who has a high degree of detachment and discrimination, one who lets the gunas come and go with ease, such a person has transcended the gunas. It is the difference between one who observes suitcases on an airport conveyor belt versus one who holds on to a suitcase and doesn’t let go. The one who insists on holding on gets pulled away.

When we are on vacation, our mind feels peaceful and relaxed. But when we come back from vacation, our mind becomes agitated since it has to get back to the nine to five routines of life. We want to hold on to that state of mind we had experienced when we were on vacation. In other words, we have an insistence, also known as aagraha, to hold on to a sattvic state when rajas come in. Or when the alarm bell rings in the morning, we want to hold on to that sleepy tamasic state as long as possible, and not leave the bed. This aagraha, this insistence on holding on to one guna and not accepting the arrival of another guna, enables the gunas to control us. One who has transcended the gunas has given up this insistence through extreme vairagya or detachment.

Let’s look at it in another way. When we read comics, we can see what the characters are thinking through thought bubbles. For example, if Veronica insulted Archie, Archie would have a thought bubble that says, “I feel so bad”. We temporarily feel sorry for Archie and move on to the next frame in the comic. But if someone insults us in real life, we don’t usually move on that quickly. We hold on to that thought, as well as the tamasic or rajasic state of mind created by that thought, for weeks, months, or years to come. And that is not all. We bring up that mental state each time we meet the person who insulted us.

When we are able to treat our thoughts with the same detachment that we do when we are reading other people’s thoughts in comic books, we will know that we have gone beyond the gunas.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अब श्रीकृष्ण उन लोगों के लक्षणों को स्पष्ट करते हैं जो तीनों गुणों से परे हो गए हैं। जब वे संसार में गुणों को कार्य करते हुए देखते हैं तथा उनके प्रभावों को अपने आस-पास के व्यक्तियों, वस्तुओं तथा स्थितियों में प्रकट होते हुए देखते हैं, तो वे विचलित नहीं होते। प्रबुद्ध व्यक्ति जब अज्ञान को देखते हैं, तो वे उससे घृणा नहीं करते, न ही उसमें उलझते हैं। सांसारिक सोच वाले लोग संसार की स्थिति को लेकर अत्यधिक चिंतित हो जाते हैं। वे अपना समय और ऊर्जा संसार की स्थिति के बारे में सोचने में खर्च करते हैं। प्रबुद्ध आत्माएँ भी मानव कल्याण के लिए प्रयास करती हैं, लेकिन वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव है। साथ ही, वे यह भी समझते हैं कि संसार अंततः भगवान के हाथों में है। उन्हें बस अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करना है, तथा बाकी सब भगवान के हाथों में छोड़ देना है।

अर्जुन का प्रश्न इस संसार मे जीने की कला का है, इसलिये भगवान ने जो उस का उत्तर दिया है, उस को गहनता के साथ ग्रहण करने की बात है। यह स्पष्ट के यह संसार प्रकृति एवम जीव का संयोग है एवम जीव अकर्ता, नित्य एवम साक्षी है। यह मूल मंत्र की तरह हमारे दिमाग मे रहना चाहिए।

अर्जुन ने गुणातीत के लक्षण और गुणातीत होने का उपाय पूछा है, उन दोनों प्रश्नों का उत्तर देने के लिये श्रीभगवान् बोले कि पहले गुणातीत पुरुष किन किन लक्षणों से युक्त होता है उसे सुन, सत्त्वगुण का कार्य प्रकाश, रजोगुण का कार्य प्रवृत्ति और तमोगुणका कार्य मोह है। अब पूर्व श्लोक  में पूछे प्रश्न के उत्तर में पहले दो श्लोकों में, यानी 22 और 23 में, कृष्ण पहले प्रश्न का उत्तर देते हैं गुणातित लिंगम, फिर अगले दो श्लोकों में, यानी 24 और 25 में, कृष्ण  गुणातित आचारः, यानी आचरण के बारे में बात करते हैं, और फिर 26वें श्लोक में, कृष्ण अंतिम प्रश्न का उत्तर देते हैं  गुणातित साधना। तो पहले प्रश्न का उत्तर देने के लिए दो श्लोक, दूसरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए दो श्लोक और अंतिम प्रश्न का उत्तर देने के लिए एक श्लोक है।

इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता का नाम प्रकाश है। तात्पर्य है कि जिस से इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि पाँचों विषयों का स्पष्टतया ज्ञान होता है, मन से मनन होता है और बुद्धि से निर्णय होता है, उसका नाम प्रकाश है। सत्त्वगुण की दो वृत्तियाँ बतायी थीं – प्रकाश और ज्ञान। उन में से यहाँ केवल प्रकाशवृत्ति लेने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण में प्रकाशवृत्ति ही मुख्य है क्योंकि जबतक इन्द्रियाँ और अन्तःकरणमें प्रकाश नहीं आता, स्वच्छतानिर्मलता नहीं आती, तब तक ज्ञान (विवेक) जाग्रत् नहीं होता। प्रकाश के आने पर ही ज्ञान जाग्रत् होता है। अतः यहाँ ज्ञानवृत्ति को प्रकाश के ही अन्तर्गत ले लेना चाहिये।

जब तक गुणों के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक रजोगुण की लोभ, प्रवृत्ति, रागपूर्वक कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा, ये वृत्तियाँ पैदा होती रहती हैं। परन्तु जब मनुष्य गुणातीत हो जाता है, तब रजोगुण के साथ तादात्म्य रखनेवाली वृत्तियाँ तो पैदा हो ही नहीं सकतीं, पर आसक्ति, कामनासे रहित प्रवृत्ति (क्रियाशीलता) रहती है। रजोगुण के दो रूप हैं – राग और क्रिया। इन में से राग तो दुःखों का कारण है। यह राग गुणातीत में नहीं रहता। परन्तु जबतक गुणातीत मनुष्य का दीखनेवाला शरीर रहता है, तब तक उसके द्वारा निष्कामभावपूर्वक स्वतः क्रियाएँ होती रहती हैं। इसी क्रियाशीलता को भगवान् ने यहाँ प्रवृत्ति नाम से कहा है।

मोह दो प्रकारका है  (1) नित्य-अनित्य, सत्-असत्, कर्तव्य- अकर्तव्य का विवेक न होना और (2) व्यवहार में भूल होना। गुणातीत महापुरुष में पहले प्रकार का मोह (सत्असत् आदिका विवेक न होना) तो होता ही नहीं। परन्तु व्यवहार में भूल होना अर्थात् किसी के कहने से किसी निर्दोष व्यक्ति को दोषी मान लेना और दोषी व्यक्ति को निर्दोष मान लेना आदि तथा रस्सी में साँप दीख जाना, मृगतृष्णामें जल दीख जाना, सीपी और अभ्रक में चाँदी का भ्रम हो जाना आदि मोह तो गुणातीत मनुष्य में भी होता है।

तमो गुण का पर्याय अज्ञान है, अर्थात जब मनुष्य इंद्रियों के वश में कर्म करता है। मन बुद्धि पर हावी हो जाता है और जीव प्रमाद, आलस्य और निंद्रा में निषिद्ध कर्म को प्रेरित होता है।

सत्त्वगुण का कार्य प्रकाश, रजोगुण का कार्य प्रवृत्ति और तमोगुणका कार्य मोह – इन तीनों के अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी गुणातीत महापुरुष इन से द्वेष नहीं करता और इन के निवृत्त होनेपर भी इनकी इच्छा नहीं करता। 

प्रकृति के गुण विशुद्ध स्वरूप में किसी में स्थिर नही है, इसलिए गुणातित अवस्था में जीव साक्षी और उदासीन भाव में प्रत्येक गुण में व्यवहार करता है। सांख्य में प्रकृति और पुरुष के अद्वैत के आगे कोई सिद्धांत नही होने से विशुद्ध सात्विक अवस्था को ही गुणातीत मानते हुए कैवल्य की स्थिति कहा गया है, इसलिए गुणातीत अवस्था प्रकृति के चौथे गुण की मान्यता नहीं दी गई, और वेदांत में इसे ज्ञान की अवस्था मानते हुए, जीव को अपने साक्षी, नित्य, अकर्ता और उदासीन होने के ज्ञान की अवस्था को गुणातित अवस्था कही गई।

एक तो वृत्तियों का होना होता है और एक वृत्तियों को करना (उनमें सम्बन्ध जोड़ना अर्थात् रागद्वेष करना) होता है। होने और करने में बड़ा अन्तर है। होना समष्टिगत होता है और करना व्यक्तिगत होता है। संसार में जो होता है, उस की जिम्मेवारी हमारे पर नहीं होती। जो हम करते हैं, उसी की जिम्मेवारी हमारे पर होती है। जिस समष्टि शक्ति से संसार मात्र का संचालन होता है, उसी शक्ति से हमारे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि (जो कि संसारके ही अंश हैं) का भी संचालन होता है। जब संसार में होनेवाली क्रियाओं के गुणदोष हमें नहीं लगते, तब शरीरादि में होनेवाली क्रियाओं के गुणदोष हमें लग ही कैसे सकते हैं परन्तु जब स्वतः होनेवाली क्रियाओं में से कुछ क्रियाओँ के साथ मनुष्य रागद्वेषपूर्वक अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् उनका कर्ता बन जाता है, तब उनका फल उसको ही भोगना पड़ता है। इसलिये अन्तःकरण में सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों से होनेवाली अच्छीबुरी वृत्तियों से साधक को रागद्वेष नहीं करना चाहिये अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। वृत्तियाँ एक समान किसीकी भी नहीं रहतीं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुषके अन्तःकरणमें भी होती हैं, पर उसका उन वृत्तियों से रागद्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ आप से आप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुष की दृष्टि उधर जाती ही नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।देखना और दीखना – दोनों में बड़ा फरक है। देखना करने के अन्तर्गत होता है और दीखना होने के अन्तर्गत होता है। दोष देखने में होता है, दीखने में नहीं। अतः साधक को यदि अन्तःकरण में खराब से खराब वृत्ति भी दीख जाय, तो भी उस को घबराना नहीं चाहिये। अपने आप दीखनेवाली (होनेवाली) वृत्तियों से रागद्वेष करना अर्थात् उन के अनुसार अपनी स्थिति मानना ही उनको देखना है। साधक से भूल यही होती है कि वह दीखनेवाली वस्तु को देखने लग जाता है और फँस जाता है।

अध्याय 12 में श्लोक 13 से 20 तक भक्त के गुणों पर विचार करते हुए, परमात्मा ने जो कहा था, यह उसी की पुनर्वर्ती है, इसलिए गुणातित जीव के लक्षण के प्रश्न का उत्तर इस में निहित है।

आप दूसरे शहर में मित्र के घर गए। वहाँ सोने को जो जगह मिले उस को स्वीकार करते है, जो भोजन मिले या जैसा स्वाद है उसे स्वीकार करते है एवम बाहर जाने को जो भी साधन हो उसे भी स्वीकार करते है, क्यों कि आप जानते है यह शहर, घर, भोजन जो भी आप कर रहे है वो आप का नही है, आप अपने कार्य के निमित्त कार्य को संपन्न करते है वहाँ की समस्त अन्य क्रिया को करते हुए भी उस से मोहित नही होते और कोई राग नही रखते।

शहर में झगड़े हो या देश के समाचार, आप को कोई प्रभावित नही करता किन्तु जिस में आप का राग हो वो आप को उत्तेचित करता है। हम को प्रभावित हमारा राग, मोह एवम तृष्णा करता है, यदि नहीं है तो हम निलिप्त है। शादी में डेकोरेशन करने वाले का शादी के कार्यक्रम में कोई रुचि नही होती। इसी प्रकार किसी शादी में आप गए, खाने में रसगुल्ले को देख कर खाने की इच्छा हुई, किन्तु आप को नही परोसा गया तो दुःख हुआ यह राग है। उसे देख कर इच्छा न होना या न मिलने पर दुख न होना ही गुणातीत है, मिल गया तो स्वाद से खा लिया और न मिला तो कोई विचार भी नही।

अतः गुणातीत प्रकाशमय होता है एवम उसे अपने संबंध का ज्ञान होता है। वो जानता है कि वह अकर्ता, साक्षी एवम दृष्टा मात्र है और जो भी क्रियाएं उस के द्वारा या उस के आसपास हो रही है वो प्रकृति कर रही है। उसे उन सभी क्रियाओं में कोई राग, मोह या तृष्णा नही रहती एवम वह सम्पूर्ण क्रिया निष्काम कर्मयोगी की भांति करता है। वह उस किसी भी क्रिया के साथ कर्तृत्त्व या भोक्तत्व भाव से न जुड़ते हुए, उस सभी क्रियाओं को निमित्त हो कर पूरा करता है। इसलिये सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश या कोई भी क्रिया का फल उसे विचलित नहीं करता।

प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह ये क्रमश सत्त्व, रज और तमोगुण प्रकृति के कार्य हैं। यहाँ त्रिगुणों का निर्देश उनके कार्यों के द्वारा किया गया है। ज्ञानी पुरुष उनसे किसी प्रकार से तादात्म्य नहीं करता। समस्त परिस्थितियों में सदैव समत्व भाव में स्थित रहना अनुभवी पुरुष का प्रमुख लक्षण है और यही पूर्णत्व का सार है। वह जानता है कि त्रिगुणों का साक्षी आत्मा उन गुणों तथा उनके कार्यों से सदैव असंगअसंस्पृष्ट रहता है। अत वह रज और तम के प्रवृत्त होने पर न उनसे द्वेष रखता है और न सत्त्वगुण के प्रवृत्त होने की कामना। उसकी सुखशान्ति इन गुणों की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति पर निर्भर नहीं करती।

हम ने पहले पढ़ा था कि जीव मन – बुद्धि – शरीर का प्रपंच है जिस में प्रतिबिंब स्वरूप चेतन अर्थात आत्मा का प्रतिबिंब जुड़ा है। यही प्रतिबिंब जब प्रकृति की बजाए, आत्मा अर्थात ब्रह्म से जुड़ जाता तो चेतन्य अर्थात आनंदमय हो जाता है। इस के अष्टवक्र गीता में कहा गया है।

“अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि बन्धन और मुक्ति न शरीर में हैं  , न मन में  , न कर्म  में  ; परमात्मा न बन्धन में डालता है और न ही मुक्ति करता है । व्यक्ति की अज्ञानजनित भैद-बुद्धि ही उसका कारण है । अज्ञान के कारण जब ये समस्त कल्पनाएँ क्षीण हो जाती हैं, तो ऐसा जानकर योगी शान्त हो जाता है ।।”

“अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि संकल्प- विकल् के कारण सृष्टि है, लेकिन आत्मज्ञानी योगी का मन इन

संकल्प- विकल्पों से रहित होकर पूर्णतया शान्त हो जाता है, जिससे मन के सभी विक्षेप समाप्त हो जाते हैं।  वह सदा एक ही आत्मा का सर्वत्र अनुभव करता हुआ नित्य आत्मानन्द में ही मग्न रहता है , इसलिए उसे बोध- अज्ञान, सुख-दुख आदि का कोई अनुभव नहीं होता है ।।”

“अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि आत्मज्ञानी के चित्त में  सभी संकल्प- विकल्प समाप्त हो जाते हैं  । उस निर्विकल्प मनवाने योगी के लिए राज्य और भिक्षावृत्ति में  , लाभ और हानि में  , समाज और वन में कोई अन्तर नहीं है । उसका कोई चुनाव नहीं होता है  , उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती  , कोई शिकायत नहीं रहती , जो है सब स्वीकार है ।।”

“अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि आत्मज्ञानी व्यक्ति मन की संकल्प- विकल्प अवस्था से पूर्णतः रहित हो जाने से, उसकी इच्छाएं शान्त हो जाती हैं,  जिससे वह किये और अनलिखे सभी संघर्षों से मुक्त हो जाता है । ऐसे मुक्त योगी के लिए धर्म,  अर्थ, काम; धर्म और बुद्धि के बन्धन समाप्त हो जाते हैं  । उसकी दृष्टि आत्मज्ञान में बदल जाती है ।।”

“अष्टावक्र जी राजा जनक से इस सूत्र में कहते हैं कि जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्यकर्म कुछ भी शेष नहीं है । कर्मों का सांसारिक लक्ष्य, फल की प्राप्ति होता है । जीवनमुक्त पुरुष कामनारहित व फल की अपेक्षा नहीं रखता । उसके अंतःकरण में तनिक भी अनुराग नहीं रहता।  वह संसार में यथाप्राप्त जीवन जीता है ।।”

भाव शून्य और कर्तव्य कर्म शून्य दोनो पृथक पृथक अवस्था है। जीव चेतन है, जड़ नही। इसलिए वह कर्म के लिए बाध्य है, और निष्काम कर्तव्य कर्म का पालन वह गुणातीत अवस्था में करता ही रहता है। यह स्वयं भगवान श्री कृष्ण का चरित्र, स्वामी राम तीर्थ, आदि गुरु शंकराचार्य आदि के चरित्र से हम अपना भी सकते है। महापुरुष के चरित्र और कर्म की शिक्षा और अध्ययन हमारे समाज और पीढ़ी के मार्गदर्शन का सब से उत्तम मार्ग है।

आगे में श्लोक में गुणातीत जीव के आचरण को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 14.22।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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