।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.21 II
।। अध्याय 14.21 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.21॥
अर्जुन उवाच,
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥
“arjuna uvāca,
kair lińgais trīn guṇān etān,
atīto bhavati prabho..।
kim ācāraḥ kathaḿ caitāḿs,
trīn guṇān ativartate”..।।
भावार्थ:
अर्जुन ने पूछा – हे प्रभु! प्रकृति के तीनों गुणों को पार किया हुआ मनुष्य किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है और उसका आचरण कैसा होता है तथा वह मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों को किस प्रकार से पार कर पाता है?। (२१)
Meaning:
Arjuna said:
By which signs is the one who has gone beyond the three gunas known, O Lord? What is his behaviour, and how does he transcend these three gunas?
Explanation:
We hear Arjuna speak after a long time in this shloka. Arjuna usually speaks when he needs to clarify a doubt, or when he thinks that he needs a more practical version of what he has just heard. We have seen this happen several times. In the second chapter, Arjuna wanted to know the marks of the person who is established in knowledge, sthitha prajnya. Arjuna also asked the signs of a perfected devotee in the chapter on bhakti yoga. Every time he has asked a question, we as listeners have benefitted tremendously. Now he asks three questions in relation to the guṇas. The word liṅgais means “symptoms.” His first question is: “What are the symptoms of those who have transcended the three guṇas?” The word āchāraḥ means “conduct.” Arjun’s second question is: “In what manner do such transcendentalists conduct themselves?” The word ativartate means “transcend.” The third question he asks is: “How does one transcend the three guṇas?”
Having heard a detailed explanation around the three gunas, but only a couple of shlokas on the person who transcends those gunas and attains immortality, Arjuna found it appropriate to ask a question at this juncture. He wanted to know three things. First, how does one know that a person has transcended the three gunas. Second, how does such a person behave in the world. Third, how does he actually transcend the three gunas.
We have to constantly remind ourselves that everything we learn from this chapter is purely for self- analysis, not for judging or evaluating someone else. The only person that can accurately determine whether our mental state is sattvic, rajasic or tamasic is none other than ourselves. There is another aspect to learning about the signs of one who has gone beyond the influence of the gunas. Until we reach the state of liberation, these signs are attributes that we should aspire to cultivate in our lives.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में प्रकृति के त्रियामी गुण एवम उस से परे मुक्त जीवात्मा को सुन कर अर्जुन के मन मे यह स्ववाभिक जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि जिस ने भौतिक सत्व- रज- तम गुणों को लांघ लिया है ऐसे दिव्य पुरुष को कोई कैसे समझे कि वह किस प्रकार रहता है?, क्या क्रियाकलाप करता है?, क्या वह अनुशासित है? क्योंकि बिना लक्षणों को समझे वह उसे कैसे पहचान सकता है एवम स्वयं को भी कैसे जान सकता है। इसलिए वे गुणों के संबंध में तीन प्रश्न पूछते हैं। लिंगा शब्द का अर्थ है “लक्षण।” उनका पहला प्रश्न है: “उन लोगों के लक्षण क्या हैं जो तीनों गुणों से परे हो गए हैं?” आचार शब्द का अर्थ है “आचरण।” अर्जुन का दूसरा प्रश्न है: “ऐसे पारलौकिक लोग किस तरह से आचरण करते हैं?” अतिवर्तते शब्द का अर्थ है “पार करना।” वे जो तीसरा प्रश्न पूछते हैं वह है: “कोई व्यक्ति तीनों गुणों से कैसे परे होता है?”
चलचित्रो में भगवान का, साधु का, शैतान का अभिनय करने वाला हाव – भाव या वेश – भूषा से वैसा पात्र दिखता अवश्य है किंतु हम उसे पहचान लेते है कि यह अभिनय करने वाला पात्र वास्तव में कौन है। भगवद भाव अर्थात गुणातीत अवस्था को जीवित रहते हुए जिस ने प्राप्त किया है, वह ब्रह्मसंध महापुरुष के लक्षण जाने बिना हम उसे नही पहचान सकते, तो संत – महात्मा का अभिनय करने वाले अयोग्य व्यक्ति के प्रति यदि हम श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से भक्तिभाव रखते है तो हम अपनी ही हानि करते है। अतः गुणातीत पुरुष को जानने के लिए इस प्रकार अर्जुन ने गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण एवम उपायसम्बन्धी तीन प्रश्न किये।
यद्यपि हम ब्रह्मसन्ध, वेदवित्त एवम क्षेत्रज्ञ ज्ञान के गुण पढ़ चुके है, किन्तु गुणातीत पुरुष का आचरण विशिष्ट होता है जो उसे परमात्मा से मिलाता है। यह तीन विचार द्वैत से अद्वैत में विलीन होने के लिये गुणों का विचार है इसलिये इस प्रश्न को विशिष्ट अद्वैत अर्थात विशिष्टाद्वैत का भी प्रश्न भी कहते है। यह सूक्ष्म चित्त- अचित्त- विशिष्ट कारण और स्थूल चित्त- अचित्त ब्रह्मरूप कार्य जगत से अभेद का सिंद्धान्त भी है।
सरल भाषा में हम यह समझ सकते है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना कठिन और दुष्कर है, इसलिए परमात्मा के भाव में मनुष्य सगुण ब्रह्म की उपासना करता है। इसलिए यह द्वैत है, किंतु उपासना में वह उच्च स्थान को प्राप्त करते हुए सगुण ब्रह्म में स्वयं को विलीन कर देता है तो यह विशिष्ट प्रकार का अद्वैत भाव है जो सगुणाकार से निर्गुणाकार ब्रह्म को प्राप्त करना। संत तुकाराम, मीरा, सूरदास आदि इसी विशिष्टादैत भाव के उदाहरण है।
जब ज्ञान मिल रहा हो, अर्जुन का प्रश्न यह भी दर्शाता है कि अपनी शंकाओं का निवारण गुरु के साथ करना आना चाहिये जिस से ज्ञान शंका रहित आत्मसात हो। बहुता ज्ञान प्राप्ति को हम अलग कोष्ठ में जमा लेते है कि जब फुर्सत मिलेगी तब विचार करेंगे, अभी जो कर रहे है वो चलने देते है। फिर न फुर्सत मिलती है, न ही ज्ञान पर मंथन होता है और यदि मंथन हो भी तो शंका का समाधान के लिये उस समय गुरु नहीं होता। इसलिये शिष्य अर्जुन के समान होना चाहिए जो शंका रहित ज्ञान को प्राप्त कर के निपुण रहना चाहता है।
गीता का अध्ययन अक्सर यह पूर्व धारणा से करते है यह आज के भौतिक युग मे व्यवहारिक नही है, इस के सिंद्धान्त को संसार मे कर्म करते हुए अपनाने लायक नहीं है। किंतु कभी हम अपनी शंकाओं को अर्जुन की भांति दूर नहीं करते और धार्मिक भावना से गीता का पाठ करते भर है कि इस से हमे भगवद कृपा मिले और संसार मे हम और सुखों को भोग सके। यह अध्याय किसी और के लिये स्वयं अपने ही गुणों के विकास का है और गुणातीत होने का है। अर्जुन की भांति हम अपनी शंकाओं का निवारण नही करते तो और कौन करेगा?
प्रत्येक जिज्ञासु शिष्य को यह स्वतंत्रता है कि सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान के सिद्धान्तों को भलीभाँति समझने के लिये प्रश्न पूछ सके। उन्हें समझने पर ही उनके महत्त्व को पहचाना जा सकता है। जब तक इस प्रकार की समझ और पहचान नहीं होती तब तक हम उन सिद्धान्तों को अपने दैनिक जीवन में नहीं जी सकते। हिन्दू दर्शन एक जीवन पद्धति है, न कि जीवन की ओर देखने का केवल एक दृष्टिकोण। इसलिए आवश्यक है कि इस ज्ञान को हम अपने जीवन में जियें एवम एक ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी पुरुष का यह कर्तव्य है कि उसको संयमी अथवा नास्तिक लोगों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर भी विस्तारपूर्वक देने चाहिये। तत्त्वज्ञान के सिद्धान्तों को विचार मन्थन के द्वारा जब प्रकाश में नहीं लाया जाता, तब वे नष्टप्राय होने लगते हैं।
गीता में यह प्रश्न महत्वपूर्ण भी है क्योंकि अभी तक विभिन्न ज्ञान- ध्यान, भक्ति एवम कर्म योग एवम उन के गुण आदि पढ़ने के बाद, हम लोग मुख्य तौर पर एक बाबा जी पुरुष जो विभिन्न सिद्धियों से युक्त होगा और जिस की शरण या संगत हमारे समस्त कष्ट को मिटा देगी, जबकि इस का मुख्य धेय गुणातीत होना ही है। हिंदू धर्म में श्रद्धा, विश्वास और समर्पण के नाम पर आम और भोले भाले लोगो का शोषण शुरू हो जाता है और अहम और स्वार्थ के यह बाबा लोग आश्रम बना कर ऐश की जिंदगी जीने लगते है। इस में सत पुरुष को पहचानना अति आवश्यक है। हम ने यह भी पढ़ा कि सभी मार्ग अंत मे एक ही पड़ाव पर आ जाते है। इसलिये परमात्मा जो भी कहते है उसे ध्यान से समझते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 14.21।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)