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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.20 II

।। अध्याय      14.20 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ ।

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥

“guṇān etān atītya trīn,

dehī deha-

samudbhavān..।

janma- mṛtyu- jarā- duḥkhair,

vimukto ‘mṛtam aśnute”..।।

भावार्थ: 

जब शरीरधारी जीव प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा तथा सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर इसी जीवन में परम-आनन्द स्वरूप अमृत का भोग करता है। (२०)

Meaning:

Having gone beyond these three gunaas, the creators of the body, the body dweller is freed from sorrow of birth, death and old age, and attains immortality.

Explanation:

Shri Krishna now conveys the gist of the fourteenth chapter in this shloka. He says that Prakriti, which is comprised of the three gunaas, creates this entire universe, including our body. As long as the individual soul, the jeeva, the body dweller identifies with this body and gives reality to it, he experiences sorrows throughout his life. Once the jeeva stops identifying with the body which is the product of the three gunaas, he attains liberation and becomes immortal.

If we drink water from a dirty well, we are bound to get a stomach upset. Similarly, if we are influenced by the three modes, we are bound to experience their consequences, which are repeated birth within the material realm, disease, old age, and death. These four are the primary miseries of material life. It was by seeing these that the Buddha first realized that the world is a place of misery, and then searched for the way out of misery.

This shloka also connects the main theme of the prior chapter to this chapter. In the thirteenth chapter, we learnt that ignorance of our true nature creates an entity called the Purusha, which in essence is nothing but a bundle of unfulfilled desires. Now here, we learn that these unfulfilled desires, also known as avidyaa, ignorance or maaya, attract a combination of sattva, rajas and tamas that becomes the physical body. Only when the Purusha severs his connection with this body by rising above the three gunaas, he realizes his true nature as the eternal essence.

Immortality in this context does not mean physical immortality. The body follows the laws of nature. Everything in nature has to perish, including our physical body. From the perspective of Prakriti, the body will die. But the dehi, the body dweller, having gone beyond the three gunas, having stopped identifying with the three gunas, knows that he is untouched and unaffected by the laws of Prakriti. For him, the modifications of the body such as old age and disease are as if they are happening to some third party. This ultimate freedom from the influence of the Prakriti is what makes him immortal.

We must understand how our culture is developed in ancient era. The Vedas prescribe a number of codes of conduct, social duties, rituals, and regulations for human beings. These prescribed duties and codes of conduct are together called karm dharma, or varṇāśhram dharma, or śhārīrik dharma. They help elevate us from tamo guṇa and rajo guṇa to sattva guṇa. However, to reach sattva guṇa is not enough; it is also a form of bondage. The mode of goodness can be equated to being fettered with chains of gold. Our goal lies even beyond it—to get out of the prison house of material existence.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अगर हम गंदे कुएं से पानी पीते हैं, तो हमें पेट खराब होना तय है। इसी तरह, अगर हम तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, तो हमें उनके परिणामों का अनुभव करना ही पड़ता है, जो भौतिक दुनिया में बार-बार जन्म, बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु हैं। ये चार भौतिक जीवन के प्राथमिक दुख हैं। इन्हें देखकर ही बुद्ध को पहली बार एहसास हुआ कि दुनिया दुखों का स्थान है, और फिर उन्होंने दुख से बाहर निकलने का रास्ता खोजा।

वेदांत में जिसे माया कहा गया है, उसे ही सांख्यमत वाले त्रिगुणात्मक प्रकृति कहते है। इसलिए त्रिगुणातित होना ही माया से छूट कर परब्रह्म को पहचान लेना है। इसी को ब्राह्मी अवस्था भी कहते है।

आदि शंकराचार्य जी कहते है। देहोत्पत्ति के बीजभूत, इन मायोपाधिक पूर्वोक्त तीनों गुणों का उल्लंघन कर अर्थात् जीवितावस्था में ही इन का अतिक्रम कर के, यह देहधारी विद्वान् जीता हुआ ही जन्म मृत्यु, बुढ़ापे और दुःखों से मुक्त होकर अमृत का अनुभव करता है। अभिप्राय यह कि इस प्रकार वह मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।

त्रिविध गुण, गुणों के कार्य देह, इन्द्रिय आदि तथा देह इन्द्रिय आदि के संबंध से जन्म-मरण – ज़रा आदि जन्य दुखो के साथ वास्तव में इस जीवात्मा का कोई संबंध नहीं है, नही था और नही होता है, किन्तु केवल अज्ञान द्वारा काल्पनिक ही संबंध बना हुआ था। जिस निंद्रा दोष के कारण स्वप्न्न दृष्टा का देहादि स्वप्न प्रपंच से साक्षात मुक्ति हो जाती है, इसी प्रकार यह पुरुष केवल उपर्युक्त ज्ञान द्वारा अज्ञान निंद्रा से छूट कर तीनो गुण, इन गुणों का कार्य देहादि प्रपंच तथा देह संबंधी जन्म मरण एवम ज़रा आदि दुखो से जीता हुआ ही मुक्त होकर अमृत स्वरूप अपने स्वरूप का भोग करता है।

विचार कुशल मनुष्य इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इन के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, इन के साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग कर देता है। कारण कि उस को यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं, उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं और अपना स्वरूप गुणोंसे कभी लिप्त हुआ नहीं, हो सकता भी नहीं। ध्यान देने की बात है कि जिस प्रकृति से ये गुण उत्पन्न होते हैं, उस प्रकृति के साथ भी स्वयं का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, फिर गुणों के साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है, जब इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है, तो फिर उस को जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था का दुःख नहीं होता। वह जन्म मृत्यु आदिके दुःखों से छूट जाता है क्योंकि जन्म आदि के होने में गुणों का सङ्ग ही कारण है। ये गुण आते जाते रहते हैं इन में परिवर्तन होता रहता है। गुणों की वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी, कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं परन्तु स्वयं में कभी सात्त्विकपना, राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। स्वयं (स्वरूप) तो स्वतः असङ्ग रहता है। इस असङ्ग स्वरूप का कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता, तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिस का जन्म होता है, उसी की मृत्यु होती है तथा उसी की वृद्धावस्था भी होती है। गुणों का सङ्ग रहने से ही जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखोंका अनुभव होता है। जो गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्तता का अनुभव कर लेता है,उस को स्वतःसिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। देह से तादात्म्य (एकता) मानने से ही मनुष्य अपने को मरनेवाला समझता है। देह के सम्बन्ध से होनेवाले सम्पूर्ण दुःखों में सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूप से है तो अमर ही किन्तु भोग और संग्रह में आसक्त होने से और प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीर को अमर रखने की इच्छा से ही इस को अमरताका अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देह से तादात्म्य नष्ट होने पर अमरता का अनुभव करता है।

ब्रह्म से महत्व अर्थात बुद्धि की उत्पत्ति हुई, जिस में अहंकार जुड़ा और फिर इंद्रिय सृष्टि की शक्तियां आई। अतः जब जीव इंद्रियों, अहंकार, बुद्धि से ऊपर ब्रह्म भाव में पहुंच जाता है, तो वह गुणातित भाव कहलाता है। यही भगवद भाव भी है। अर्थात जब जीव अपने को भगवद को समर्पित कर देता है और जो कुछ भी हो रहा है, वह जानता है कि प्रकृति कर रही है, वह मात्र दृष्टा , साक्षी एवम अकर्ता है, तो यह अवस्था गुणातीत अर्थात भगवद भाव की है।

यह प्रकृति एक रंगमंच है, हम सब कलाकार। न तो हम, रंग मंच में जिस पात्र को निभा रहे है या रंगमंच में जो क्रिया या किरदार निभा रहे है, है और न ही रंगमंच का काव्य हमेशा चलता है, किन्तु रंगमंच हमेशा रहता है और उस मे किरदार इस बात को जान कर अपने दायित्व को निभाता है। यहाँ कुछ सिनेमा से लिये डायलॉग भी सार्थक है।

बाबूमोशाय..जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है. उसे ना तो आप बदल सकते हैं नाम मैं, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपरवाले के हाथ में बंधी है।

ज़िंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है…उसे न आप बदल सकते हैं न मैं!

जीने की आरज़ू में मरे जा रहे हैं लोग.… मरने की आरज़ू में जीए जा रहा हूं मैं।

ज्ञान से देहमुक्ति की बात न कह कर परमात्मा ने कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व के भाव से मुक्ति की बात की है, इसी को स्थितप्रज्ञ या ब्रह्मसन्ध माना गया है, इस के बाद संसार मे अतिथि की भांति रहते हुए निष्काम कर्म करते हुए सांसारिक भोग भोगने की बात कही गई है। यह जीवन कैसा हो यह स्वयम परमात्मा ने कृष्णवतार में जी कर दिखाया। उन्हें न गोकुल- वृंदावन रोक सका, न ही उन्हें मथुरा के सिंहासन की चाह रही, वो अपने शत्रु या मित्र किसी के साथ नही बंधे और जगत का कल्याण ही किया। उन्होंने हर क्रिया का आनन्द लिया किन्तु किसी भी कार्य के बंधन को नही स्वीकार किया। उन्होंने वह सब कार्य किये जिन्हें समाज नही करने को कहता था किंतु मान- अपमान के बंधन को कभी स्वीकार नही किया। यही कर्म और निष्काम कर्म योग है और जीवन का भोग है। यही प्रकृति की माया या प्रकृति के तीनों गुणों से गुणातीत हो कर ब्रह्म को जानते हुए, जीना है।

हमारे पूर्वजों ने सभ्यता और संस्कृति को विकसित करने के कुछ नियम बनाए। वेदों में मनुष्यों के लिए कई आचार संहिताएँ, सामाजिक कर्तव्य, अनुष्ठान और नियम बताए गए हैं। इन निर्धारित कर्तव्यों और आचार संहिताओं को सामूहिक रूप से कर्म धर्म, या वर्णाश्रम धर्म, या शारीरिक धर्म कहा जाता है। वे हमें तमो गुण और रजो गुण से सत्व गुण तक ऊपर उठाने में मदद करते हैं। हालाँकि, सत्व गुण तक पहुँचना ही पर्याप्त नहीं है; यह भी एक प्रकार का बंधन है। अच्छाई की गुणवत्ता की तुलना सोने की जंजीरों से बंधे होने से की जा सकती है। हमारा लक्ष्य इससे भी आगे है – भौतिक अस्तित्व के कारागार से बाहर निकलना।

गुणातीत पुरुषं दुःखों से मुक्त होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है – ऐसा सुनकर अर्जुन के मनमें गुणातीत मनुष्य के लक्षण जानने की जिज्ञासा हुई। अतः वे आगे के श्लोकमें भगवान् से क्या प्रश्न करते हैं, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.20।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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