।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.19 II
।। अध्याय 14.19 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.19॥
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥
“nānyaḿ guṇebhyaḥ kartāraḿ,
yadā draṣṭānupaśyati..।
guṇebhyaś ca paraḿ vetti,
mad-bhāvaḿ so ‘dhigacchati”..।।
भावार्थ:
जब कोई मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है और स्वयं को दृष्टा रूप से देखता है तब वह प्रकृति के तीनों गुणों से परे स्थित होकर मुझ परमात्मा को जानकर मेरे दिव्य स्वभाव को ही प्राप्त होता है। (१९)
Meaning:
When the beholders view no other doer than the gunaas, and knows himself as transcending the gunaas, he attains my nature.
Explanation:
Having revealed the complex workings of the three guṇas, Shree Krishna now shows the simple solution for breaking out of their bondage. All the living entities in the world are under the grip of the three guṇas, and hence the guṇas are the active agents in all the works being done in the world. But the Supreme Lord is beyond them. Therefore, he is called tri-guṇātīt (transcendental to the modes of material nature). Similarly, all the attributes of God—his names, forms, virtues, pastimes, abodes, saints—are also tri-guṇātīt.
Let us now introduce a new character into our recurring example, a CEO of a television channel. He is the father of the young child who, as we have seen earlier, is addicted to watching boxing matches. These matches are broadcast on the very same channel that the CEO owns. What is the difference between the child and the CEO? The CEO has set up the machinery of the television channel. He knows how the shows are recorded, edited and broadcast. When he comes home, he watches the channel as a detached observer. But the child, due to his addiction, gets affected by the blows received by the boxer in the boxing match.
The CEO keeps reminding his son to not get so attached to the boxing match since it is not real, it is just a television program. Once the child has identified himself as the boxer, he will have to accept all the consequences of that character in that particular TV show. In the same way, Shri Krishna urges us to not get trapped in the machine called Prakriti. If we identify with Prakriti, which is nothing but the three gunas, then we have to accept all its laws including birth, death, rebirth, joy, sorrow and so on. We have to understand that we neither do anything, nor do we experience the result of our actions. All action and reaction is within the realm of Prakriti. Once we establish ourselves as a witness, we understand that we have incorrectly taken on action and reaction upon ourselves.
Knowing this reality, however, does not mean that Prakriti will go away. Even if the child has stopped identifying with the boxer, the boxing match will be broadcast every day at 8 PM. Similarly, even if we are not bound by it, Prakriti will be tangible and visible to us during our waking hours. The entire universe, including the body that we are identified with, is made up of the three gunas of Prakriti. But despite it appearing to us as an apparent reality, Prakriti will be unable to bind us with its laws once we recognize it as an illusion, and not as reality. Once we are able to rise beyond identification with the three gunas, we will see Prakriti the way Ishvara sees Prakriti, as a detached observer. In this manner, when we realize our identity with Ishvara, we will attain the state of liberation, of self-realization.
।। हिंदी समीक्षा ।।
तीनों गुणों की जटिल कार्यप्रणाली को प्रकट करने के बाद, श्रीकृष्ण अब उनके बंधन से मुक्त होने का सरल उपाय बताते हैं। संसार के सभी जीवात्माएँ तीनों गुणों के अधीन हैं, और इसलिए गुण ही संसार में किए जा रहे सभी कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। लेकिन परमेश्वर इनसे परे हैं। इसलिए उन्हें त्रिगुणातीत (भौतिक प्रकृति के गुणों से परे) कहा जाता है। इसी प्रकार, भगवान के सभी गुण – उनके नाम, रूप, गुण, लीलाएँ, धाम, संत – भी त्रिगुणातीत हैं।
सरल भाषा में हम कह सकते है कि यह जीव मन, बुद्धि और शरीर से बना है जिस में आत्मा अर्थात ब्रह्म अंश के रूप में है। यह अंश का प्रतिबिंब मन – बुद्धि – शरीर में अंदर होने से चेतन जाग्रत होता है जिसे अहंकार कहते है अर्थात चिदाभास। क्योंकि आत्मा स्वयं में अकर्ता, साक्षी और नित्य इसलिए इस को चैतन्य कहा है और इस का प्रतिबिंब जो मन – बुद्धि – शरीर को प्रकाशित करता है, उसे अहम कहा अर्थात चेतन कहा गया है। यह चेतन प्रकृति के तीनों गुणों से प्रभावित हो कर कर्म करता है और फल का भोग भोगता है। इसलिए जो मन, बुद्धि और शरीर को चेतन से प्रकृति से नही जोड़ते हुए चैतन्य से जोड़ते है, वे आनंदमय कोश में विचरण करते हुए प्रकृति के गुणों से मुक्त रहते है।
प्रकृति में स्थित होना रूप मिथ्या ज्ञान से युक्त पुरुष का सुख दुःख मोहात्मक भोग रूप गुणों में मैं सुखी, दुखी अथवा मूढ हूँ इस प्रकार का जो सङ्ग है, वह सङ्ग ही इस पुरुष की अच्छी बुरी योनियों में जन्म प्राप्ति रूप संसार का कारण है। यह बात जो पहले तेरहवें अध्याय में संक्षेप से कही थी, उसी को यहाँ सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः इस श्लोक से लेकर गुणों का स्वरूप, गुणों का कार्य, अपने कार्य द्वारा गुणों का बन्धकत्व तथा गुणों के कार्य द्वारा बँधे हुए पुरुष की जो गति होती है, इन सब मिथ्या ज्ञान रूप अज्ञानमूलक बन्धन के कारणों को, विस्तारपूर्वक बतलाने के बाद अब यथार्थ ज्ञान से मोक्ष कैसे होता है वह भी समझना चाहिये।
जिस समय द्रष्टा पुरुष ज्ञानी होकर, कार्य, करण और विषयों के आकार में परिणत हुए गुणों से अतिरिक्त अन्य किसी को ( भी ) कर्ता नहीं देखता है अर्थात् यही देखता है कि समस्त अवस्थाओं में स्थित हुए गुण ही,समस्त कर्मों के कर्ता हैं तथा गुणों के व्यापार के साक्षीरूप आत्माको गुणों से पर जानता है, तब वह द्रष्टा परमात्मा के भाव को प्राप्त होता है।
सृष्टि प्रकृति एवम जीव का संयोग है अतः मुक्ति इस संयोग के भ्रम को तोड़ने से होगी। जीव परब्रह्म का स्वरूप है, अकर्ता है, दृष्टा है एवम साक्षी है। प्रकृति क्रियाशील है। इसलिये जीव जब तक प्रकृति के इन तीन गुणों की क्रियाओं को अपनी क्रिया समझ लेता है एवम कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव मे रहता है तो वह गुणों के अनुसार व्यवहार करता है। किंतु जैसे ही उसे यह ज्ञात होता है कि उस का प्रकृति से संयोग हुआ था और यह त्रियामी गुण का कर्ता वह नहीं, प्रकृति है, वह मुक्त हो जाता है और उस ज्ञान के साथ व्यवहार करता है।
जब तक हम रेलगाड़ी में आसीन रहेंगे, तब तक रेल की गति हमारी गति होगी। परन्तु जैसे ही हम गन्तव्य स्थान पर उतर जाते हैं, तब हम स्थिर हो जाते हैं हैं, केवल रेल गतिमान रहती है।
प्रकृति के गुण माया ही है जिस में स्वप्न्न में जीव अपने को कर्ता एवम भोक्ता मान कर व्यवहार करता है, यह स्वप्न्न के जागते ही जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। हम जो सपना देखते है उसे नींद खुलते ही यथा स्थिति को पहचान जाते है। यह संसार भी इन तीन गुणों की माया है, बस नींद से जागने भर की देरी है।
प्रकृति के गुणभेद एवम उस से प्राप्त गति वास्तव में एक दिव्य स्वप्न ही है। यही माया भी है, सत्य ब्रह्म है जो नित्य, सनातन एवम शुद्ध है। प्रकृति में उत्तम, मध्यम एवम अधोगति दिखावटी है, क्योंकि यह गुण से युक्त है, देवता भी इन गुणों से मुक्त नहीं। इसलिये कभी देवता भी रज या तम गुण में कर्म कर जाते है। सत्य एक मात्र परब्रह्म ही है जिसे इस गुणों से मुक्त हो कर यानि गुणातीत हो कर ही समझा या प्राप्त किया जा सकता है।
गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंसे ही हो रही हैं, सम्पूर्ण परिवर्तन गुणोंमें ही हो रहा है। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाओं और परिवर्तनोंमें गुण ही कारण हैं और कोई कारण नहीं है। वे गुण जिससे प्रकाशित होते हैं, वह तत्त्व गुणों से पर है। गुणों से पर होने से वह कभी गुणों से लिप्त नहीं होता अर्थात् गुणों और क्रियाओँ का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। गुणों से भिन्न और कोई कर्ता नही है अर्थात गुण ही कार्य, करण व कर्ता रूप में परिणित होते है, ऐसे उस तत्त्व को जो विचारकुशल, दृष्टा जीव या साधक जान लेता है अर्थात् विवेक के द्वारा अपने आप को गुणों से पर, असम्बद्ध, निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध न कभी हुआ है, न है, न होगा और न हो ही सकता है। कारण कि गुण परिवर्तनशील हैं और स्वयं में कभी परिवर्तन होता ही नहीं। वह फिर मेरे भाव को, मेरे सच्चिदानंद स्वरूप, मुझ परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि वह जो भूल से गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानता था, वह मान्यता मिट जाती है, वह गुणातीत हो जाता है एवम मेरे साथ उसका जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है, वह ज्यों का त्यों रह जाता है।
यदि हम अपने मन को ईश्वरीय क्षेत्र में लगाते हैं, तो यह गुणों से परे हो जाता है और दिव्य बन जाता है। जो लोग इस सिद्धांत को समझते हैं, वे सांसारिक वस्तुओं और लोगों के साथ अपने संबंधों को ढीला करना शुरू कर देते हैं, और भक्ति के माध्यम से, भगवान और गुरु के साथ इसे मजबूत करते हैं। यह उन्हें तीनों गुणों से परे जाने और भगवान की दिव्य प्रकृति को प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।
व्यवहार में हमारे दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में गीता किस प्रकार उपयोगी है, इस का प्रत्यक्ष प्रमाण यह श्लोक है। जिस मनुष्य को यह समझ में आ गया कि जीव के लिए मुक्ति के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं, उस की सांसारिक दिनचर्या में समस्त कार्य को करने का मार्ग यही है कि वह सर्व प्रथम अपने को पहचाने। इस के लिए उस का आहार सात्विक होना चाहिए, उस के कार्य निष्काम होने चाहिए, उस के आचरण में, विचारो में समस्त क्रियाएं प्रकृति करती है, वह निमित्त मात्र है, का भाव होना चाहिए। सत्व गुण प्रधान होने से किसी भी कर्म के प्रति दक्षता और कर्मठता होना, अपने दायित्व को समझना और विवेकपूर्ण करना और किसी भी लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए कर्म को करना आवश्यक है। भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में विजय के लिए अर्जुन से वह सब काम करवाए जिन्हे हम अपनी दृष्टि से नियमो के विरुद्ध समझते है। शत्रु से दया या क्षमा का भाव देश में मुगल शासन का कारण बना, यदि पृथ्वीराज चौहान प्रथम युद्ध में हुमायु का बध कर देते तो यह देश को गुलामी नही मिलती, महाभारत में भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि महारथियों का बध न किया जाता तो अर्जुन युद्ध नहीं जीत सकते थे। पूर्व श्लोक में भी जीव को गुणों के साथ कमल के पत्ते के समान रहने की बात कही गई है, जिस पर ऊपर या नीचे से अर्थात कही से भी जल बढ़े, उस पर जल नही टिकता। इस प्रकार हम बिना अहंकार, आसक्ति, कामना के सांसारिक कार्य निर्वृत भाव से कर सकते।
हिंदू कोई धर्म नही, सनातन विचार धारा है, जिस में प्रत्येक ज्ञान – विज्ञान की दार्शनिक विचारधाराओं को बराबर की मान्यता प्राप्त है। इसलिए स्वार्थ, आसक्ति और अहंकार में जब कुछ लोग इन सनातन विचार धाराओं में अपना अहम और स्वार्थ को निहित कर लेते है तो ज्ञानी हो कर भी उन का आचरण रावण, कंस या दुर्योधन जैसा होता है, जिन्हे पाठ्य पुस्तक जैसा ज्ञान तो प्राप्त होता है, किंतु उन पर प्रभाव रज और तम गुण का ही अधिक होता है। यह कहते और मानते तो अपने को हिंदू ही है किंतु भगवद भाव से दूर, रज और तम गुण में कार्य करते है। इसलिए सत्व गुणी लोगो को निमित्त बना कर प्रकृति इन का उद्धार भी करती रहती है।
प्रश्न यह है कि क्या यह संभव है, यदि असंभव लगता है तो हमे कृष्ण चरित्र के साथ उन महापुरूषों के चरित्र भी जानना चाहिए, जो संसार में निष्काम भाव से देश की आजादी, धर्म और मानव जाति के उत्थान के लिए जिए। आज भी जब भारत रत्न या पद्मभूषण के लिए कुछ नाम सामने आने लगे है तो संसार में निष्काम करने वाले अनेक लोगो के बारे में भी पता चलता है।
प्रकृति में हमारे पूर्व के कर्मो के फल स्वरूप अनेक कर्म के रूप में फल सामने आते है किंतु यदि वह सभी कर्म अनासक्त भाव से किए जाए तो आगे के कर्मो का फल नहीं प्राप्त होता। प्रकृति सत्व गुणों से युक्त जीव को निमित्त बनाती है, इसलिए लोकसंग्रह के लिए स्वत: ही प्रकृति आप का चयन कर लेगी, यदि हम सात्विक भाव से जीना शुरू कर दे। हमारे रज और तम गुण अपने आप ही दबते चले जायेंगे।
गुणातीत जीव प्रकृति में रहता है, सभी कर्म भी करता है किन्तु किसी भी में भी न भोक्ता है और न ही कर्ता। वह साक्षी भाव से जैसे भगवान श्री कृष्ण या राम ने मनुष्य रूप में संसार मे मानवीय लीला की, उसी प्रकार वह भी अपना कर्म करता है।
अगले श्लोक में भगवद भाव किस को कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.19।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)