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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.15 II

।। अध्याय      14.15 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते ।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

“rajasi pralayaḿ gatvā,

karma-sańgiṣu jāyate..।

tathā pralīnas tamasi,

mūḍha-yoniṣu jāyate”..।।

भावार्थ: 

जब कोई मनुष्य रजोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है और उसी प्रकार तमोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है। (१५)

Meaning:

One who has reached his end in rajas is born among those attached to action, and one who is dying in tamas is born in the wombs of the ignorant.

Explanation:

Previously, Shri Krishna explained the fate of one whose mental state is sattvic at the end of his life. Here, he says that one whose mental state is rajasic while dying is reborn in a family of action-oriented individuals. Also, one whose mental state is tamasic while dying is reborn in the wombs of the ignorant and the inert. This includes plants, trees, creepers, birds, insects and other animals.

Tamōguṇa predominance when a person dies, then mūḍhayōniṣu jāyatē; then that person is reborn in lower janmas, or lower planes of existence. The lower planes can be defined as the lower lōkās, satpa lōkās are talked about; during Avani Avittam they will say: athala, vithala, suthala, rasatala, mahatala, talatala, pathalaakyeṣu; seven lower lōkas are there; either the people will go to the lower lōkas, or even if they are born in Bhu lōkā, they will not get manuṣya janma where free will and buddhi are there; but they will be born as animals. They will be born as plants; where also they will never have a freewill to acquire fresh karmas and that is why they are called mūḍhayōni; mūḍhayōni means Buddhi does not evolve.

It is not just the mental state that determines one’s fate in the next life. Every action we perform leaves impressions in our mind, which also impacts our fate. One who has performed selfless actions throughout their life is born in a virtuous family. One who has performed selfish actions is born with a tendency to get attached to material objects. And one who has performed harmful actions is born with devilish tendencies. Such a person will not stop at anything to get their way, including physically harming others. In their current life and in their next life, it is totally up to each individual to cultivate their discrimination through selfless service, devotion and company of devotees so that they can counteract the effect of excessive rajas.

The Srimad Bhagavatam tells the story of the illustrious king Bharata who was one of the most sattvic individuals of his time. Through extreme attachment to his pet deer, he became steeped in tamas, and was born as a deer in his next life. But due to the selfless actions performed in his life as a king, he developed a degree of renunciation not even found in humans. He was finally born as a highly sattvic human who ultimately achieved liberation. Shri Krishna repeatedly urges us to employ rajas to perform selfless service and cultivate sattva through reducing selfish activities.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अभी तक कई पुस्तको एवम प्रवचनों में सुना था कि मनुष्य जन्म 84 लाख योनियों के बाद प्राप्त होती है एवम एक बार प्राप्त होने के बाद, पुनः जन्म मनुष्य योनि में ही होता है,जब तक जीव उत्तरोत्तर मोक्ष को प्राप्त नही हो जाता।

गीता में हम ने पूर्व में पढ़ा था कि जीव के अंतिम क्षण में परमात्मा का स्मरण उसे परमगति प्रदान करता है। यहाँ सत्वगुणी जीव के बाद रजोगुणी एवम तमगुणी जीव के मृत्यु के बाद की पुष्टि की गई है। अतः अंत समय में जो भी स्मरण उसे उसी के अनुसार योनि मिलती है। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सूक्ष्म शरीर में मरते वक्त जो लालसा, कामना या स्मरण है वह एक इलेक्ट्रॉनिक करेंट की भांति चुंबकीय आकर्षण तैयार करता है और सूक्ष्म शरीर उस आकर्षण के अनुसार उसी जैसी योनि की ओर आकर्षित हो कर भटकता है और जैसे ही उसे उस के अनुरूप योनि दिखती है, वह उस में प्रविष्ट हो जाता है। सत्व गुणी में कोई लालसा न होने से यह प्रभावी नहीं होता।

परमात्मा कहते है रजोगुणी व्यक्ति  आसक्ति, स्पृहा एवम लोभ के साथ कर्म करता हुआ जीवन व्यतीत करता है किंतु वह किसी को हानि या नुकसान नहीं देता। उस की मति तृष्णा में, घरपरिवार में, कमाने एवम संग्रह में लगी रहती है, इसलिये वह पुनः मृत्यु लोक में ही जन्म लेता है। यदि सत्वगुण के साथ रजगुण है तो उच्च कुल में जन्म लेता है और अपनी मोक्ष की गति की ओर बढ़ता है, यदि रज के साथ तम गुण है तो निम्न कुल में जन्म लेता है जहां से उसे सत्त्वगुण की ओर बढ़ना है। उच्च एवम निम्न कुल जाति, धन और स्थान से न मानते हुए, कुल में ज्ञान, आचरण एवम शास्त्रों की मर्यादा के पालन जानना चाहिये।

किन्तु जो तमगुण में अनियंत्रित आचरण करता हुआ, प्रमाद, आलस्य एवम निद्रा के साथ जीवन व्यतीत करता है अब अपने बुद्धि एवम विवेक की अपेक्षा मन के वेग पर रहता है उसे मूढ़ योनि अर्थात कीट-पतंग, पशु- पक्षी या पेड़ – पौधे जैसी प्राप्त होती है जिस से वो अपने पूर्व कर्मो का फल भोग सके। याद रहे, कीट-पतंग, पशु- पक्षी या पेड़-पौधे आदि को कर्म बंधन नही होता, इसलिये वो अपने कर्मो का फल भोगते हुए, पुनः मनुष्य जन्म में जन्म लेते है। यदि पूर्व जन्म में कुछ संचित अच्छे कर्म होते है तो अच्छे स्थान या वातावरण में रहते है अन्यथा कष्टमय स्थान या जीवन को प्राप्त होते है।

तमोगुण की प्रधानता होने पर जब कोई व्यक्ति मरता है, तब मूढयोनिषु जायते; तब वह व्यक्ति निम्न जन्मों, या अस्तित्व के निम्नतर स्तरों में पुनर्जन्म लेता है। निम्न स्तरों को निम्न लोकों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, सत्प लोकों की बात की जाती है; अवनि अवित्तम के दौरान वे कहेंगे: अथला, विठला, सुथला, रसातल, महातल, तलातल, पथलाकयेषु; सात निम्न लोक हैं; या तो लोग निम्न लोकों में जाएंगे, या भले ही वे भू लोक में पैदा हुए हों, उन्हें मनुष्य जन्म नहीं मिलेगा जहां स्वतंत्र इच्छा और बुद्धि हैं; बल्कि वे पशु के रूप में जन्म लेंगे। वे पौधे के रूप में जन्म लेंगे;  जहाँ भी उनके पास नए कर्मों को प्राप्त करने की स्वतंत्र इच्छा नहीं होगी और इसीलिए उन्हें मूढ़योनि कहा जाता है; मूढ़योनि का अर्थ है बुद्धि विकसित नहीं हुई है।

मूढ़ता किसे कहते है, इस को समझना भी जरूरी है। बुद्धि से सम्पन्न होने पर भी हम में से कितने लोग विवेकपूर्ण आचरण करते हैं समाज के कुछ लोग तो पशुओं की ओर ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हुए घोषणा भी करते हैं कि उनका जीवन श्रेष्ठतर और सुखी है कहने का तात्पर्य यह हुआ कि कुछ अल्पसंख्यक द्विपादों की दृष्टि से चतुष्पादों का जीवन उच्चतर विकास का है यदि किसी व्यक्ति का यही विचार हो, तो उस के लिए पशुजीवन निन्दनीय न होकर वरणीय होता है, जिस की वह कामना करता है। मद्यपान न करने वाला एक संयमी पुरुष मधुशाला को दुखालय समझता है किन्तु एक मद्यपायी को वही स्थान सुख और शान्ति का विश्रामालय प्रतीत होता है।तामसिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पशुयोनि में जन्म लेना माने आनन्द प्राप्ति का अद्भुत अवसर है, जहाँ वे अपनी रुचि और प्रवृत्ति को पूर्णतया व्यक्त कर सकते हैं। इस प्रकार दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखने पर हमें बिना किसी सन्देह या संकोच के यह स्वीकार करना पड़ेगा कि तमोगुणी लोगों को पशु देह में ही पूर्ण सन्तोष का अनुभव होगा। अत यहाँ कहा गया है, तमोगुण के प्रवृद्ध हुए काल में मरण होने पर जीव मूढ़योनि में जन्म लेता है। 

राजा भरत पूरे सात्विक होने के बाद भी हिरन के बच्चे पर आसक्ति करने से मृत्यु उपरांत मूढ़ता के कारण हिरन बने। किंतु पूर्व जन्म में अच्छे कर्म एवम संस्कारो से शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर के पुनः उच्च कोटि का सात्विक जीवन प्राप्त किया।

पूर्णजन्म का सिद्धांत मूलत: कर्मफलो को भोगने का सिद्धांत है। प्रकृति के गुणों में कर्म करने से मुक्ति या जन्म – मरण से मुक्ति नहीं मिलती। सात्विक गुण मुक्ति का मार्ग है जिस से जीव उत्तरोत्तर उच्च कुल में जन्म ले कर अपने को योग में उच्च स्तर पर ले जाते हुए गुणातीत अवस्था को प्राप्त करता है और मुक्ति को प्राप्त करता है। रज गुण में पुनर्जन्म उस समय के सत गुण या तम गुण के रज गुण के साथ प्रभाव पर है। सत गुण के साथ रज गुण होने से उच्च और सम्पन्न कुल मिलता है और तम गुण के साथ रज गुण होने से साधारण या निम्न कुल में जन्म मिलता है। यदि पूर्वजन्म में जीव मुक्ति हेतु कोई अच्छा कार्य करता है तो निम्न कुल में भी जन्म ले कर भी वह यथाशीघ्र उच्च स्थान को प्राप्त होता है।

मनुष्य योनि ही कर्म के अधिकार को ले कर मुक्ति का मार्ग तय करती है, इसलिए कर्म फल का बंधन भी इसी योनि में है, अन्य शेष योनियां कर्म फल को भोगने हेतु है। मनुष्य योनि में यदि जीव तम गुणों से प्रभावित हो कर कर्म करे तो वह भी पशुवत ही जीवन है जिस में कर्मो का फल भी जुड़ जाता है। मनुष्य को बुद्धि का बल मुक्ति के लिए है, किंतु इस को कितने लोग कब समझ पाते है।

अन्तकाल में गुणों के तात्कालिक बढ़ने पर मरने वाले मनुष्यों की ऐसी गतियाँ क्यों होती हैं – इसे आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.15।।

।। शास्त्र ज्ञान, धर्म, जीव और प्रकृति के गुण ।। विशेष 14.15 ।।

संसद में भगवान शिव के चित्र के साथ विपक्ष द्वारा हिंदू और फिर पक्ष के हिंदू पर वक्तव्य था। जिस से यह चर्चा सोशल मीडिया पर शुरू हुई कि धर्म तथा शास्त्र को कैसे आत्मसात करे। गीता में भी युद्ध भूमि में जो लोग खड़े थे, वे सभी एक ही धर्म के शास्त्रों को जानने वाले पढ़े लिखे ज्ञानी थे। किंतु कृष्ण का अनुसूय एवम समर्पित  भक्त एक मात्र अर्जुन था जो गीता को उसी भाव से समझने की चेष्टा कर रहा था, जिस भाव में भगवान उसे समझा रहे थे। कोई तर्क या वितर्क, जल्प या वितंडा नहीं। सभी अपने अपने धर्म के अनुसार एक दूसरे के विरुद्ध लड़ने को तैयार थे। अधर्मी कौन है और किसे माना जाए, समाज में दुर्योधन के साथ भी पांडव से अधिक सेना थी।  आज भी सनातन धर्म के सभी ज्ञानी है और अपने अपने स्वार्थ के लिए हिंदू धर्म की व्याख्या करते है। फिर चाहे राजनीतिज्ञ हो, कथा वाचक हो, मठाधीश हो या आप नागरिक। आज रामसुख दास, शंकराचार्य, डोंगरे महाराज जैसे लोग नही मिलते, इसलिए संसद में भी हिंदू धर्म की व्याख्या राजनीति के स्वार्थ में होने के बाद भी कोई भी विपक्ष का सदस्य विरोध नही कर सका और पक्ष ने विरोध अपनी पार्टी के लिए किया।

धर्म और अधर्म की व्याख्या वेद और शास्त्रों के आधार पर गीता में भगवान श्री कृष्ण ने की, किंतु आज गीता पढ़ने वाला भी यदि अर्जुन के समान अनुसुय नहीं हो तो वह उस की व्याख्या में अपने स्वार्थ को ही व्याख्यान करेगा।

महाभारत में कपट से जुए में पाडवों को हारने के बाद, द्रोपति का चीर हरण और फिर  समझोता की 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्त वास के बाद राज्य पांडव को लौटा देंगे। दुर्योधन राज्य वापस करने को तैयार नहीं तो इस का अर्थ यही है कि वह गलत है। किंतु उस को गलत जानते हुए भी, सभी ज्ञानी उस के साथ खड़े थे। आज भी हिंदू  को पता है कि मुस्लिम यदि जनसंख्या में बढ़ जाएंगे तो उन्हे या तो धर्म परिवर्तन करना होगा या उन की हत्या होगी। पूर्व में बलात धर्म परिवर्तन, राम भक्तो पर गोलियां, सिखों की हत्या और भ्रष्टाचार और परिवारवाद और पूर्व का इतिहास भी है और वर्तमान में देख भी रहे है किंतु फिर भी स्वार्थ, लोभ, कामना और अपने अहम में वे गलत लोगो का समर्थन भी कर रहे है और उन के साथ भी है। गीता में वेदों के कर्म कांडों को बिना आत्मशुद्धि के निरर्थक बताया है। इसलिए छोटे छोटे उपदेशों को पढ़ कर हर हिंदू अपने अहम में ज्ञानी है और जो शास्त्र पढ़ कर ज्ञानी है वे अहम, स्वार्थ और लोभ में डूबे है। यही त्रिगुणात्मक प्रकृति है जिस के अंदर ब्रह्म अपना खेल खेलता है। आगे हम महाभारत के ज्ञानी और शूरवीर पात्रों को भी समझने की चेष्टा करते है।

पांडव की सेना या स्वयं पांडव में अर्जुन को छोड़ कर कोई अनुसूए नही था। वे अर्जुन के साथ इसलिए भी नही थे की अर्जुन के साथ अन्याय हुआ है। दोनो सेना में जो भी साथ थे, वे उन के व्यक्तिगत विचार, कर्तव्य, स्वार्थ, मजबूरी और रिश्तेदारी थी। अतः सत्य की राह में सत्य के लिए कोई साथ दे, ऐसा संसार में पहले भी नही था और आज भी नहीं है।

यही हम विश्लेषण युद्ध भूमि में खड़े लोगो के साथ कल के श्लोक के साथ करेंगे।

।। हरि ॐ तत् सत।। गीता विशेष 14.15 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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