।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.13 II
।। अध्याय 14.13 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.13॥
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥
“aprakāśo ‘pravṛttiś ca,
pramādo moha eva ca..।
tamasy etāni jāyante,
vivṛddhe kuru- nandana”..।।
भावार्थ:
हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं। (१३)
Meaning:
Darkness, inaction, heedlessness and also error. These arise when tamas is predominant, O descendant of the Kurus.
Explanation:
Shri Krishna addressed Arjuna as “kurunandana” when explaining the marks of tamas but addressed him as “bharatarshabha” when explaining the marks of rajas. He was probably hinting that some members of the Kuru dynasty, the Kauravas, were under the influence of tamas. When we are under the influence of tamas, we make erroneous decisions. We become inert like a stone, resorting to inaction. Even when we act, it is out of heedlessness. Our knowledge is covered by tamas, creating darkness within us.
Let us go deeper into what inaction really means. When we have a lack of drive to achieve anything in the world, when we want to escape all sense of responsibilities, when all ambitions go away, that is inaction. Moha, error or delusion is even worse. We cannot accurately judge our relationship with the world, with other people, with our family, our friends, our job and so on. We become a “good for nothing” and will remain in that state unless someone wakes us up.
Since, in the tamo aprakāśaḥ, indicates the absence of satva means all the jñānēndriyas are dull and apravṛttiḥ indicates the absence of rajas means karmēndriyas are dull, neither ambitious nor contemplative. So, when the mode of ignorance dominates, one could think, “I am not really sure if there is any God or not, for no one has ever seen him. So why waste time in sādhanā?” Notice how the person’s thoughts have oscillated due to lack of knowledge and improper exercise of activities from such heights to the depths of devotion.
So therefore pramādaḥ, negligence; all the time oversight problem is there; mistakes are many; therefore pramādaḥ, carelessness, mōhaḥ, delusion, conflict; life-long he does not know what he wants to do. You just ask that person what do you want? there is no proper answer. He is slippery. He is not very clear about what he wants. At least if we decide, he will not listen. He will not know himself and he will not listen. Neither he can decide, nor he will follow what I ask him to do.
Nature has its own scale of tamas, rajas and sattva. It is better to crawl like an insect than lie around like a stone, better to work like an ant rather than crawl like an ant, better to pollinate flowers like a bird than simply work like an ant, better to give milk to others like a cow than pollinate flowers like a bird, and it is better to work with one’s intellect like a human than to give milk to others like a cow. So, one who is steeped in tamas, should start to act, even if the actions are without any planning or thinking, just to get into a higher mental state.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जहाँ प्रकाश नही होता, वहाँ ज्ञान अनुपस्थित रहता है। तमोगुणी व्यक्ति किसी नियम में बंध कर कार्य नही करता। वह अकारण ही अपनी सनक के अनुसार कार्य करना चाहता है। यद्यपि उस मे कार्य करने की क्षमता होती है, किन्तु वह परिश्रम नही करता। यह भी एक तरह का मोह है यद्यपि चेतना रहती है लेकिन जीवन निरुद्देश्य एवम निष्क्रिय रहता है। अतः तमोगुण के कारण जो करने योग्य प्रक्रिया विशेष है उस मे अप्रवृति, अन्तःकरण में व्यर्थ की चेष्टाओं का प्रवाह और संसार मे मुग्ध वाली समस्त प्रवृतियों की ओर आकर्षण बन जाता है।
जब अज्ञानता हावी हो जाती है, तो व्यक्ति सोच सकता है, “मुझे सच में नहीं पता कि कोई ईश्वर है या नहीं, क्योंकि किसी ने भी उसे कभी नहीं देखा है। तो फिर साधना में समय क्यों बर्बाद करना?” ध्यान दें कि ज्ञान की कमी और अनुचित गतिविधियों के कारण व्यक्ति के विचार इतनी ऊँचाई से भक्ति की गहराई तक कैसे झूलते हैं। इसलिए तमो अप्रकाश में सत्व का अभाव बताया गया है, अर्थात् सभी ज्ञानेन्द्रियाँ मंद हैं और अप्रवृत्ति में राजस का अभाव बताया गया है, अर्थात् कर्मेन्द्रियाँ मंद हैं इसलिए जीव न तो महत्वाकांक्षी हैं और न ही मननशील।
इसलिए प्रमादः, लापरवाही; हर समय अनदेखी की समस्या रहती है; गलतियाँ बहुत होती हैं; इसलिए प्रमादः, लापरवाही, मोहः, भ्रम, संघर्ष; जीवन भर वह नहीं जानता कि वह क्या करना चाहता है। आप बस उस व्यक्ति से पूछें कि आप क्या चाहते हैं? कोई उचित उत्तर नहीं है। वह फिसलन भरा है। वह इस बारे में बहुत स्पष्ट नहीं है कि वह क्या चाहता है। कम से कम अगर हम तय करते हैं, तो वह नहीं सुनेगा। वह खुद को नहीं जानता और वह नहीं सुनेगा। न तो वह निर्णय ले सकता है, न ही वह वह करेगा जो मैं उसे करने के लिए कहता हूँ।
इंद्रियाओ एवम अन्तःकरण में ज्ञान के अभाव को अप्रकाश, किसी भी कर्तव्य कर्म के आरंभ करने की इच्छा के अभाव को अप्रवृति है। अप्रकाश का अर्थ बुद्धि की उस स्थिति से है, जिसमें वह किसी भी निर्णय को लेने में स्वयं को असमर्थ पाती है। इस स्थिति को लैकिक भाषा में ऊँघना कहते हैं, जिसके प्रभाव से मनुष्य की बुद्धि को सत्य और असत्य का विवेक करना सर्वथा असंभव हो जाता है, किसी भी कार्य को करने में स्वयं को अक्षम अनुभव करना तथा जगत् में किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न और उत्साह का न होना ये सब अप्रवृत्ति शब्द से सूचित किये गये हैं। शास्त्र विहित कर्मो की अवहेलना का और व्यर्थ चेष्टा का नाम प्रमाद एवम विवेकशक्ति की विरोधिनी मोहनी वृति का और निंद्रा का नाम मोह है। प्रमाद एक तरह से विक्षिप्त अवस्था है जिस में जीव मन के अनुसार आचरण करता है एवम बुद्धि एवम विवेक को भूल जाता है। प्रमाद में वो वह सब कार्य करता है जिसे बुद्धि, विवेक या ज्ञान रहते कोई नही करता एवम उस को अपने कृत्य पर कोई नियंत्रण भी नही रहता। इसलिये प्रमाद में वह आत्महत्या तक कर लेता है।
तमोगुण जब प्रभावशाली होता है तो मन ने लोभ, काम, क्रोध, वासना बढ़ने लगती है। किसी भी काम को टालने या दूसरों पर थोपने की आदत हो जाती है। मन हमेशा आमोद -प्रोमोद में लगा रहता है और दिन भर की व्यस्तता व्यर्थ के कामो में लगी रहती है। व्यक्ति स्वार्थ में भर कर उन लोगो के साथ जुड़ता है जिस से उस को कुछ भी भौतिक लाभ हो। उस का भाषा, ज्ञान एवम आचरण व्यर्थ एवम दिशाहीन हो जाता है जिस से वह घमंड में भर कर अवांछित कर्म भी करने लग जाता है और उसे के असत्य का सहारा ले कर व्यर्थ के तर्क एवम वाद विवाद करता है।
तमो गुण में सत्व गुण के तत्व यदि प्रभावशाली है तो वह जीव में उस का रजोगुण क्रियाशील बनाता है और वह एक कुटिल ज्ञानी व्यक्ति बन कर आश्रम चलाता है जिस का उद्देश्य मात्र ऐशो आराम करना होता है, उस को अनुचर भी मिल जाते है एवम उस की दिखावे में अध्यात्म एवम आचरण में काम, वासना एवम लोभ रहता है।
यदि तम गुण के प्राणी में रजगुण रहेंगे तो क्रियाशील एवम मेहनती तो होता है किंतु उस की सारी मेहनत जुए, वेश्यालय एवम शराब आदि में जाती है। वह अच्छा उद्योगपति, व्यापारी या उच्च पदाधिकारी होते हुए भी निम्न श्रेणी की क्रियाओं में जीवन व्यतीत करता है और समाज या लोकसंग्रह में उस का कोई योगदान नहीं होता।
तम गुण प्रकृति की निकृष्ट अवस्था है अतः जिस प्रकार पशु मन का दास हो कर जीवन व्यतीत करता है वैसे ही जीव भी मन का दास हो कर पशु के समान ही जीवन व्यतीत करता है।
तमो गुण में रजो गुण का प्रभाव हो तो ही रावण, कंस, दुर्योधन, हिटलर, तैमूर जैसे लोग पैदा होते है, क्योंकि कर्म की प्रबलता तमो गुण में नही होता।
जीव में यह तीनों गुण स्थायी नही है अतः बुद्धि से मन को नियंत्रित करते हुए ज्ञान की ओर प्रयास करे तो ही सत्वगुण की ओर बढ़ा जा सकता है। मन की अधोगति होती है, वो जीव को तम गुण अर्थात वर्जित कार्यो की ओर आकर्षित करता रहता है। उस मे आलस्य, प्रमाद एवम निंद्रा जीव को प्रकृति के बंधन में जकड़े रहने को मजबूर करती है क्योंकि यह सृष्टि जीव और प्रकृति का संयोग से है और प्रकृति माया द्वारा जीव को भ्रमित एवम मोह में रख अपना कार्य करती है। जीव का वास्तविक कार्य इस जन्म- मरण से मुक्त होना है, जिस से वह परब्रह्म में विलीन हो कर अपने स्वरूप को प्राप्त हो सके।
मोक्ष का मार्ग रजोगुण के निष्काम कर्मयोगी से हो कर सत्वगुण से हो कर वैराग्य की तरफ जाता है। इसलिये सृष्टि का दायित्व निभाने के लिये गृहस्थ, फिर सन्यास और अंत मे वानप्रस्थ की सामाजिक व्यवस्था है। गृहस्थ आश्रम प्रकृति के वैभव के सुख भोग के लिये, सन्यास निष्काम कर्मयोग के लिये एवम वानप्रस्थ ज्ञान मार्ग से वैराग्य एवम मोक्ष के लिये है।
चारो आश्रम मन-बुद्धि की अवस्था है, किसी को जंगल जाने की जरूरत नही। यदि 70 साल में भी काम मे लालायित है तो गेरुवे वस्त्र पहन कर भी कुकर्म होता है।
जीव यदि अनुशासित हो कर जीवन व्यतीत नहीं करता तो वो अपने कर्मो के द्वारा बंधन में फस कर पुनः जन्म को प्राप्त होता है।
त्रियामी प्रकृति में यह तीनों गुण जीव में हमेशा विद्यमान रहते है एवम इन की मात्रा भी समय समय पर जीव के चिंतन, कर्म एवम अभ्यास से बदलती रहती है। इसलिये कोई भी स्थिति स्थायी नही है, जीव का प्रकृति से प्राप्त शरीर नाशवान है यह उस को समझना चाहिये। यह तीनों गुण शब्द, आचरण एवम रहन सहन से प्रकट नही होते, तमोगुणी भी उच्च कोटि के शब्दों का प्रयोग करते हुए स्वयं को महान समझता है किंतु उस का अन्तःकरण उतना ही मलिन होता है, जो उसे अधम गति में ले जा सके। तीनो गुण के गुण दोषों को समझ कर मन- बुद्धि से विवेक द्वारा कार्य करना चाहिये, यही चेतन है जिस से चेतन्य जो अकर्ता एवम साक्षी है, प्रकृति से मुक्त हो सके।
व्यवहारिक जीवन में हम लोग जो जीवन व्यतीत करते है, उस को यदि ध्यान से देखे तो हम मुख्यत: अपना जीवन अपने दैनिक कार्य, आमोद – प्रमोद, व्यापार – व्यवसाय और रिश्तेदारी – मित्रो और समाज में व्यतीत कर देते है। जीवन का उद्देश्य अपने कार्य में पूर्ण दक्षता और लोकसंग्रह का जब तक पूर्ण न हो तो अंत में यह ही लगता है कि हम ने क्या पाया और क्या खोया। 84 लाख योनियों के बाद कर्म के अधिकार का अवसर यदि अनुद्देश्य हो कर गुजर जाए, तो यह ही तमो गुण का प्रभाव है। वक्त बीत जाने के बाद कलपने से अच्छा है, वक्त के रहते सही फैसला ले सके। किंतु जो पुस्तके और व्यक्ति हमारा मार्गदर्शन कर सकते है, वह यदि हमारी कामनाओ और आसक्ति के अनुकूल न हो तो बोझ लगने लगता है, यह ही तमो गुण का प्रभाव है। श्लोक में ‘च’ शब्द का प्रयोग इसलिए भी संभवत: किया गया होगा कि तमो गुण एक अवगुण के साथ नहीं आता है, वह अवगुणों के साथ आता है। एक लक्षण के पीछे अन्य लक्षण छुपे होते है।
गुण के प्रकार, प्रभाव और लक्षण बताने का उद्देश्य यही है, कि यह गुण दिखाई तो नही देते तो हमारी दिनचर्या, व्यवहार और कार्य प्रणाली में किस गुण का प्रभाव बढ़ रहा है उसे हम उस के प्रकार, प्रभाव और लक्षण से पहचान कर सतर्क हो जाए और सत्व गुण की ओर बढ़ते चले।
तात्कालिक बढ़े हुए गुणों की वृत्तियों का फल क्या होता है, इसे आगे के दो श्लोकों में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.13।।
।। प्रकृति के तीन गुणों की श्रेणियां – विशेष गीता 14.13 ।।
‘योगवासिष्ठ‘ भारतीय तत्त्वज्ञान के जिज्ञासुओं एवं साधकों के लिए एक अनुपम ग्रंथ है । यह ग्रंथ अखण्ड रामायण, महरामायण, वसिष्ठ रामायण आदि नामों से भी विख्यात है । इसे तत्त्वज्ञ महर्षि वाल्मीकि ने राजा अरिष्टनेमि को महर्षि वसिष्ठ और श्रीराम के संवादरूप में सुनाया था। इस के श्रवण से राजा अरिष्टनेमि जीवनमुक्त हो गये थे । इस ग्रंथ में आत्मा -परमात्मा, जीव- जगत, बन्धन- मोक्ष आदि गुह्य विषयों का अनेक कथानकों तथा दृष्टान्तों के द्वारा बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया गया है ।
इस में गुणों के आधार पर जीव की तेरह श्रेणियाँ बताई गई है; श्री वसिष्ठजी कहते हैं,
‘ श्रीराम! जीव तेरह श्रेणियों में विभक्त किये जाते हैं।
1. इदं प्रथम – जिस जीव को अपने पूर्वजन्म में शम, दम आदि समस्त साधन तथा गुण – सम्पत्ति प्राप्त होनेपर भी ज्ञान नहीं हुआ, वह जीव इस जन्म में ज्ञान-लाभ के योग्य बनकर उत्पन्न होता है, अतः यही उसका प्रथम जन्म है। इसलिए इस श्रेणी के जीव का यह जन्म इदंप्रथम नाम से विख्यात होता है।
2 जीव की दूसरी श्रेणी ” गुणपीवरी ” श्री वसिष्ठजी आगे कहते हैं – ‘ वही इदंप्रथमता यदि पूर्वजन्म में वैराग्य की कमी के कारण उत्तम लोकों की प्राप्ति के लिए किये गये शुभ कर्मों से संयुक्त हो और संसार- वासना के कारण भोग-व्यवहारवाली हो तो भोगों से वासना का क्षय होनेपर वह कुछ ही जन्मों में मोक्ष को प्राप्त करा देती है। अतः शान्ति आदि गुणों से युक्त होने के कारण इस जीव -जाति को गुणपीवरी कहते हैं।।’
3 जीव की तीसरी श्रेणी –
‘ ससत्वा – नाना प्रकार के सुख- दुःखरूपी फलों को देने में, पूर्वजन्म के पुण्य और पाप का अनुमान करानेवाली जो जीवों की श्रेणी है, उसे ससत्वा कहा गया है; क्योंकि वह सत्त्वगुण की वृद्धि के द्वारा मोक्ष की भागिनी होती है।।’
4 जीव की चौथी श्रेणी अधमसत्त्वा – ‘जो जीवश्रेणी पूर्वजन्म में संचित दुष्कर्म – जनित दुर्वासनाओं और सांसारिक वासनाओं से मलिन कलुषित हो गयी हो, वह सहस्त्रों जन्मों में ज्ञान की भागिनी की अधिकारी होती है। इसलिए साधु पुरुष उसे अधमसत्त्वा कहते हैं।। ‘
5 जीव की पांचवी श्रेणी -‘ अत्यंत तामसी – अधमसत्त्वा जीव, यदि अध्यात्म से विमुख होने के कारण, अनन्त जन्मों के पश्चात वर्तमान जन्म में भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाए, तो उसे अत्यंत तामसी कहते हैं । इस उत्पत्ति में अतीतकाल के लाखों जन्मों से लेकर भविष्य काल के लाखों जन्मों तक मोक्ष मिलने में सन्देह ही रहता है।। ‘
6 जीव की छठी श्रेणी – ‘ राजसी – जीव की जो उत्पत्ति पूर्वजन्म की वासनाओं के अनुरूप एवं वैसे ही आचार-व्यवहारवाली हो तथा दो – तीन जन्मों के अनन्तर जिसे मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ हो और वैसे ही कार्य कर रही हो, वह राजसी कहलाती है।। ‘
7 जीव की सातवीं श्रेणी राजस – सात्विकी -‘ जब जीव को ऐसी उत्पत्ति सुलभ हो जाती है, जिसके लिए ज्ञान- प्राप्ति के योग्य जन्म का मिलना दूर नहीं है; तब उस जन्म में मृत्यु होने से उसे मोक्ष- प्राप्ति की योग्यता आ जाती है। उस जन्म में उसके द्वारा वैसे ही कार्य होने से साधुओं ने उस अवस्था को राजस- सात्विकी कहिए है।। ‘
8 जीव की आठवीं श्रेणी – ‘ राजस- राजसी ‘ -‘वही उपर्युक्त उत्पत्ति (सातवें श्रेणी की) यदि पूर्वोक्त मनुष्य- जन्मों से भिन्न, थोड़े से ही (देवता आदि) जन्मों में क्रमशः ज्ञान प्राप्ति के द्वारा मोक्ष की भागिनी हो तो वैसी उत्पत्ति को राजस- राजसी कहते हैं।।’
9 जीव की नवीं श्रेणी ‘ राजस – तामसी ‘ -‘यदि राजस – राजसी की अपेक्षा चिरकाल में मोक्ष की इच्छा से संपन्न होकर सैकड़ों जन्मों के पश्चात मोक्ष- प्राप्ति की अधिकारिणी हो और ऐसे कार्य करे, जिनसे राजस और तामस कर्मजनित फलों की प्राप्ति हो तो वह जीवश्रेणी राजस- तामसी कही गयी है।। ‘
10 जीव की दसवीं श्रेणी ‘ राजस – अत्यंत – तामसी ‘ – ‘यदि वही उत्पत्ति ऐसे कार्य करे जिनसे सहस्त्रों जन्मों के पश्चात भी मोक्ष मिलने में सन्देह ही रहे, तो उसे राजस – अत्यंत – तामसी कहा गया है।।’
11 जीव की ग्यारहवीं श्रेणी ‘तामसी‘ – ‘सर्ग के आदि में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है। तभी से सहस्त्रों जन्मों के पश्चात भी यदि बहुत जन्मों के बाद चिरकाल में मोक्ष मिलने की सम्भावना हो तो महर्षियों ने उसे तामसी उत्पत्ति कहा है।। ‘
12 जीव की बारहवीं श्रेणी ‘तमोगुण राजसरूपिणी ‘ -‘वह तामस उत्पत्ति तमाम – राजस गुणों से सम्पन्न कतिपय जन्मों में ही जहाँ मोक्ष- प्राप्ति की सम्भावना हो, उसे तमो राजसरूपिणी कहते हैं।।’
13 जीव की तेरहवीं श्रेणी ‘ तामस -तामसी‘ – जो उत्पत्ति पहले के हजारों जन्मों से लेकर आगे होनेवाले सैकडों जन्मों तक मोक्ष – प्राप्ति की योग्यता से रहित हो, उसे विद्वानों ने तामस – तामसी कहा है।।’
प्रकृति के ये गुण प्रत्यक्ष नही दिखते अतः कोई किस गुण के प्रभाव में इसे पता करना तभी संभव है, जब जीव आत्मशुद्धि को प्राप्त हो। शंकराचार्य कहते हैं कि हमें अनुमान की आवश्यकता क्यों है? अनुमान की आवश्यकता है क्योंकि तीन गुण प्रत्यक्ष नहीं हैं। जहाँ प्रत्यक्ष काम नहीं करते, वहाँ अनुमान लगाना पड़ता है। यदि मैं अग्नि को नहीं देख सकता, तो मुझे अप्रत्यक्ष रूप से संकेतक तक जाना होगा और धुएँ के माध्यम से, मुझे अग्नि का अनुमान लगाना होगा, क्योंकि अग्नि दिखाई नहीं देती। इसी प्रकार मुझमें कौन सा गुण प्रबल है, मैं भौतिक आँखों से नहीं देख सकता, क्योंकि गुण अप्रत्यक्षत्वात। जहाँ भी प्रत्यक्ष प्रमाण काम नहीं करता, हमें संकेतों, संकेतकों की तलाश करनी होगी, और संकेतक लिंगम के विवरण हैं और इसलिए स्वयं का मूल्यांकन करें, पता लगाएँ कि आप कहाँ खड़े हैं और उचित साधना चुनें, कभी भी कोई जटिलता न पालें, कभी भी दूसरों के साथ अपनी तुलना न करें; आप वर्तमान में जो हैं, उससे खुश रहें और धीरे-धीरे प्रगति करें।
।। हरि ॐ तत् सत्।। गीता – विशेष 14.13 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)