।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.11 II
।। अध्याय 14.11 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.11॥
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥
“sarva- dvāreṣu dehe ‘smin,
prakāśa upajāyate..।
jñānaḿ yadā tadā vidyād,
vivṛddhaḿ sattvam ity uta”..।।
भावार्थ:
जिस समय इस के शरीर सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है। (११)
Meaning:
When luminous knowledge radiates through all gates of this body, then one should know that sattva has increased greatly.
Explanation:
What are the marks of sattva? Shri Krishna says that when we see radiance, or when we see knowledge radiating from a person, we should know that we are in the presence of a highly sattvic person. The word “dvaara” usually means door or gate, but here it refers to the sense organs, our doors to the world. Even though the sense organs are meant from receiving stimuli from the world, they can also convey our internal state to the world. Our eyes, especially, can give away our thoughts. If our mind is wandering, our eyes will also wander, for instance. In a sattvic person, radiance shines through the sense organs, especially the eyes.
With our sense organs, we gather the knowledge of the external world and when the sense organs are bright means active, we can acquire more knowledge accurate and properly and can do our sadhana.
Sādhanā means to fight with the flow of the three guṇas in the mind and force it to maintain the devotional feelings toward God and Guru. If our consciousness remained at the highest consciousness all day, there would be no need for sādhanā. Though the mind’s natural sentiments may be inclined toward the world, yet with the intellect, we must force it into the spiritual realm. Initially, this may seem difficult, but with practice it becomes easy. This is just as driving a car is difficult initially, but with practice it becomes natural.
Now, we should not think that a highly sattvic person will radiate beams of light from their body. But they do radiate calmness and peace. We can sense peace if we are near them or pick up on their calmness if we are watching them on a screen. Watch Dr. Jane Goodall speak about her efforts to save gorillas in Africa, and you will be drawn to the serenity on her face instantly. Such people harbour few, if any, selfish desires in their mind. This lack of dirt in the form of selfishness lets their inner radiance, the light of their eternal essence, shine through.
From our perspective, whenever we notice an increase in clear thinking, we should know that sattva is predominant in our mind. If we see fried food but the intellect prevents our hand from reaching to pick up that food, we are in a sattvic state. If our thoughts are towards the well-being of the family, our city or our nation, instead of just our narrow well-being, we are in a sattvic state. If our mind is sharp and alert, if we don’t let anything drop in our personal and professional lives, we are in a sattvic state.
।। हिंदी समीक्षा ।।
त्रियामी गुण प्रकृति है और यह देह भी प्रकृति है अतः यह देह सत्व गुण से युक्त तभी माननी चाहिये जब ज्ञान इंद्रियां, कर्म इंद्रियां, मन एवम बुद्धि सभी समान रूप से चेतना एवम विवेक उत्पन्न हो जाये। शरीर मे चेतना, हल्कापन तथा इन्द्रिय और अन्तःकरण में निर्मलता और चेतना की अधिकता हो जाना ही प्रकाश का उत्पन्न होना है एवम सत्य -असत्य तथा कर्तव्य -अकर्तव्य का निर्णय करने वाली विवेक शक्ति का जाग्रत हो जाना ज्ञान का उत्पन्न होना है।
अपनी इन्द्रियों से हम बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त करते हैं और जब इन्द्रियाँ उज्ज्वल अर्थात् सक्रिय होती हैं, तो हम अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, यथार्थ तथा उचित ढंग से साधना कर सकते हैं। साधना का अर्थ है मन में तीनों गुणों के प्रवाह से संघर्ष करना तथा उसे ईश्वर तथा गुरु के प्रति भक्ति भावना बनाए रखने के लिए बाध्य करना। यदि हमारी चेतना पूरे दिन उच्चतम चेतना में रहे, तो साधना की आवश्यकता ही नहीं होगी। यद्यपि मन की स्वाभाविक भावनाएँ संसार की ओर प्रवृत्त हो सकती हैं, फिर भी हमें बुद्धि द्वारा उसे आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवृत्त करना होगा। शुरू में यह कठिन लग सकता है, लेकिन अभ्यास से यह आसान हो जाता है। यह ऐसा ही है, जैसे कार चलाना शुरू में कठिन लगता है, लेकिन अभ्यास से यह सहज हो जाता है।
सत्व गुण वाचिक नही हो सकता, न ही कोई स्वांग रच कर इसे प्रदर्शित करे तो सत गुणी नही कहलाता। पांच ज्ञानेद्रिया, पांच कर्मेंद्रीय, मन, बुद्धि अहंकार समस्त स्वरूप जब तक सत्व गुण से ओत प्रोत नही होता, तब तक हमे यही समझना होगा, कि अच्छी बुरे विचारों पर प्रकृति का नियंत्रण है। नौ द्वार में आंख, कान, नाक के दो दो द्वार, मुख और गुदा के दो एवम त्वचा के रोम कूपों को कहा गया है। अर्थात मन, कर्म और वचन से जब तक व्यक्ति सत्व गुणी नही होता तत्व सत गुण की आभा उस के व्यक्तित्व से नही झलकती।
व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति सत्य और निस्वार्थ की बाते तभी तक करता है, जब तक उसे राजसी या तामसी प्रलोभन नही मिलता। सत्ता, सुरा और सुंदरी के प्रति त्याग तभी माना जाना चाहिए, जब आप के सामने निर्द्वंद उपलब्ध हो और आप उसे के प्रति वही भाव रखे, जो आप का उस के प्रति उपलब्ध होने से पूर्व सात्विक भाव था। रामायण में भरत का चरित्र पूर्णतः सात्विक था, क्योंकि राज्य मिलने के बाद भी उन्होंने राम के चरण कमल से अनुराग किया। तुलसीदास जी ने भरत के लिए कहा है
“भरतु हंस रबिबंस तडागा”
सत्व गुण के कारण प्रकाश एवम ज्ञान दोनों का प्रादुर्भाव होता है उस समय अपने आप ही संसार से वैराग्य हो कर मन मे उपरति और सुख शांति की बाढ़ सी आ जाती है; तथा राग-द्वेष, दुःख शोक, चिंता, भय, चंचलता, निंद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि का अभाव हो जाता है।
विवेक के बिना ज्ञान नहीं मिलता और विवेक के बुद्धि का विकास होना आवश्यक है, इसलिये सत्वगुण के अपेक्षा मनुष्य स्वरूप के ही संभव मानी जाती है और सत्व गुण से ही मोक्ष का द्वार खुलता है, इसलिये मनुष्य योनि श्रेष्ठ मानी जाती है। इस गुण के प्रादुर्भाव के बाद यदि सांसारिक सुख में यदि जीव नही जाता एवम वैराग्य को अपना लेता है तो मोक्ष को प्राप्त होता है।
कोई भी गुण आचरण, व्यवहार एवम वक्तव्य से नही माना जाता, यह अन्तःकरण की शुद्धता एवम विवेक के प्रकाश से प्राप्त होता है। यदि कोई ढोंगी प्रवचनों, अपने शरीर के साज सिंगार एवम अपने आस पास ढोंगी शिष्य एवम यज्ञ-पूजा पाठ से संसार को प्रभावित कर के सत्वगुणी होने को दिखाता है तो उसे तामसी गुण युक्त ही माना जाना चाहिये क्योंकि सत्वगुनी वैरागी है अतः इस संसार मे उस के गुण का प्रकाश स्वयं प्रकाशित होता है एवम उसे संसार की नहीं, संसार को उस के प्रकाश की आवश्यकता होती है।
सत्व गुण से उत्पन्न सुख भौतिक या सांसारिक न हो कर आध्यात्मिक होता है, यह अन्तःकरण का सुख है जिस में किसी वस्तु के खोने या पाने की लालसा नही रहती एवम जो है पर्याप्त है, जो हो रहा है वो प्रभु की इच्छा है एवम अभाव का भी अभाव या कष्ट का भी कष्ट न होने से उस का हृदय, आत्मा एवम मन प्रसन्न चित्त रहता है।
हमे यह ध्यान रखना होगा कि ज्ञानी पुरुष, भक्ति मार्ग के पुरुष या निष्काम कर्म योग के पुरुष के गुणों को हम ने जो पढ़ा, वह परिस्थिति सभी में समान रूप से जो दिखती है, उस का कारण भी उस के अंदर सत्व गुणों के प्रभाव का बढ़ना है।
त्रय गुण विचार में सूक्ष्म सेन्द्रिय सृष्टि शक्ति को हम ने जाना था, यही सेन्द्रिय शक्ति जब पूर्ण सात्विक प्रकाश से आभा प्रकट करती है तो, यह जीव के शरीर, आचरण और व्यवहार में प्रकट होने लगती है।
आगे रजो गुण के प्रभाव को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 14.11।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)