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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.09 II

।। अध्याय      14.09 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।

ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥

“sattvaḿ sukhe sañjayati

rajaḥ karmaṇi bhārata

jñānam āvṛtya tu tamaḥ

pramāde sañjayaty uta”

भावार्थ: 

हे अर्जुन! सतोगुण मनुष्य को सुख में बाँधता है, रजोगुण मनुष्य को सकाम कर्म में बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढँक कर प्रमाद में बाँधता है। (९)

Meaning:

Sattva binds through joy, rajas through action, O Bhaarata, while tamas cloaks knowledge and binds through heedlessness.

Explanation:

Shri Krishna recaps the characteristics of the three gunaas in this shloka. Sattva binds by making us hold on to joy experienced after attaining a sense object. Rajas binds us by giving us joy in performing actions and obtaining their results. Tamas binds us by giving us joy in holding on to laziness and heedlessness. Satva Guna is luminous, Rajo Guna is passionate, and Tamo Guna is captivating. We now begin to look into how these three are interrelated.

In the mode of goodness, the miseries of material existence reduce, and worldly desires become subdued. This gives rise to a feeling of contentment with one’s condition. This is a good thing, but it can have a negative side too. For instance, those who experience pain in the world and are disturbed by the desires in their mind feel impelled to look for a solution to their problems, and this impetus sometimes brings them to the spiritual path. However, those in goodness can easily become complacent and feel no urge to progress to the transcendental platform. Also, sattva guṇa illumines the intellect with knowledge. If this is not accompanied by spiritual wisdom, then knowledge results in pride and that pride comes in the way of devotion to God. This is often seen in the case of scientists, academicians, scholars, etc. The mode of goodness usually predominates in them, since they spend their time and energy cultivating knowledge. And yet, the knowledge they possess often makes them proud, and they begin to feel that there can be no truth beyond the grasp of their intellect. Thus, they find it difficult to develop faith toward either the scriptures or the God-realized Saints.

On other side, in the mode of passion, the souls are impelled toward intense activity. Their attachment to the world and preference for pleasure, prestige, wealth, and bodily comforts, propels them to work hard in the world for achieving these goals, which they consider to be the most important in life. Rajo guṇa increases the attraction between man and woman, and generates kām (lust). To satiate that lust, man and woman enter into the relationship of marriage and have a home. The upkeep of the home creates the need for wealth, so they begin to work hard for economic development. They engage in intense activity, but each action creates karmas, which further bind them in material existence.

The mode of ignorance clouds the intellect of the living being. The desire for happiness now manifests in perverse manners. For example, everyone knows that cigarette smoking is injurious to health. Every cigarette pack carries a warning to that extent issued by the government authorities. Cigarette smokers read this, and yet do not refrain from smoking. This happens because the intellect loses its discriminative power and does not hesitate to inflict self- injury to get the pleasure of smoking. As someone jokingly said, “A cigarette is a pipe with a fire at one end and a fool at the other.” That is the influence of tamo guṇa, which binds the soul in the darkness of ignorance.

Conversely, we can go from tamas to rajas to sattva, but it may take a little longer. For someone steeped in tamas, immersing themself in action will raise them to the level of rajas. When action becomes focused and directed towards the pursuit of a selfless goal, rajas is elevated to the level of sattva. Swami Vivekananda always used to say “awake, arise, stop not till the goal is reached”. When India was under British rule, many had become accustomed to this slavery and had fallen into a tamasic state. They could not find a way out of their predicament and were clouded in ignorance. Swami Vivekananda’s message urged citizens to engage in action towards independence. That was the only way to get them out of the tamasic state of laziness.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सत्व- रज- तम तीनो ही प्रकृति है जिन्हें हम ने अलग अलग गुणों के साथ जाना। सत्व- ज्ञान, ऐश्वर्य एवम वैराग्य द्वारा मोक्ष का मार्ग है, रज – आसक्ति, तृष्णा एवम संग के द्वारा कर्तृत्त्व भाव से कर्म का मार्ग है एवम तम- प्रमाद, आलस्य एवम निद्रा द्वारा भौतिक जीवन जीने की निकृष्ट अवस्था का मार्ग है। सत्व गुण प्रकाशात्मक है, रजो गुण रागात्मक है और तमो गुण मोहनात्मक है। यह तीनों गुण पृथक कभी नही रहते। इन की मात्रा भी अभी स्थिर नही रहती। जीव का व्यवहार उस समय जिस भी गुण का आधिक्य रहता है वैसा ही होता है। गुण प्रकृति के कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणोंसे सर्वथा रहित है। गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त, गुणातीत होता हुआ भी गुणों के द्वारा बँध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप का लक्ष्य रखने से ही साधक गुणों के बन्धन से छूट सकता है। परमात्मा यहां यह ही स्पष्ट करते है किस प्रकार गुण किस प्रकार जीव को प्रकृति के साथ बांध लेते है।

किसी भले काम का विचार आना सत्व की पहचान है, उस को क्रियान्वित करना रज गुण की पहचान है। किंतु करते करते बीच में आलस्य के कारण छोड़ देना तम गुण की पहचान है। व्यवहार में विवेक द्वारा हम अपने विचारो और कर्मो से यह जान सकते है कि हम को कुछ करने जा रहे है वह किस गुण से प्रभावित है। गुण मिश्रित भाव से भी कार्य करते है। इसलिए अनुगीता में मिथुन क्रिया में गुणों की स्थिति अर्थात आपस में गुत्थी हुई बताई गई है।

सत्त्वगुण साधक को सुख में लगा कर अपनी विजय करता है, साधक को अपने वश में करता है। तात्पर्य है कि जब सात्त्विक सुख आता है, तब साधक की उस सुख में आसक्ति हो जाती है। सुख में आसक्ति होने से वह सुख साधक को बाँध देता है अर्थात् उस के साधन को आगे नहीं बढ़ने देता, जिस से साधक सत्त्वगुण से ऊँचा नहीं उठ सकता, गुणातीत नहीं हो सकता । यद्यपि भगवान् ने पहले छठे श्लोक में सत्त्वगुण के द्वारा सुख और ज्ञान के सङ्ग से बाँधने की बात बतायी है, तथापि यहाँ सत्त्वगुण की विजय केवल सुख में ही बतायी है, ज्ञान में नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में साधक सुख की आसक्ति से ही बँधता है। ज्ञान होने पर साधक में एक अभिमान आ जाता है कि मैं कितना जानकार हूँ इस अभिमान में भी एक सुख मिलता है, जिससे साधक बँध जाता है। प्रकृति उसे भ्रमित कर के सत्वगुणी होने है बाद भी मुक्त नहीं होने देती।

सत्वगुण बुद्धि को ज्ञान से भी प्रकाशित करता है। यदि यह आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त नहीं होता तब ऐसे ज्ञान के फलस्वरूप अभिमान उत्पन्न होता है और यह अभिमान भगवान की भक्ति के मार्ग में बाधक बन जाता है। यह प्रायः वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों आदि में दिखाई देता है। उनमें सामान्य रूप से सत्वगुण की प्रधानता होती है क्योंकि वे अपना समय और ऊर्जा ज्ञान को पोषित करने में लगाते हैं। फिर भी वे जो ज्ञान अर्जित करते हैं वह प्रायः उन्हें घमण्डी बना देता है और वे यह अनुभव करने लगते हैं कि ज्ञान अर्जन करने से परे कोई सत्य नहीं है। इस प्रकार से इन्हें धार्मिक ग्रंथों और भगवद् अनुभूत संतों के प्रति विश्वास विकसित करना कठिन प्रतीत होता है। रजोगुण की प्रधानता जीवात्मा को अथक परिश्रम करने के लिए प्रेरित करती है। संसार के प्रति उनकी आसक्ति, अधिक सुख प्राप्त करने की प्राथमिकता, प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और शारीरिक सुख उन्हें संसार में कड़ा परिश्रम करने के लिए प्रेरित करते हैं ताकि वे उन लक्ष्यों और पदार्थों को प्राप्त कर सकें जिन्हें वे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं। अतः हम कह सकते है कि सत्व गुण शांति, निवृत्ति, वापसी, मौन की लत का कारण बनता है; मौन की लत भी लत का एक रूप है। तो सुखम का अर्थ है शांति, शांति, एकांत, आदि। तो सुख संघ बंधन का तरीका है।

रजोगुण मनुष्य को कर्म में लगा कर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्य को क्रिया करना अच्छा लगता है, प्रिय लगता है। जैसे छोटा बालक पड़े पड़े हाथ पैर हिलाता है तो उस को अच्छा लगता है और उस का हाथ पैर हिलाना बंद कर दिया जाय तो वह रोने लगता है। ऐसे ही मनुष्य कोई क्रिया करता है तो उस को अच्छा लगता है और उस की उस क्रिया को बीच में कोई छुड़ा दे तो उस को बुरा लगता है। यही क्रिया के प्रति आसक्ति है, प्रियता है, जिस से रजोगुण मनुष्य पर विजय करता है।  परमात्मा ने कहा भी है कर्मों के फल में तेरा अधिकार नहीं है, जिस से कर्म के प्रति आसक्ति कम हो, किन्तु अपने कर्मो को वो इतने कर्तव्यों एवम जरूरत से जोड़ लेता है कि कर्मों में आसक्ति न रखने की तरफ साधक का खयाल नहीं जाता।  जो योगारूढ़ होना चाहता है, उसके लिये निष्कामभाव से कर्म करना कारण है, आदि वचनों से यही समझ लेता है कि कर्म तो करने ही चाहिये। अतः वह कर्म करता है, तो कर्मों को करते करते उस की उन कर्मों में आसक्ति, प्रियता हो जाती है, उनका आग्रह हो जाता है। इसकी तरफ खयाल कराने के लिये, सजग कराने के लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि रजोगुण कर्म में लगाकर विजय करता है अर्थात् कर्मों में आसक्ति पैदा करके बाँध देता है। अतः साधक की कर्तव्य कर्म करने में तत्परता तो होनी चाहिये, पर कर्मों में आसक्ति, प्रियता, आग्रह कभी नहीं होना चाहिये।

रजोगुण पुरुष और स्त्री में आकर्षण बढ़ाता है और काम वासना उत्पन्न करता है। कामवासना की तुष्टि हेतु पुरुष और स्त्री वैवाहिक संबंध बनाते है और घर और गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। घर की देखभाल और रख-रखाव के लिए धन की आवश्यकता होती है इसलिए वे आर्थिक विकास के लिए कड़ा परिश्रम करते हैं। इस प्रकार से वे गहन गतिविधियों में संलग्न रहते हैं लेकिन प्रत्येक क्रिया कर्म उत्पन्न करती है जो उन्हें भौतिक अस्तित्व में बांधती हैं।

जबकि रजो गुण एक और तरह की लत का कारण बनता है: कर्म संगेण। इसलिए यह कर्म की लत का कारण बनता है, कर्म करना हानिरहित है, कर्म की लत समस्या है। मौन का आनंद लेना अद्भुत है लेकिन मौन की लत एक समस्या है। जैसे ध्यान अद्भुत है, लेकिन ध्यान की लत एक समस्या है। वास्तव में, वेदांत यह कहने की ऊंचाई तक जाता है कि शास्त्र की लत भी एक लत है। इसलिए यह मत कहो, मैं अब यह सब छोड़ दूंगा। हमने अभी तक कोई रुचि नहीं बनाई है। इसलिए हम कुछ समय बाद छोड़ने के बारे में सोच सकते हैं।

जब तमोगुण आता है, तब वह सत् असत्, कर्तव्य अकर्तव्य, हित अहित के ज्ञान (विवेक) को ढक देता है, आच्छादित कर देता है अर्थात् उस ज्ञान को जाग्रत् नहीं होने देता। ज्ञान को ढककर वह मनुष्य को प्रमाद में लगा देता है अर्थात् कर्तव्य कर्मों को करने नहीं देता और न,करने योग्य कर्मों में लगा देता है। यही उस का विजयी होना है। सत्त्वगुण से ज्ञान (विवेक) और प्रकाश (स्वच्छता) – ये दो वृत्तियाँ पैदा होती हैं। तमोगुण इन दोनों ही वृत्तियोंका विरोधी है, इसलिये वह ज्ञान(विवेक) को ढककर मनुष्य को प्रमाद में लगाता है और प्रकाश (इन्द्रियों और अन्तःकरण की निर्मलता) को ढक कर मनुष्य को आलस्य एवं निद्रा में लगाता है, जिस से ज्ञान की बातें कहने सुनने, पढ़ने पर भी समझ में नहीं आतीं। 

अज्ञानता का गुण मनुष्य की बुद्धि को आच्छादित कर लेता है और सुख की कामना अब विकृत रूप से प्रकट होती है। उदाहरणार्थ, हम सभी जानते हैं कि सिगरेट पीना या धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। सिगरेट के पैकेट पर सरकारी प्राधिकारियों द्वारा जारी आदेशानुसार चेतावनी लिखी होती है। धूम्रपान करने वाले उसे पढ़ते हैं किन्तु फिर भी धूम्रपान करना नहीं छोड़ते। ऐसा इसलिए होता है कि उनकी बुद्धि अपनी विवेक शक्ति खो देती है और धूम्रपान का आनन्द लेने के लिए वे स्वयं को हानि पहुँचाने में संकोच नहीं करते। किसी ने उपहास करते हुए कहा है-‘सिगरेट के एक छोर पर आग से सुलगी हुई पाइप है तथा उसके दूसरे छोर पर मूर्खता है।’ यही तमोगुण का प्रभाव है जो आत्मा को अज्ञानता के अंधकार में ले जाता है। इसी तरह, तमो गुण भी प्रमाद से बांधता है, कैसे? जैसा कि हमने पहले देखा है लापरवाही है। ध्यान की कमी। इसलिए कोई भी काम पूरे मन से नहीं किया जाता है, जो भी काम करता है, उसमें गलतियाँ होती हैं, सुधार की आवश्यकता होती है। इसलिए प्रमाद या निद्रा एक संघ की तरह है, जो व्यक्तित्व के विकास को विभिन्न बुराइयों के साथ पूरी तरह भटका कर रोक देता है।

प्रकृति त्रियामी गुण है जिसे माया भी कहते है। जीव जब प्रकृति से संयोग करता है तो प्रकृति जो स्वयं क्रियाशील नही हो सकती, क्रियाशील हो जाती है। चेतन या गति जैसे रोबोट, मोटर या विद्युत आदि भौतिक गुणों से कारण करते है किंतु आत्म बोध जिस से होता है वो तो जीव ही है, इसलिये प्रकृति सरलता से जीव को बंधन से मुक्त नहीं करती। उस की बंधन की यह क्रिया ही प्रकृति की व्यावसायिक बुद्धि कहलाती है। इस को प्रकृति प्रदत बुद्धि से जानना आवश्यक है, अन्यथा सात्विक होने के बाद भी प्रकृति का बंधन रहेगा।

एकएक गुण मनुष्य पर कैसे विजय करता है – इस को आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.09।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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