Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.05 II Additional II

।। अध्याय      14.05 II विशेष II

।। प्रकृति त्रय गुण विचार -1 ।। गीता – विशेष 14.05 ।।

श्लोक 3 के विशेष में हम ने प्रकृति के विकास का अध्ययन किया था। सांख्य के अनुसार प्रकृति अव्यक्त और सूक्ष्म है। किंतु यह प्रकृति जब अपने तीनो गुणों (सत, रज और तम) के परस्पर न्युनाधिकता के कारण प्रकट होती है तो इसे हम व्यक्त भी कहते है। अतः जहां अव्यक्त प्रकृति इंद्रिय गोचर नही हैं, वहा व्यक्त प्रकृति इंद्रिय गोचर है और हम इसे देख कर, सुन कर, चख कर, सूंघ कर या फिर स्पर्श कर के पहचान सकते है। व्यक्त प्रकृति को हम दो भागो में विभाजित कर सकते है।

1) स्थूल; जैसे पत्थर, पेड़, पशु आदि।

2) सूक्ष्म: जो व्यक्त तो है किंतु दिखाई न दे, जैसे मन, बुद्धि, आकाश आदि। किंतु इंद्रिय गोचर अवश्य है।

वायु अत्यंत सूक्ष्म होने के साथ व्यक्त भी है, क्योंकि उस को हम स्पर्श से महसूस भी कर सकते है। अतः सूक्ष्म का अर्थ स्थूल के विरुद्ध ही लेना चाहिए। व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही सूक्ष्म और स्थूल हो सकते है।

अतः सूक्ष्म का ज्ञान इंद्रियों से हो भी सकता है और नही भी। यही इंद्रियों से ज्ञान होता है तो व्यक्त है और नही होता तो अव्यक्त है। इसलिए प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म किसी प्रकृति विशेष की शारीरिक रचना को बताते है और व्यक्त और अव्यक्त उस वस्तु के इंद्रिय गोचर होने हो बताते है। अतः प्रकृति वैसे तो अव्यक्त ही है किंतु व्यक्त पदार्थो के अवलोकन से हम यह कह सकते है कि वह सूक्ष्म रूप से कुछ न कुछ मात्रा में व्यक्त भी है।

सत, रज और तम के तीन गुणों में साम्य अवस्था में रहने वाली प्रकृति जब धीरे धीरे खुलती है, तो इस के गुणों में हलचल शुरू हो जाती और सृष्टि का निर्माण शुरू होता है।

किसी को भी कार्य करने के लिए बुद्धि अर्थात विचार या इच्छा करनी होती है। यहां तक कि मूल परमब्रह्म में भी एक से अनेक होने की बुद्धि अर्थात इच्छा उत्पन्न हुई जिस के कार्य स्वरूप सृष्टि का निर्माण हुआ। इसी प्रकार साम्य अवस्था में प्रकृति में अव्यक्त से व्यक्त सृष्टि के निर्माण की इच्छा उत्पन्न हुई और फिर उस ने यह सारा पसारा  फैलाना शुरू कर दिया। क्योंकि पुरुष चेतन है इसलिए उसे अपनी इस व्यवसायिक बुद्धि का ज्ञान रहता है किंतु प्रकृति जड़ है तो उसे अपनी इस बुद्धि का ज्ञान भले ही न हो, किंतु बिना प्रेरणा या बुद्धि के कोई कार्य संभव ही नहीं। अतः प्रकृति की बुद्धि अचेतन की बुद्धि अर्थात स्वयं को ज्ञात न होने वाली कह सकते है। इसी बुद्धि का एक नाम महत्त भी है। महत्त नाम भी इसलिए दिया गया, की अब प्रकृति अपना विस्तार शुरू करने वाली है। जिस का पहला विस्तार सत्व, रज और तम के मिश्रण का है। अतः ये तीनों प्रकृति के गुण नहीं, स्वयं ही विस्तृत प्रकृति है।

प्रथम दृष्टि से बुद्धि गुण सत्व, रज और तम यद्यपि तीन ही है, किंतु विचार दृष्टि से इन के मिश्रण में प्रत्येक गुण का परिमाण अनंत रीति से भिन्न भिन्न हुआ करता है और इसी लिए इन तीनों में से प्रत्येक गुण के अनंत भिन्न परिमाण से उत्पन्न होने वाली बुद्धि के प्रकार भी त्रिघात अनंत हो सकते है।

व्यवहार और विज्ञान में भी हम किसी वस्तु, विचार, कार्य या उपलब्धि आदि का वर्गीकरण हम दो भाग में करते है, शुद्ध या निकृष्ट, उपयोगी या बेकार, उत्तम या व्यर्थ आदि। इन दोनो  के मध्य की स्थिति वह होगी जिस में शुद्ध और निकृष्ट की अलग अलग मात्रा होगी। पहली अवस्था को सत की है और विपरीत अवस्था तम की माने तो इन दोनो के मध्य की अवस्था रज कहलाएगी। गुण के मापदंड शास्त्रों में दिए आधार पर करते है, जिन्हे हम विस्तार से आगे पढ़ेंगे। किंतु प्रकृति क्रियाशील होने से ये गुण  शुद्ध से निकृष्ट तक किसी भी मात्रा में प्रकृति के प्रत्येक वस्तु में मिलेंगे। जो जीव को प्रभावित करते रहते है या जीव स्वयं अपने राग – द्वेष, लोभ, कामना, मोह, क्रोध आदि भावनाओ से प्रभावित होता रहता है।

प्रस्तुत सिद्धांत गुणा गुणेषु वर्तन्ते गीता के अध्याय 3 के श्लोक 28 का विस्तार है जो यह बतलाता है, गुणों का विकास या ईसाई धर्म का गुणोत्कर्ष जो यह तत्व प्रकृति के अव्यक्त से व्यक्त होने का सांख्य, वेदांत और गीता को भी मान्य है।

अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त व्यवसायिक बुद्धि उत्पन्न हो जाने बाद भी प्रकृति की एकता बनी रहती है। अतः इस एकता को भंग करने के लिए बुद्धि के बाद अहंकार का गुण पैदा होता है। अहंकार का अर्थ ही है भिन्नता। अर्थात मैं और तू। इसलिए पृथकता को व्यक्त मैं – तू में कहा जाता है। अहंकार को अस्वयंवैद्य अर्थात जिस में अहंकार हो, उसे अपने इस गुण के होने का पता नही चलता। यह अहंकार जड़ अर्थात पत्थर, पेड़, पौधों, जीव और मनुष्य आदि सभी में होता है, किंतु चेतन प्राणी इसे व्यक्त कर सकता है और जड़ इसे व्यक्त नही कर सकता। इसी अहंकार को तेजस, अभिमान, भूतादि और धातु भी कहते है।

सांख्य के अनुसार अहंकार बुद्धि के बाद का दूसरा गुण है, अतः सात्विक, राजसी और तामसी गुणों के विभिन्न मिश्रण से अहंकार के भी बुद्धि के अनुसार अनंत प्रकार हो सकते है तथा अहंकार बुद्धि के बाद का गुण है, इसलिए बुद्धि उत्पन्न न होगी तो अहंकार भी उत्पन्न नहीं होगा।

अहंकार से प्रकृति में पृथकत्व आता है, किंतु प्रकृति अभी भी सूक्ष्म स्वरूप में रहती है। किंतु इस की एकता भंग हो जाने से इस से अनेक पदार्थ बनने लगते है अर्थात अहंकार से मूल और अवयव रहित प्रकृति में इन गुणों के प्रादुर्भाव से विविध और अवयव सहित  द्रव्यात्मक व्यक्त रूप प्राप्त होने लगता है।

प्रकृति के अगले सूक्ष्म से स्थूल के विस्तार को आगे की कड़ी में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता – विशेष भाग 1 – 14.05 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply