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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.02 II

।। अध्याय      14.02 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.2

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥

‘idaḿ jñānam upāśritya,

mama sādharmyam āgatāḥ..।

sarge ‘pi nopajāyante,

pralaye na vyathanti ca”..।।

भावार्थ: 

इस ज्ञान में स्थिर होकर वह मनुष्य मेरे जैसे स्वभाव को ही प्राप्त होता है, वह जीव न तो सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उत्पन्न ही होता हैं और न ही प्रलय के समय कभी व्याकुल होता हैं। (२)

Meaning:

Those who have taken refuge in this knowledge, and have attained identity with me, are not born even during creation, and not afflicted during dissolution.

Explanation:

Shree Krishna assures Arjun that those who equip themselves with the knowledge he is about to bestow will no longer have to accept repeated confinement in a mother’s womb. They will also not be obliged to stay in a state of suspended animation in the womb of God at the time of the universal dissolution or be reborn along with the next creation. The three guṇas (modes of material nature) are indeed the cause of bondage, and knowledge of them will illumine the path out of bondage.

Life on earth for specific purposes, means for secrificing for nature and living being. And the supreme knowledge is for liberalisation. What is jīvanmukti and what is vidēhamukti i.e. liberalisation?

Jivanmukti means by taking recourse to this knowledge; by acquiring this knowledge, the seekers have attained oneness with me. They have also attained Īśvara svarūpam, dropping their jīvātman. First indication of jīvanmukti is total inner sense of self- sufficiency. Not missing anything in life.

The second feature or glory of Bhagavān is abhāya svarūpaḥ. Bhagavān is free from the sense of insecurity. whereas Jiva is full of insecurity feeling and by acquiring knowledge, the knowledge (jñānam) will remove the sense of insecurity.  Vidēhamuktiḥ means freedom from punarjanma or reincarnation.

Actors who work in the daily soap opera world lead interested lives. If an actor is selected to play a part in a well- established and long running soap, they are overjoyed since their career has just skyrocketed. But once the actor is selected, they are afraid when they read each day’s script, since their role can be killed off at any time by the director. The director and actor have two different visions. The director is concerned with moving the story forward, whereas the actor is concerned with preserving his role.

Now, if we identify with the various roles or the various parts that we play each day, we will face a fate similar to that of the actor. We experience birth and death every day, every minute, throughout our lives. When we get a new job, for instance, a new “senior manager of marketing” is born. When we lose that job, that senior manager “dies”. If a marriage happens in the family, several new “in-laws” are born. If something goes wrong in that marriage, all those in- laws “die”. If something makes us angry, an angry man is born, and will die in a short while once the anger dissipates. Birth and death are part and parcel of Prakriti’s functioning.

Shri Krishna urges us to identify with Ishvara so that we are not disturbed or agitated when any kind of birth or death, even that of our own body, occurs. If the actor has the same vision as the director, he will take the end of his role in good stead and go on to do a wonderful job in his next assignment. If we have removed our ignorance through knowledge, if we have realized our true nature as identical to that of Ishvara, we will see things from Ishvara’s perspective and stop identifying with the ups and downs experienced by our body.

How exactly does this creation, this birth take place? Shri Krishna explains next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इस ज्ञान की महिमा से पूर्व हमे पुनः याद करना होगा कि ब्रह्मा के दिन एवम रात से प्रकृति का सर्ग एवम विसर्ग होता है। हम ने यह भी पढ़ा कि अच्छे कर्मों के फल स्वरूप जीव मृत्यु के बाद कर्मानुसार फल भोगने स्वर्ग आदि विभिन्न लोको में जाता है एवम पुनः जीवन को प्राप्त करता है।

इसी प्रकार प्रलयकाल में भी जीव के कर्म बीज रहते है जो प्रलय काल की समाप्ति है बाद जब सृष्टि का उद्गम होता है, तो जीव को इस लोक में कर्म फल हेतु पुनः जीवित करता है। अतः जब तक कर्तृत्त्व भाव है तब तक कर्म फल भी है और जब तक कर्मफल है, परम गति हो सकती है किंतु आवागमन से मुक्ति नहीं हो सकती।

श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि वे जो ज्ञान प्रदान करेंगे और जो उस ज्ञान को अपने भीतर समाहित कर लेंगे उन्हें पुनः मां के गर्भ में कारावास का दुख सहन नहीं करना पड़ेगा। वे सार्वभौमिक प्रलय के समय भगवान के उदर में प्रसुप्त जीवंत अवस्था में भी नहीं रहें  न ही अगले सृष्टि चक्र में वे पुनः जन्म लेंगे। वास्तव में प्राकृत शक्ति के तीनों गुण बंधन का कारण हैं और इनका ज्ञान बंधनों से मुक्ति पाने का मार्ग प्रशस्त करता है।

परमात्मा का कहना है जो जिस भाव से इस संसार मे निर्लिप्त, निर्द्वन्द एवम अकर्ता हो कर कर्म करता है एवम अपने को साक्षी एवम दृष्टा मानता है वैसा ही उस का आश्रय ले कर यदि जीव भी कर्म करे तो जीव भी परमात्मा का ही अंश है, अतः वह किसी भी कर्म फल का भागी नही होता एवम जन्म मरण से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त करता है।

पृथ्वी पर जीवन का अर्थ है विशिष्ट उद्देश्यों के लिए, प्रकृति और जीव के लिए त्याग करना। और परम ज्ञान है उदारीकरण। जीवनमुक्ति क्या है और विदेहमुक्ति यानी उदारीकरण क्या है?

जीवनमुक्ति का अर्थ है इस ज्ञान का आश्रय लेकर, इस ज्ञान को प्राप्त करके, साधकों ने मेरे साथ एकता प्राप्त कर ली है। उन्होंने अपने जीवात्मा को त्यागकर ईश्वर स्वरूप को भी प्राप्त कर लिया है। जीवनमुक्ति का पहला संकेत है आत्म-पर्याप्तता की पूर्ण आंतरिक भावना। जीवन में किसी भी चीज़ की कमी न होना।

भगवान की दूसरी विशेषता या महिमा है अभय स्वरूपः। भगवान असुरक्षा की भावना से मुक्त हैं। जबकि जीव असुरक्षा की भावना से भरा हुआ है और ज्ञान प्राप्त करने से, ज्ञान (ज्ञानम) असुरक्षा की भावना को दूर कर देगा। विदेहमुक्ति: का अर्थ है पुनर्जन्म से मुक्ति।

इस अध्याय में उपदिष्ट ज्ञान की महत्ता सैद्धान्तिक दृष्टि से उतनी अधिक नहीं है, जितनी कि साधना में उसके द्वारा होने वाले लाभ से है। इस अध्याय के गम्भीर अभिप्रायों को सम्यक् रूप से जानने वाला साधक पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त होता है। भगवान् कहते हैं, वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। गीता में, भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक पूर्णत्व की दृष्टि से ही करते हैं। इस अध्याय का विषय उन गुणों की क्रीड़ा का अध्ययन करना है, जो हमें उपाधियों ओर अहंभाव के साथ बांध देते हैं। यदि एक बार हम उनसे मुक्त होकर अपने मन पर होने वाले उनके प्रभाव को समाप्त कर दें, तो तत्क्षण ही जीव भाव से मुक्त होकर हम अपने पारमार्थिक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं।

जब आत्मा प्रकृति में या शरीर मे बद्ध रहता है तब उसे क्षेत्रज्ञ या जीवात्मा कहते है; और वही प्राकृत गुणों से यानि प्रकृति या शरीर के गुणों से मुक्त होने पर परमात्मा कहलाता है।

ज्ञान को प्राप्त करने के बाद दो स्थिति है, प्रथम ज्ञानी के समान हो जाना द्वितीय स्वयं ज्ञानी हो जाना। प्रकृति और पुरुष में प्रकृति अर्थात क्षेत्र को समझने से ज्ञान तो प्राप्त होता है किंतु वह ज्ञान मोक्ष का ज्ञान नहीं है। इसलिए प्रकृति के त्रियामी गुणों के ज्ञान को प्राप्त करने से पुरुष और परमात्मा में भेद का अभाव मिट जाता है। यह सृष्टि प्रकृति की योगमाया अर्थात त्रय गुणों से रची है, जो इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता, तो तीनो गुणों को जान कर उस से ऊपर उठ जाता है तो उस का सर्ग – विसर्ग में किसी भी कर्म के बंधन न होने से जन्म नही होता।

साधर्म्यमागताः शब्द का उपयोग ब्रह्म के स्वरूप होने के लिए किया गया है क्योंकि गीता क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म में भेद नहीं करती। वेदांत के अनुसार संपूर्ण प्रकृति के गुणों को वश में करने गुणातित हो कर ब्रह्म के समान होता है, क्योंकि परब्रह्म तो एक ही है, अन्य कोई ब्रह्म नही हो सकता।

स्वप्नद्रष्टा को स्वप्नावस्था में सत्य प्रतीत होने वाले दुख जाग्रत् अवस्था में असत् हो जाते हैं। नियम यह है कि एक अवस्था के सुखदुखादि अनुभव अन्य अवस्था में प्रभावशील नहीं होते हैं। अत, आत्म अज्ञान की अवस्था का उपाधि तादात्म्य तथा तज्जनित संसार का बन्धन जीव को ही सत्य प्रतीत होता है आत्मज्ञानी पुरुष को नहीं। ज्ञानी पुरुष अपने उस सर्वत्र व्याप्त सत्यस्वरूप को पहचानता है, जिसकी न उत्पत्ति है और न प्रलय। इसे यहाँ एक वाक्य से इंगित किया गया है, वे सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते हैं सृष्टि मन का एक खेल है। जब हम मन से तादात्म्य नहीं करेंगे, तब हम उससे अविच्छिन्न भी नहीं होंगे, और इस प्रकार हमें सृष्टि का कोई अनुभव भी नहीं होगा। 

जब तक हम मन में ही डूबे रहेंगे तब तक उसके क्षोभ से उद्वेलित भी होते रहेंगे। मन से अतीत अर्थात् मुक्त होने पर शुद्ध आत्मा में कोई सृष्टि नहीं है, तब हमें जन्म का अनुभव कैसे हो सकता है और उस स्थिति में प्रलय से भय कैसा वह पूर्ण मुक्ति की स्थिति है। परन्तु अपने मन पर विजय पाने के लिये, साधक को मन की उन युक्तियों (योजनाओं) का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है, जिनके द्वारा यह प्राय उसे छलता रहता है।

श्रीकृष्ण जो भी शिक्षा प्रदान करना चाहते है उसके संबंध में वे बार-बार उसके परिणामों की उद्घोषणा करने की रणनीति का प्रयोग करते हैं ताकि उनके विद्यार्थी उसमें तन्मयता से मगन हो जाएँ। ‘न व्यथन्ति’ शब्द का अर्थ ‘वे दुख का अनुभव नहीं करेंगे’ है। ‘साधर्म्यमागताः’ शब्द का तात्पर्य यह है कि वे स्वयं भगवान जैसी ‘दिव्य प्रकृति प्राप्त कर लेते है।’ जब आत्मा प्राकृत शक्ति के बंधन से मुक्त हो जाती है तब वह भगवान की दिव्य शक्ति ‘योगमाया’ के प्रभुत्व में आ जाती है। यह दिव्य शक्ति उसे भगवान के दिव्य ज्ञान, प्रेम और आनन्द से युक्त कर देती है जिसके फलस्वरूप जीवात्मा भगवान के समान बन जाती है और भगवान जैसे गुण प्राप्त कर लेती है।

जो भगवान् की सधर्मता को प्राप्त हो जाते हैं, वे तो महासर्गमें भी पैदा नहीं होते परन्तु जो प्राणी महासर्गमें पैदा होते हैं, उनके उत्पन्न होने की क्या प्रक्रिया है – इस को आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 14.02।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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