Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.35 II

।। अध्याय      13.35 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.35॥

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥

“kṣetra-kṣetrajñayor evam,

antaraḿ jñāna- cakṣuṣā..।

bhūta- prakṛti- mokṣaḿ ca,

ye vidur yānti te param”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य इस प्रकार शरीर और शरीर के स्वामी के अन्तर को अपने ज्ञान नेत्रों से देखता है तो वह जीव प्रकृति से मुक्त होने की विधि को जानकर मेरे परम-धाम को प्राप्त होता हैं। (३५)

Meaning:

Those who, by the eye of wisdom, perceive the distinction between the field and its knower in this manner, and relinquishment from the cause of all beings, they attain the supreme.

Explanation:

After having understood the true nature of the self, the nature of the ignorance we are in, and also having understood the method of how to remove this ignorance, what is the result? Shri Krishna concludes this chapter by asserting that the one who has removed his ignorance through knowledge attain the supreme, which is moksha or liberation from the cycle of Prakriti’s creation and dissolution. The key to understanding this chapter is “viveka”, or discrimination, which was hinted at the beginning of this chapter by the words “idam shareera” or “this body”.

True knowledge is to know the distinction between the material kṣhetra (field of activity) and the spiritual kṣhetrajña (knower of the field).  Those possessing such discriminative knowledge do not look upon themselves as the material body.  They identify with their spiritual nature as souls and tiny parts of God.  Hence, they seek the path of spiritual elevation and release from material nature.  Then, by treading on the path of spiritual enlightenment, such persons of wisdom attain their ultimate goal of God- realization.

One is cētanam, another is acētanam; sentient; and insentient; one is nirguṇam another is saguṇam; one is attributeless; the other is attributed; one is means which one; consciousness is attributeless; matter is attributed. Nirvikāram- Savikāram, Consciousness is changeless; matter is ever changing.

And Krishna wants to emphasise the fourth difference in this sloka, which is the most important and technical difference.

Cētanam- acētanam, nirguṇam- saguṇam, Nirvikāram- Savikāram and fourth is Sathyam and mithya.

Consciousness alone exists independently; matter cannot exist independently. So consciousness has got intrinsic existence; matter has got only borrowed existence. Just as the cinema screen exists independent of the movie; but movie characters cannot exist, independent of the screen.

Take the case of a forensic investigator who is hired to detect counterfeit currency notes. On the first day of his job, he will not be able to spot the difference between a fake note and a genuine note. After learning about the visual differences between what’s fake and what’s genuine, and after practising to spot those differences over a period of time, his eye will begin to see minute details that the average eye cannot see. This ability to separate the real from the unreal is discrimination, which is the “eye of wisdom” mentioned in the shloka.

So then, the one who knows how to conduct his life in a manner such that he can distinguish between the unreal aspects and the real aspects, between the field and its knower, between Purusha and Prakriti, and learn to see the imperishable in the perishable as Ishvara, such a person is freed of the mechanisms of Prakriti, the cause of all beings. This is the goal of jnyaana yoga, which is summarized in the thirteenth chapter of the Gita. We will be able to attain this goal if we bring this teaching into our lives through constant reflection and meditation.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सारे अध्याय के अर्थ का उपसंहार करने के लिये यह श्लोक ( कहा जाता है ), जो पुरुष शास्त्र और आचार्य के उपदेश से उत्पन्न आत्म साक्षात्कार रूप ज्ञान नेत्रों द्वारा, पहले बतलाये हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को,  उन की पारस्परकि विलक्षणता को, इस पूर्वदर्शित प्रकार से जान लेते हैं और वैसे ही अव्यक्त नामक अविद्यारूप भूतों की प्रकृतिके मोक्ष को, यानी उस का अभाव कर देने को भी जानते हैं, वे परमार्थतत्त्वस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं, पुनर्जन्म नहीं पाते।

प्रकृति अर्थात क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) और आत्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ (क्षेत्र का ज्ञाता) के अंतर को जानना ही सच्चा ज्ञान है। जो इस भिन्नता के ज्ञान से सम्पन्न हो जाते हैं वे स्वयं को भौतिक शरीर के रूप में नहीं देखते। वे अपनी पहचान आध्यात्मिक प्रकृति के साथ और भगवान के अणु अंश के रूप में करते हैं इसलिए वे आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग की खोज करते हैं और माया शक्ति के बंधन से मुक्त हो जाते हैं फिर आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चलकर ऐसे बुद्धिमान मनुष्य भगवद प्राप्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

ज्ञान जो हमे गुरु एवम पुस्तके देती है, यदि हम अपने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के भेद को तत्वदृष्टि जानने की चेष्टा करते है तो हम पाएंगे कि जिस प्रकृति दृश्यमान को हम देखते है उस की कोई अपनी सत्ता नही है। यह जो कुछ भी करती है उस का आश्रय क्षेत्रज्ञ अर्थात चेतन ही है। इसी को जानना एवम मनन द्वारा अनुभव करना ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है।ज्ञान का अर्थ है जिस को जानने के बाद कुछ और जानना शेष नहीं रहता। क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही वह ज्ञान है जिस को जानने के बाद कुछ शेष नहीं रहता।

ज्ञान के तीन मार्ग जीव अपने प्रयास से प्राप्त कर सकता है, यह – ज्ञानयोग, ध्यान-योग एवम निष्काम कर्मयोग सन्यास मार्ग है किंतु इन तीनों मार्ग में कठिन अभ्यास एवम अज्ञान के अध्यास की आवश्यकता है। मोक्ष का अधिकार प्रत्येक प्राणी का है, इसलिए जो इस मार्ग से नही चल सकते, उन के लिए भक्ति मार्ग है, अतः जिसे योग की प्राप्ति हो तो जिसे यह ज्ञान है, उस की बात सुनो और अपने को उस पर विश्वास एवम श्रद्धा से तैयार करो। परमात्मा पर श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण और समर्पण करने वाले को परमात्मा उस के योगक्षेम को वहन करते है और उस को ज्ञान प्रदान करते है।

यह अध्याय ज्ञान योग का ही है, इसलिये क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के “ज्ञानचक्षुषा”  अर्थात ज्ञान की आंखों से जानना। भौतिक आंखों से जो देखा नही जा सकता एवम समझा नहीं जा सकता उस के अंतर्मन के ज्ञान की आंखे चाहिए।  यह ठीक वैसा ही है जैसा भक्तियोग में परमात्मा के दर्शन के भौतिक आंखे काम नही करती, उस के लिये दिव्य दृष्टि की जरूरत होती है। यह भी समझ लेना आवश्यक है नवम अध्याय में जिस राजविद्यागृहयोग का हम ने अध्ययन किया था, वह भौतिक चक्षुओं से ही प्राप्त की जाती है।

परमात्मा से जीव  की उत्पत्ति  —

श्री वसिष्ठजी श्रीराम से कहते हैं  – ‘ श्रीराम  ! यह जो सर्वव्यापी , स्वयंप्रकाश  , आदि – अन्त  से रहित  , सबका महान ईश्वर  , स्वानुभवानन्दस्वरूप , शुद्ध  , सच्चिदानंदघन परमात्मा है  , इसी से पहले जीव उत्पन्न हुआ है । वही उपाधि की प्रधानता से चित्त कहलाता है और चित्त से यह जगत उत्पन्न हुआ है । परब्रह्म का चेतन अंश , जो स्वभावतः  प्राण धारण करनेवाला अर्थात स्पन्दनशील है , वह जीव कहलाता है ।। ‘

एक है चेतना, दूसरा है अचेतन; चेतन; और अचेतन; एक है निर्गुण; दूसरा है सगुण; एक है निर्गुण; दूसरा है गुणवाचक; एक है अर्थात् कौन; चेतना निर्गुण है; पदार्थ है गुणवाचक। निर्विकारम्-सविकारम्, चेतना अपरिवर्तनशील है; पदार्थ सदैव परिवर्तनशील है।

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में चौथे अंतर पर जोर देना चाहते हैं, जो सबसे महत्वपूर्ण और तकनीकी अंतर है। चेतनाम- अचेतनम, निर्गुणम- सगुणम, निर्विकारम- सविकारम। और चौथा है सत्यम और मिथ्या। चेतना ही स्वतंत्र रूप से मौजूद है, पदार्थ स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं हो सकता। इसलिए चेतना का आंतरिक अस्तित्व है, पदार्थ का केवल उधार अस्तित्व है। जैसे स्क्रीन फिल्म से स्वतंत्र रूप से मौजूद है, लेकिन फिल्म के पात्र स्क्रीन से स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं हो सकते।

यह मिथ्यात्व पुरुष या प्रकृति क्या है? या इसे भूतप्रकृति कहे तो प्रकृति के साथ-साथ अन्य जड़ वस्तुओं और प्राणियों का मिथ्यात्व मान सकते है। तो भूतप्रकृति मोक्षं या पदार्थ का मिथ्यात्व, जिस में अप्रत्यक्ष रूप से चेतना का सत्यत्व भी शामिल है। जो लोग अहं सत्यं जगन मिथ्या को पहचानते है और वे ही अहम को त्याग कर मुझे प्राप्त होते है। अर्थात इस यूं भी समझ सकते है कि जीव का संयोग परब्रह्म से छिटक कर महंत से होता है तो उस में बुद्धि, मन और पंच महाभूतो से यह शरीर बनता है। अतः ज्ञान का साधन प्रकृति प्रदत्त बुद्धि ही है और अज्ञान भी विवेकहीन बुद्धि से उत्पन्न होता है। इसलिए जब जीव सतगुणों से युक्त बुद्धि से साधना करता है तो ही उसे ज्ञान होता है कि यह जगत मिथ्या है और ब्रह्म सत्य। और इस ब्रह्म में विलीन होने के लिए महंत अर्थात विवेक बुद्धि से उत्पन्न ज्ञान का भी त्याग करना होता है।

वे ही संसार के भय से मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसे जीवन मुक्ति कहते हैं। परम का अर्थ है मोक्ष। यह आत्मज्ञान का अंतिम लाभ है।

अंत मे ” भूतप्रकृतिमोक्षम” कह कर उपसंहार किया गया जिस के अनुसार प्रकृति के कार्यरूप समस्त दृश्य वर्ग एवम उस के कारण को जानने के पश्चात स्वयं को उस से मुक्त करना है। यह मुक्ति ही मोक्ष है।

इस का एक अर्थ यह भी है कि क्षेत्रज्ञ जब अकर्ता  एवम साक्षी मात्र है और प्रकृति के संयोग के कारण भ्रमित है, उसे सिर्फ ज्ञान द्वारा स्वयं को ही जानना है, यह ज्ञान होते ही प्रकृति का उस के चारो ओर नृत्य समाप्त हो जाता है। अतः जब समस्त क्रिया प्रकृति ही करती है और जीव कुछ करता ही नही तो मुक्त या मोक्ष भी प्रकृति द्वारा जीव को मुक्त करना है, जीव तो अकर्ता एवम साक्षी है, जिस ने पकड़ा ही नही, उसे छोड़ना भी नही है, उस को सिर्फ यह ज्ञान प्राप्त मात्र करना है, प्रकृति स्वतः ही उसे मुक्त कर देती है। सांख्य मत के अनुसार बंध एवम मोक्ष दोनों अवस्था प्रकृति की है, जीव को तो अपने अज्ञान को नष्ट करना है।

हम इस संसार मे देह, परिवार, व्यवसाय, समाज, देश एवम विश्व की बातों में इस कदर उलझे हुए की यह ज्ञान की बात हमे व्यावहारीरिक नही लगती। प्रकृति का मोह इतना अधिक होता है कि ज्ञान द्वारा यह संसार छूट जाएगा इस भी भय लगने लगता है, एक तुच्छ कीड़ा भी, चाहे गन्दी नाली में ही क्यों न पड़ा हो, अपने जीवन से मोह रखता ही है। ज्ञान का मार्ग चाहे कितना भी सच्चिदानन्दघन परम् आनन्ददायक क्यों न हो, हमे वह इस देह में मोह के साथ ही चाहिये। यही कर्तृत्त्व भाव एवम मोह है जो ज्ञान से छूट सकता है, किंतु छूटने का भय हमे ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ने से रोक देता है।

किन्तु क्या कोई अपने साथ अपने कर्मो के अतिरिक्त कुछ भी इस संसार से ले जा सका और उस के कर्म कामना या लालसा से जुड़े होने से पुनः जन्म का कारण बनते है और हम विभिन्न योनि अर्थात पशु, पक्षी, वृक्ष या मनुष्य रूप में जन्म लेते है। यदि कुछ अच्छे कर्म है तो स्वर्ग आदि का सुख भोग कर आ जाते है। किंतु मुक्त हम तब ही होंगे जब हमारे कर्म बिना लालसा, कामना के कर्तव्य धर्म के पालन हेतु लोकसंग्रह के हो। यह असंभव या अव्यवहारीरिक नही। सिर्फ जीवन शैली एवम ज्ञान को प्राप्त कर के कर्म करने का अभ्यास है। यदि फिर भी नही समझ मे आता तो अगले अघ्याय में हम क्षेत्र एवम प्रकृति के त्रियामी गुणों से द्वारा इस ज्ञान को समझेंगे।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.35।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply