।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.34 II
।। अध्याय 13.34 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.34॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥
“yathā prakāśayaty ekaḥ,
kṛtsnaḿ lokam imaḿ raviḥ..।
kṣetraḿ kṣetrī tathā kṛtsnaḿ,
prakāśayati bhārata”..।।
भावार्थ:
हे भरतवंशी अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर में स्थित एक ही आत्मा सम्पूर्ण शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता है। (३४)
Meaning:
Just as the one sun illumines the entire world, so does the knower of the field illumine the entire field, O Bhaarata.
Explanation:
The example of space in the previous shloka was meant to illustrate the unaffected and untainted nature of the self. In this shloka, the example of the sun is given to highlight the actionless nature of the self. The sun is located millions of miles away from the earth, yet it enables life on earth to exist. Minerals, plants, animals and humans, everything and every being survives only from the sun’s energy. But the sun never acts. All of the actions happen on our planet distinct and separate from the sun.
Shri Krishna says that the self in us, the “I” in us is similar in nature to the sun. The self or the knower of the field, the kshetrajnya, illumines or knows the actions taking place in the kshetra, the field, our body, which is a part of Prakriti. Furthermore, the self does not take on the notion of pride or doer ship in the actions of the body, neither does it get differentiated due to the differences or modifications of Prakriti, just like the sun never claims doership nor gets differentiated due to the variety of form on our planet.
Although the soul energizes the entire body in which it is present with consciousness, yet by itself, it is exceedingly small. eṣho ’ṇurātmā (Muṇḍakopaniṣhad 3.1.9) “The soul is very tiny in size.” The Śhwetāśhvatar Upaniṣhad states:
“If we divide the tip of a hair into a hundred parts, and then divide each part into further hundred parts, we will get the size of the soul. These souls are innumerable in number.” This is a manner of expressing the minuteness of the soul.
How can such an infinitesimal soul energize the body, which is huge in comparison? Shree Krishna explains this with the analogy of the sun. Although situated in one place, the sun illumines the entire solar system with its light. Likewise, the Vedānt Darśhan states:
“The soul, although seated in the heart spreads its consciousness throughout the field of the body.”
So, if the self is the sole knower of all of the actions in our body, how does our intellect know things? With respect to the analogy of the sun, the intellect can be compared to a pool of water that reflects the light of the sun. The intellect is just an instrument that functions due to tje knowledge of the self. If the intellect is calm and steady, it works perfectly in interpreting the information sent to it from the mind and senses. If it is agitated or dull, it cannot work perfectly, just like the sun’s reflection is disturbed when the pool of water is agitated or muddy.
Here, Shri Krishna asserts that the self is of the nature of “chit”. It is knowledge, awareness, consciousness personified.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परब्रह्म के निर्लिप्त,निद्वन्द एवम अकर्ता स्वरूप का उदाहरण एवम आकाश के साथ उस के स्वरूप को समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन हम ने पूर्व श्लोक में किया। यहां अब दूसरा उदाहरण सूर्य अर्थात प्रकाश का है। सौर मंडल का केंद्र सूर्य प्रकाश द्वारा समस्त संसार को प्रकाशित करता है। प्रकाश उस का धर्म है, प्रकाशित होने स्वतः होने वाली क्रिया है। उस का प्रकाश बिना किसी भेद भाव के सम्पूर्ण जगत अर्थात सौर मंडल में फैला हुआ है। वह किसी के अध्ययन, किसी के कार्य चाहे अनुचित हो या उचित, कर-अचर को समान रूप से मिलता है।
सुदूर आकाश में स्थित एक ही सूर्य सदैव इस जगत् को प्रकाशित करता रहता है। वैसे ही एक आत्मा वस्तुओं, शरीर, मन और बुद्धि को केवल प्रकाशित करता है।यद्यपि, लौकिक भाषा में सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है, इस प्रकार कह कर हम सूर्य पर प्रकाशित करने की क्रिया के कर्तृत्व का आरोप करते हैं तथापि विचार करने पर ज्ञात होगा कि इस प्रकार का हमारा आरोप सर्वथा निराधार है। कर्म वह है, जो किसी क्षण विशेष में प्रारम्भ होकर अन्य क्षण में समाप्त होता है तथा सामान्यत वह किसी दृढ़ इच्छा या मूक प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जाता है। इस दृष्टि से सूर्य जगत् को प्रकाशित नहीं करता। प्रकाश तो उसका धर्म है और प्रत्येक वस्तु उसकी उपस्थिति में प्रकाशित होती है। इसी प्रकार, चैतन्य तो आत्मा का स्वरूप है और उसकी उपस्थिति में सब वस्तुएं ज्ञात होती हैं। जगत् के शुभ और अशुभ, सदाचारी और दुराचारी, सुरूप और कुरूप इन सबको एक ही सूर्य प्रकाशित करता है, किन्तु उनमें से किसी के भी गुण या दोष से वह लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार, सच्चिदानन्द आत्मा उपाधियों में व्यक्त होने पर भी मन के पाप, बुद्धि के विकार और शरीर के अपराधों से असंस्पृष्ट ही रहता है।
संसार की सब क्रियाएँ सूर्य के प्रकाश के अन्तर्गत होती हैं परन्तु सूर्य में परमात्मा ही सब को प्रकाशित करता है, ऐसा कर्तृत्व नहीं होता। जैसे — सूर्य के प्रकाश में ही ब्राह्मण वेदपाठ करता है और शिकारी पशुओं को मारता है। पर सूर्य का प्रकाश वेदपाठ और शिकाररूपी क्रियाओं को करने करवाने में कारण नहीं बनता। युद्ध भूमि में अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने वाला हत्या का दोषी नही होता। जब हम अपने कार्य निष्काम हो कर करते है तो उस से यदि किसी को लाभ या हानि हो, उस का दोष नही लगता।
इसी प्रकार हृदय में स्थित चेतना जीव को प्रकाशित करती है। प्रकृति स्वयं में अत्यंत शक्तिशाली है इसलिये किसी भी जड़ का उद्गम होना प्रकृति की स्ववाभिक क्रिया है। अव्यक्त एवम व्यक्त शक्ति जड़ पदार्थ में गति तो दे सकता है, जैसे हम बिजली या ऊर्जा से अनेक वस्तुओं को गतिशील एवम कार्य करते देखते है। किन्तु चेतना शक्ति के बिना कुछ कोई भी जीव रोबट या मॉनव जनित मशीनरी जैसा है। जीव को प्रकृति के संयोग से जो क्षेत्र मिला है उस की बोधगम्यता चेतना से ही होती है। चेतना ही सम्पूर्ण जीव को सूर्य की भांति प्रकाशित करती है, उसे बोध कराती है कि वह यह जड़ शरीर नहीं, साक्षी, अकर्ता एवम नित्य आत्मा है। चेतन्य शरीर जो भी कर्म करेगा वो उस का धर्म है, चेतना से वो प्रकाशित है किंतु चेतन स्वयं कुछ भी कर्म नहीं करता। वह अकर्ता एवम साक्षी ही है।
सूर्य के बिना जीवन नहीं, वैसे ही चेतना के बिना सब कुछ अंधकारमय है, क्योंकि शरीर में चेतना न होने से जड़ ही है।
सूर्य का प्रकाश परब्रह्म का ही प्रकाश है। सूर्य परब्रह्म के प्रकाश से प्रकाशित है एवम चेतना भी परब्रह्म एक ही आत्मा से प्रकाशित है। सूर्य की भांति चेतना भी न तो क्षेत्र के कर्मो को करनेवाला और न करवाने वाला ही होता है तथा न द्वेतभाव या वैषम्यादि दोषों से युक्त होता है। यह अविनाशी आत्मा प्रत्येक अवस्था मे सदा सर्वदा, शुद्ध, विज्ञान स्वरूप, अकर्ता, निर्विकार, सम और निरंजन ही रहता है।
सूर्य से जगत प्रकाशित है, किंतु जगत सूर्य नही। क्षेत्रज्ञ से क्षेत्र कर्म करता है, किंतु क्षेत्र क्षेत्रज्ञ नही हो सकता। प्रकृति और पुरुष में क्रियाशील प्रकृति ही है, किंतु प्रकृति भी पुरुष के बिना कोई क्रिया नही कर सकती। जो यह कहते है, कि यह मेरा घर है, यह धन मेरा है, यह पुत्र मेरा है, क्षेत्रज्ञ से प्रकाशित यह क्षेत्र भूल करता है, क्योंकि जिस को वह मेरा कहता है, जिस से वह प्रकाशित है, वह क्षेत्रज्ञ तो नित्य है किंतु क्षेत्र का कोई भी भाग नित्य नही है, शरीर भी वृद्धि को प्राप्त कर के क्षय को प्राप्त करता है। अतः जीव में को आभा, कांति, प्रतिभा, क्षमता या कुशलता दिखती है, वह क्षेत्रज्ञ के प्रकाश से प्रकाशित है।
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बह्यिदोषैः।एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥
”जिस प्रकार ‘सूर्य’ इस सकल जगत् का चक्षु है तथापि बाह्य चाक्षुष दोष उसे लिप्त नहीं करते, इसी प्रकार समस्त प्राणियों में विद्यमान् ‘अन्तरात्मा’ एक ही है, परन्तु सांसारिक दुːख उसे लिप्त नहीं करते इस कारण, वह दुःख तथा उसके भय से परे है।”
यद्यपि आत्मा चेतना के साथ जिस शरीर में रहती है उसे ऊर्जा प्रदान करती है फिर भी वह स्वयं अत्यंत सूक्ष्म है। “एसो नूरात्मा” (मुंडकोपनिषद्-3.1.9) “आत्मा का आकार अत्यंत अणु है।”
कठोपनिषद में आत्मा के वर्णन में कहा गया है:
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥
”वह ‘परतत्त्व’ जिसमें न शब्द है, न स्पर्श और न रूप है, जो अव्यय है जिसमें न कोई रस है और न कोई गन्ध है, जो नित्य है, अनादि तथा अनन्त है, ‘महान् आत्मतत्त्व’ से भी उच्चतर (परे) है, ध्रुव (स्थिर) है उस का दर्शन करके मृत्यु के मुख से भुक्ति मिल जाती है।”
श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन है:
बालग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च, भागोजीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याम कल्पते ।(श्वेताश्वतरोपनिषद्-5.9)
“यदि हम बाल के अग्र भाग के सौ टुकड़े करें और फिर इनमें से एक टुकड़े के पुनः सौ टुकड़े करें तब हम आत्मा के आकार को जान लेंगे। इन आत्माओं की संख्या असंख्य है।” यह एक प्रकार से आत्मा की सूक्ष्मता को व्यक्त करने की विधि है। ऐसी सूक्ष्म आत्मा उन शरीरों को कैसे गतिशील रखती है जो तुलनात्मक दृष्टि से विशाल है। श्रीकृष्ण सूर्य की उपमा देकर इसे स्पष्ट करते हैं। यद्यपि सूर्य एक ही स्थान पर स्थिर रहता है किंतु सूर्य सम्पूर्ण सौरमण्डल को अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है। वेदांत दर्शन में भी ऐसा वर्णन किया गया है:
गुणादवा लोकवत् (वेदांत दर्शन-2.3.25)
“हृदय में स्थित आत्मा शरीर के समस्त क्षेत्र को चेतना प्रदान करती है।”
अगले अंतिम श्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानने का फल बताते हुए प्रकरणका उपसंहार पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.34।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)