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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.32 II

।। अध्याय      13.32 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.32

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥

“anāditvān nirguṇatvāt,

paramātmāyam avyayaḥ..।

śarīra- stho ‘pi kaunteya,

na karoti na lipyate”..।।

भावार्थ: 

हे कुन्तीपुत्र! यह अविनाशी आत्मा आदि-रहित और प्रकृति के गुणों से परे होने के कारण शरीर में स्थित होते हुए भी न तो कुछ करता है और न ही कर्म उससे लिप्त होते हैं। (३२)

Meaning:

Without beginning, without qualities, this supreme self is indestructible. Though residing in the body, O Kaunteya, it neither acts nor is tainted.

Explanation:

As this chapter slowly comes to a close, Shri Krishna begins to describe the nature of the supreme self. Since this chapter gives prominence to logic, more so than any other chapter in the Gita, he wants to clear any doubts or misconceptions that we may harbour about the supreme self. The first doubt we may have is as follows. If Prakriti is without beginning, and the supreme self is also without beginning, what makes them different?

After describing the Supreme Soul, the soul, and the material nature of the living beings, Shree Krishna explains which of these is responsible for their actions. Also, who is responsible for the cause and effect in the universe at large. Those who understand these differences and identify the correct causes of actions; are the ones who see the ultimate truth; and are situated in knowledge. They do not degrade themselves by the illusions of their minds and perceive the presence of the Supreme Soul in every living being. In the same material nature, they can identify a variety of living beings and look at all existence pervaded by a common spiritual substratum. With this knowledge, they attain consciousness of the Brahman or God- realization.

He calls the feelings, sentiments, emotions, etc., that arise in this field (body) as modifications, and the virtues and pious good qualities purify the field and illuminate it with knowledge. This knowledge helps us realize and understand the existence of our soul, which is the kṣhetrajña or the knower of the field. Shree Krishna then starts describing God, the supreme knower of the fields of all living creatures. He says that the Supreme Lord possesses opposite attributes at the same time, which seem contradictory. Understand that God is all-pervading in His creation, yet He sits in the heart of every living being

The Buddha taught: “All that we are is the result of what we have thought; it is founded on our thoughts, and it is made of our thoughts.”  Thus, as we think, that is what we become.  The great American philosopher Ralph Waldo Emerson said: “The ancestor of every action is a thought.” Therefore, it is necessary to cultivate appropriate thoughts and actions in the field of our body. For this, we should be able to differentiate between kṣhetra, the field, and kṣhetrajña, the knower of the field.

Shri Krishna says that the difference is cause by whether or not they have gunaas or qualities. So far, we have seen that Prakriti is nothing but the three gunaas of sattva, rajas and tamas. But the supreme self is “nirguna”, it has no association or association with any quality whatsoever. This is what makes it different than Prakriti. Also, Prakriti is constantly changing and perishing whereas the supreme self is imperishable. When something has association with qualities, like the human body has strength, it is bound to perish or decay. Since the supreme self has no qualities at all, it is imperishable. Prakriti, on the other hand, is every changing and perishable.

Another doubt is as follows. Does the supreme self-get affected by the actions and reactions of Prakriti? Shri Krishna asserts that it does not. We have seen that the supreme self, due to ignorance, identifies itself with a body, a product of Prakriti. This is what is referred to in this shloka – it “resides” in the body. We have also repeatedly heard that the supreme self has nothing to do with Prakriti. It can never become the doer or the enjoyer of any actions. But due to the apparent identification with the body, the supreme self assumes that it is a doer and enjoyer. Since the identification is fake, not real, the supreme self can never get affected by the actions and reactions by Prakriti.

We may have understood the non-doer ship and non-enjoyer ship of the supreme self in theory, but it is still a little fuzzy. We need to clearly understand how the supreme self, in its real nature neither acts, nor experiences the results of its actions. To better explain this, Shri Krishna provides an illustration in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवान श्री कृष्ण परमात्मा, आत्मा और जीवों की भौतिक प्रकृति का वर्णन करने के पश्चात बताते हैं कि इनमें से कौन उनके कार्यों के लिए उत्तरदायी है। साथ ही, ब्रह्मांड में कारण और प्रभाव के लिए कौन उत्तरदायी है। जो लोग इन अंतरों को समझते हैं और कार्यों के सही कारणों को पहचानते हैं, वे ही परम सत्य को देखते हैं और ज्ञान में स्थित होते हैं। वे अपने मन के भ्रमों से स्वयं को पतित नहीं करते और प्रत्येक जीव में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करते हैं। वे एक ही भौतिक प्रकृति में विभिन्न जीवों की पहचान करने में सक्षम होते हैं और एक सामान्य आध्यात्मिक आधार द्वारा व्याप्त समस्त अस्तित्व को देखते हैं। इस ज्ञान के साथ, वे ब्रह्म की चेतना या ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त करते हैं।

वे इस क्षेत्र (शरीर) में उत्पन्न होने वाली भावनाओं, संवेदनाओं, भावनाओं आदि को वृत्ति कहते हैं, तथा सद्गुण और पुण्य गुण इस क्षेत्र को शुद्ध करते हैं और इसे ज्ञान से प्रकाशित करते हैं। यह ज्ञान हमें अपनी आत्मा के अस्तित्व को समझने में मदद करता है, जो कि क्षेत्रज्ञ या क्षेत्र का ज्ञाता है। इसके बाद श्रीकृष्ण सभी जीवित प्राणियों के क्षेत्रों के सर्वोच्च ज्ञाता भगवान का वर्णन करना शुरू करते हैं। वे कहते हैं कि परमेश्वर में एक ही समय में विपरीत गुण होते हैं, जो विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। समझें कि भगवान अपनी सृष्टि में सर्वव्यापी हैं, फिर भी, वे प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में विराजमान हैं।

बुद्ध ने सिखाया: “हम जो कुछ भी हैं, वह हमारे विचारों का परिणाम है; यह हमारे विचारों पर आधारित है, और यह हमारे विचारों से बना है।” इस प्रकार, जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं। महान अमेरिकी दार्शनिक राल्फ वाल्डो इमर्सन ने कहा: “हर क्रिया का पूर्वज एक विचार है।” इसलिए, हमारे शरीर के क्षेत्र में उचित विचारों और क्रियाओं को विकसित करना आवश्यक है। इसके लिए, हमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बीच अंतर करने में सक्षम होना चाहिए।

प्रकृति के सचेतन एवम अचेतन दो स्वरुप है, इस मे सचेतन में हम पशु, पक्षी मनुष्य , देव,  गंधर्व एवम राक्षस आदि लेते है। मनुष्य में मन- बुद्धि सब से सक्रिय होने से इस को सर्वश्रेष्ठ योनि कहा गया है। अचेतन स्वरूप जड़ पदार्थ है।

मनुष्य की स्थूल देह जो शुक्राणु से शोणित हो कर बनी है, इस में प्रथम तत्व स्नायु, अस्थि, और मज्जा, रक्त, त्वचा और केश इत्यादि आते है, इसे वेदांती अन्नमय कोश कहते है। इस के अतिरिक्त अंदर बाहर वायु का आवागमन चलता है जिसे वायु रूपी प्राण अर्थात प्राणमय कोश कहते है। प्राणमय कोश के बाद मन से मनोमय कोश , बुद्धि से ज्ञानमय कोश अंत मे आनंदमय कोश मिलता है। त्तेत्तिरियोपनिषद में आनंदमय कोश बता कर आत्मस्वरुप की पहचान बता दी।

इन सब मे से स्थूल छोड़ कर बाकि रहे हुए प्राणादि कोश, सूक्ष्म इंद्रियाओ और पंचतन्मात्राओं को वेदांती लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर कहते है।

एक ही आत्मा को भिन्न भिन्न योनियों में जन्म कैसे प्राप्त होता है, इस के लिये वेदांती एवम उपनिषद में स्पष्ट कहा है कि यह कर्म लिंग शरीर के आश्रय से अर्थात आधार से रहा करता है; और जब आत्मा स्थूल देह छोड़ कर जाने लगता है, तब यह कर्म भी लिंग शरीर द्वारा उस के साथ जा कर बार बार उसको भिन्न भिन्न जन्म लेने के लिये बाध्य करता रहता है।

सृष्टि के आरंभ काल मे अव्यक्त और निर्गुण परब्रह्म जिस देशकाल आदि नाम रूपात्मक सगुण शक्ति से व्यक्त या दृश्य सृष्टि रूप से हुआ सा देख पड़ता  है उसी को वेदांत में माया या कर्म कहते है।

जब क्षेत्रज्ञ कुछ कर्म ही नही करता है जो वह कर्मफल के चक्कर व्यूह में कैसे फस सकता है। इसलिये परमात्मा का कहना है मै अपनी माया से प्रकृति उत्पन्न करता हू अर्थात निर्गुण आत्मा कर्म या माया में परमात्मा द्वारा ही रचा खेल है, जिसे हम कह सकते है परमात्मा की इच्छा से प्रकृति एवम जीव का संयोग होता है और फिर यह निर्गुण , अकर्ता, साक्षी जीव कर्म बंधन में चक्रव्यहु फस जाता है। अब इसे इस बंधन से मुक्त हो कर पुनः परमात्मा से मिलना है।

परमात्मा यह माया का खेल क्यों खेलता है, वो हमें कर्म करने को क्यों प्रेरित करता है, हम नियति के आगे विवश हो कर क्यों कर्म करते है यह अगले अध्याय का विषय है।

परमात्मा की निर्लिप्तता में दो हेतु कहे गए, एक अनादित्व और दूसरा निर्गुणत्व। जो अपना कारण रखता हो और उत्पन्न होता हो उस को सादि कहते है। ऐसा सादि पदार्थ देश, काल एवम वस्तु  परिच्छेदवाला ही होता है तथा ऐसा पदार्थ परिच्छिन्न द्रव्य होने से सगुण ही होता है। परंतु परमात्मा इस के विपरीत तो नित्य व अज होने से अपना कोई कारण नही रखता और सर्वपरिच्छिद- विनिमुक्त व गुणातीत एवम अज अव्यय ही है। इसलिये वह सब शरीरों में स्थित हुआ भी न कुछ करता है और न लेपायमान ही होता है। करना और उस से लेपायमान होना सादि, सगुण एवम परिच्छिन्न द्रव्य में ही होता है।

यह जो प्रतीत होता है कि जीव उत्पन्न होता है, वह सत्य नहीं है। उत्पन्न भौतिक शरीर ही होता है। जीव उस मे  प्रवेश करता है। इसलिये भौतिक शरीर मे रहते हुए भी जीव जो कार्य सम्पन्न करता है उस से ज्ञान हो जाने के बाद लिप्त नही रहता।

क्षेत्रज्ञ, आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म, परमात्मा और परमेश्वर नाम से जिसे बताया गया है, वह निर्गुण, अनादि, अकर्ता और साक्षी है। प्रकृति से संयोग से जिस देह में उस के चेतन होने और क्रियाशील होने को हम पढ़ रहे है, वह वास्तव मे क्रियाशील है ही नही, क्योंकि जैसे दर्पण में मुख अवश्य है किंतु वह प्रति छाया है। वैसे ही प्रत्येक जड़ – चेतन में आत्मा अवश्य है किंतु वह उस की प्रति छाया है। कर्म या क्रियाएं समस्त प्रकृति करती है, वह भ्रमित हो कर कर्ता या भोक्ता बनता है, जो उस के चारो ओर लिंग स्वरूप में लिपट जाता है। जो अनादि और निर्गुण है, वह तो सर्वथा मुक्त और मोक्ष को प्राप्त है। क्रियाशील प्रकृति है, जो सूक्ष्म लिंग स्वरूप में भ्रमित आत्मतत्व अर्थात चेतन बन कर उस से लिपटी हुई है। यह बंधन का नष्ट होना ही ज्ञान है। बंधन से मुक्ति प्रकृति की होती है, वह अपनी समस्त क्रियाएं छोड़ कर जैसे ही शांत होती है, आत्मा का संयोग प्रकृति से समाप्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते है। अतः जो आत्मा प्रकृति के गुणों और उन के विस्तार रूप बुद्धि, मन, इंद्रियों और शरीर से सर्वथा मुक्त है, उस की मुक्ति का अर्थ प्रकृति का ही निष्क्रिय होना है।

कर्म से बंधता ही जीव को पुनः जन्म के लिये बाध्य करती है क्योंकि वह स्वयं में निर्लिप्त एवम निद्वन्द है। कर्म की बंधता मोह, कामना एवम अहंकार से होती है और यह तीनों प्रकृति के ही गुण है, इसलिये प्रकृति अपने मायाजाल में जीव को फसा कर बार बार जन्म-मरण करवाती है। इसी के मुक्ति का मार्ग क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है। जीव इस के कारण भोक्तत्व एवम कर्तृत्व भाव में यह समझ लेता है कि जो भी कर्म हो रहे है वो वह कर रहा है। इसलिये इसे और अच्छे तरीके से समझाने के किए आकाश एवम सूर्य का उदारहण भगवान अगले दो श्लोक में देते है जिस से संदेह का विवाद न रहे।

जब जीव को अपने अनादित्व एवम निर्गुणता का ज्ञान हो जाता है, तो अकर्ता, साक्षी, दृष्टा की भांति अपने चारो ओर नृत्य एवम क्रिया करती प्रकृति को अपने से पृथक देख पाता है। जैसे कुम्हार का चक्का उस पर कार्य होने के बाद भी अपनी गति के कारण कुछ समय घूमता रहता है, वैसे ही उस ज्ञानी ब्रह्मसंध जीव का शेष जीवन व्यतीत होता है। वह कर्म करता हुआ दिखता है किंतु निर्लिप्त और अकर्म भाव में रहता है। इस ज्ञानी जीव को सांसारिक जीव अपने अज्ञान से नही पहचान सकता और यह अपना शेष समय व्यतीत कर के परब्रह्म में लीन हो जाता है। आदिगुरु शंकराचार्य, गुरु नानक देव आदि ऐसे ही ब्रह्मसंध जीव थे।

व्यवहार में हम जानते है कि रसायन शास्त्र में जब दो या दो से अधिक तत्व निश्चित अनुपात में मिला दे और उस में रसायनिक क्रिया हो जाने से नया पदार्थ बनता है तो उसे योगिक कहते है, किंतु यदि दो या दो से अधिक पदार्थ मिल कर भी यदि अपना अस्तित्व रखते है तो उसे मिश्रण कहते है। जीव के लिए प्रकृति और पुरुष का संयोजन मिश्रण है, जिस में पुरुष अपने अस्तित्व को यथा पूर्वक रखता है। क्योंकि पुरुष तत्व निर्गुण, अकर्त्ता और अभोक्ता है, तो फिर प्रकृति ही संसार में भोक्ता और कर्ता होती है। यही बोध तत्व को समझना भी है।

यदि हमे कोई बात उदाहरण दे कर बताई जाए और फिर वह वास्तव में हमारे सामने उपलब्ध हो तो निश्चित ही उदाहरण और वास्तविक में अंतर होगा ही। यही बात जो हम पुरुष के विषय में शास्त्रों और प्रवचन आदि में पढ़ते है, जब पुरुष का वास्तविक ज्ञान होता है तो वह बिल्कुल उस उदाहरण के समान नहीं हो कर निश्चित ही बेहतर होगा, जिसे अनुभव से प्राप्त कर के जाना जा सकता है।

यदि आप नींद में सपने देख रहे है तो आप को ज्ञान है कि यह वास्तविक नहीं है। इसलिए स्वप्न में आप जो कुछ भी क्रियाएं करते है, उस के लिए आप अकर्ता ही है। किंतु नींद से जागने के बाद जो दिखता है, यदि कहा जाए कि यह भी वास्तविक नहीं है तो इस को समझने के लिए परब्रह्म के ज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए ज्ञानी पुरुष जानता है कि प्रकृति परिवर्तन शील है और विभिन्न क्रियाएं करती रहती है, वह वास्तविक नहीं है। वह स्वयं नित्य, दृष्टा, और अकर्ता है। इसलिए वह जो भी कर रहा है, वह प्रकृति की क्रियाएं है जो उसे निमित्त बना कर की जा रही है। प्रकृति के साथ उस का संबंध मिश्रण का है, उस का वास्तविक स्वरूप प्रकृति प्रदत्त शरीर नही हो कर , नित्य है। इसलिए वह अपने समस्त कार्यों को अकर्म  समझ कर करता है और जो वह कर रहा है, उसे स्वप्न में की हुई की भांति मानता है।

जब पुरुष न करता है और न लिप्त होता है, तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे निर्लिप्त रहता है, यह हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.32।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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