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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.30 II

।। अध्याय      13.30 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.30

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

“prakṛtyaiva ca karmāṇi,

kriyamāṇāni sarvaśaḥ..।

yaḥ paśyati tathātmānam,

akartāraḿ sa paśyati”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य समस्त कार्यों को सभी प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही सम्पन्न होते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ रूप से देखता है। (३०)

Meaning:

One who sees all actions as performed by Prakriti alone, and the self as actionless, he sees (clearly).

Explanation:

The Tantra Bhāgavat states:  ahankārāt tu samsāro bhavet jīvasya na svataḥ  “The ego of being the body and the pride of being the doer trap the soul in the samsara of life and death.”  In material consciousness, the ego makes us identify with the body, and thus we attribute the actions of the body to the soul, and think, “I am doing this…I am doing that.”  But the enlightened soul perceives that while eating, drinking, talking, walking, etc. it is only the body that acts.

Maharishi Vasishth instructed Ram: kartā bahirkartāntarloke vihara rāghava (Yog Vāsiṣhṭh)  “Ram, while working, externally exert Yourself as if the results depend upon You; but internally, realize Yourself to be the non-doer.”

Imagine that a toddler sees a phone for the first time. He is fascinated each time it rings, and mistakenly thinks that by raising his hand, he makes the phone ring. But, if an adult has a never- ending fascination with a phone ringing, or has a mistaken notion about why it rings, we will think that there is something wrong with him. If an adult is overly fascinated by machines, it is because he lets the three gunaas of Prakriti still entice him, attract him. In general, once we know how a machine works, we are not overly fascinated or concerned with it.

Shri Krishna says that one who has truly assimilated the teaching of the Gita knows that actions, reactions, emotions, thought, logic, all these happen in the realm of Prakriti. Just like we lose fascination for machines once we know how they work, we should gradually stop being fascinated by Prakriti which is nothing but a machine that belongs to Ishvara. If this understanding seeps in, the shocks of world that we face daily will slowly lose their ability to shake us. We will perform our duties with our full attention and dedication so that we can exhaust our selfish desires but leave the reactions and results to Ishvara because it is all happening in his Prakriti, his machine.

How do we go about doing this? The path to reduce our fascination with Prakriti is to increase our fascination with Ishvara. We do this by hearing stories of Ishvara, by attending satsanga, by associating with people who are devotees of Ishvara. The Gita itself contains chapters on the glory of Ishvara’s vibhootis, which can be read as daily meditations. Eventually, we begin to see the entire universe as part of Ishvara’s vishvaroopa, his universal form.

By virtue of these two shloks we understand three benefits from Knowledge i.e. first one is sama darshana means equanimity, second is amruthathva prapthi means immortality and now third is prayojanam akartrtva prapthi means non doer ship of any work, which is done through me. It makes me free from any kind of attachment of fruit of any work.

Now, even if we develop detachment towards the actions of Prakriti, our senses still get fascinated by variety, colour, form, diversity created by it. How do we deal with this aspect of Prakriti? Shri Krishna covers this next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

तंत्र भागवत में वर्णन है-“अहंकारत् तु संसारो भवेत् जीवस्य न स्वतः” अर्थात शरीर होने का अहंकार और कर्ता होने का अभिमान आत्मा को जीवन और मृत्यु के संसार में फंसा लेता है। भौतिक चेतना में अहंकार के कारण हम अपनी पहचान शरीर के रूप में करते हैं और हम शरीर के कार्यों को आत्मा पर आरोपित करते हैं तथा यह सोचते हैं कि ‘मैं यह कर रहा हूँ और मैं ऐसा कर रहा हूँ’ लेकिन प्रबुद्ध आत्मा को यह बोध होता है कि खाने-पीने, वार्तालाप इत्यादि कार्य केवल शरीर द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं किन्तु फिर भी आत्मा शरीर द्वारा किए गए कार्यों के उत्तरदायित्व से विलग नहीं रह सकती।

प्रस्तुत श्लोक एक प्रकार से पुनरूक्ति ही है। हमे ने पढ़ा है कि प्रकृति एवम जीव से संयोग से यह संसार की सृष्टि हुई है। प्रकृति क्रियाशील है और जीव अकर्ता, साक्षी एवम नित्य। प्रकृति स्वयं चैतन्य नही हो सकती। इसलिये जैसे ही जीव उस के साथ जुड़ता है वो क्रियाशील हो कर अपना नृत्य शुरू कर देती। प्रकृति की यह टकसाल संयोग की स्वतः प्रक्रिया है। प्रकृति का माया जाल इतना मोहक होता है कि जीव अपना अस्तित्व भूल कर जड़ शरीर को अपना समझने लगता है और वो समस्त कार्य जो प्रकृति जीव को माध्यम बना कर करती है, वो उसे समझता है कि वह कर रहा है। विभिन्न व्यक्तियों के कर्मों में जो भेद है, वह उनके विभिन्न शुभाशुभ संस्कारों और इच्छाओं के कारण है, आत्मा के कारण नहीं। केवल क्षेत्र या क्षेत्रज्ञ में कोई कर्म नहीं होते हैं।

वस्तुतः प्रकृति के परिणाम महतत्त्व, अहंकार, मन व इंद्रियाओ द्वारा ही सब प्रकार के कर्म किये जा रहे है, परन्तु अज्ञान करके पुरुष यानि जीव-आत्मा प्रकृति के साथ तादात्म्य हुआ उसके व्यवहारों को अपने में आरोपित कर के ” मैं कर्ता हूँ” ऐसा मान लेता है।

यह कर्तृत्व भाव ही कर्म बंधन का कारण है और इस अयथार्थ दृष्टि कर के उस को जन्म मरण आदि क्लेशों का चक्कर  छूट ही नही पाता। यह एक प्रकार का साहूकारी व्याज है कि एक बार ले लिया तो फिर कभी नही छूटता। इसी को जीव द्वारा अपने अस्तित्व की हत्या जैसा ही माना है।

जीव अकर्ता है, साक्षी है तो फिर यह कर्तृत्व भाव उस की आत्मा का हनन है, इसलिये यह एक भ्रम ही है कि मेरा परिवार, व्यवसाय, प्रतिष्ठा, धन दौलत मेरी है, मरण के उपरांत क्या कोई इन मे एक भी वस्तु ले कर गया है। यदि कुछ साथ गया है तो उस का यह भ्रम जिसे हम कामनाएं, कर्म फल बंधन एवम अहंकार जिसे ले कर वो पुनः पुनः जन्म लेता है।

प्रकृति का यह नृत्य जीव के चारो ओर तब तक चलता है जब तक उस की बुद्धि में सत्व तत्व ज्ञान के रूप में इकठ्ठा हो जाये। यह ज्ञान ही उसे तत्वविद बनाता है और उस पता चलता है कि वह तो नित्य है, साक्षी है, अकर्ता है तो उस के चारो ओर चलने वाला प्रकृति का नृत्य समाप्त हो जाता है और वह अपने पूर्व स्वरुप में आ जाता है। जो अकर्ता है, वो कुछ भी पकड़ ही नही सकता। इसलिये यह कहना कि प्रकृति का उस ने त्याग किया गलत होगा। प्रकृति की क्रियाशीलता जो उस के चारो ओर नृत्य कर रही होती है वह ही समाप्त होती है और आत्मा या जीव प्रकृति के साथ भी रहता हुआ, इस भ्रम से मुक्त रहता है कि वह कर्ता है, अपना शेष जीवन व्यतीत करता है और स्वयं को निमित्त मात्र मानता है। अनेक संत जिन्हें ज्ञान हो गया, शेष जीवन निर्लिप्त भाव से व्यतीत कर के मोक्ष को प्राप्त हो गए।

जो कुछ कर रही है प्रकृति कर रही है, क्योंकि वो ही क्रियाशील है, जीव पहले भी अकर्ता था और आगे भी अकर्ता ही रहेगा। वो प्रकृति के संयोग से प्रकृति के मायाजाल में फस गया। उसे भ्रम है कि वो जन्म लेता है, मृत्यु को प्राप्त होता है, कर्म करता है, फल को प्राप्त करता है। उस के पास पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, धन दौलत सब कुछ है। किन्तु यह प्रकृति जो  उसे नाच नचा रही है, उसे कब देगी और कब छीन लेगी, वो नही जानता। संसार को विजय का सपना देखनेवाला कोरोना जैसे छोटे से कीटाणु से छिपा बैठा है। यह सब यही बताता है कि जो कुछ कर रही है वो प्रकृति कर रही है। वो निमित्त मात्र ही है। यदि कोई कमी है तो इस ज्ञान कि उस का यह अभिमान व्यर्थ है।

शरीर, इंद्रियां, मन और बुद्धि, यहाँ तक कि यह अभिमान की यह सब मै कर रहा हूँ,  इस मै तत्व तक सब प्रकृति ही है जो अपनी त्रियामी गुण सत-रज-तम से यह खेल कर रही है। वह सिर्फ विशुद्ध परमात्मा का अंश है जिसे पुनः उस परमात्मा में ही विलीन होना है। यह आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध , मुक्त और सब विकारों से रहित है, प्रकृति से इस का कोई संबंध नही है।

सरल भाषा में यदि हम समझे की हम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हो तो जो चल रही है, वह रेलगाड़ी है, किंतु हम कहते है, मैं जा रहा हूं। किसी कार्य को करने के लिए हम स्थान, व्यक्ति और साधन का चयन कर के उस कार्य को करते है। किंतु वह स्थान, व्यक्ति और कार्य के लिए प्रेरित कर के उसे कौन उपलब्ध करवा रहा है। कौन दावे के साथ कह सकता है कि उसे अपने उम्र के किस पड़ाव पर कौन व्यक्ति मिलेगा और कौन उस के साथ और विरुद्ध होगा। यह सब का निर्णायक प्रकृति है, जो जीव को निमित्त बनाती है। यही समझना ज्ञान का एक भाग है। वस्तुत: प्रकृति के परिणाम महत्तत्व, अहंकार, मन और इंद्रियों द्वारा सब प्रकार के कर्म होते जा रहे है और हम भ्रम वश समझते है कि मैं कर्ता हूं। यदि समस्त कार्य प्रकृति करती है, मैं मात्र निमित्त हूं, यह समझ में आ गया, तो कोई राग-द्वेष शेष नहीं बचेगा। ऐसा देखनेवाला जेड जाननेवाला – सोचनेवाला ही मुक्त है और वही परम तत्व को जानता है।

विचार कीजिए, यदि मनुष्य कर्ता होता तो क्या वह अपनी देह को नष्ट होने देता, संसार को छोड़ते वक्त वह खाली हाथ चला जाता है, जो प्रकृति करती है, वह प्रकृति अपने पास भी रख लेती है। पुनः जन्म मे उस के पास पूर्व जन्म के मन, बुद्धि, इंद्रियां या सांसारिक वस्तु नहीं होते, उस के बंधनकार कर्म के फल और संस्कार ही रहते है।

इस प्रकार पूर्व श्लोक में सर्वप्रथम सभी जीव के क्षेत्र के अनुसार विभिन्न रंग, आकार, व्यवहार और उन का रहन – सहन की विभिन्नता में समान रूप से व्याप्त क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मत्व को पहचान पाना, फिर जैसे ही यह ज्ञात हो की वह भी आप के समान ही आत्मा है, अपने व्यवहार को सात्विक रखते हुए, निष्काम भाव से करना, बताया गया। क्योंकि प्रकृति में प्रत्येक प्राणी अलग अलग स्वरूप और आदत का होता है, तो उसे एक स्वरूप में देखना कठिन है, किंतु उस में भी एक ही परमात्मा बसता है, यह हम कर सकते है। जिस से हम इस के साथ निसंग भाव से व्यवहार करे। यह निसंग, निष्काम व्यवहार प्रकृति की उपाधि के अनुसार ही होगा, कोई शेर और गाय एक ही आत्मा का स्वरूप  समझ कर एक जैसा व्यवहार नहीं कर सकता। व्यवहार प्रकृति में प्रकृति के अनुसार ही प्रकृति के प्रदत्त शरीर, मन, इंद्रियों और बुद्धि द्वारा होगा। इसलिए निष्काम और निसंग व्यवहार जो अहंकार और कामना रहित हो, जो जीव कर्म के बंधन से मुक्त रखता और जीव कर्म के बंधन में नही फस कर, स्वयं को कर्ता मान कर अहम से काम नहीं करता। यदि वह अपने अहम और कामना में व्यवहार कर्ता है तो वह अपनी ही आत्मा का हनन करता है और जन्म – मरण के चक्कर में कर्मो के फल भोगने को तैयार होता है। क्योंकि व्यवहार, समय, परिस्थिति, क्षमता, योग्यता, और लक्ष्य के अनुसार पूर्ण दक्षता से किया जाएगा, इस लिए इस श्लोक में यह कहा गया है कि कार्य शरीर, इंद्रियों, मन और बुद्धि से किया जाता है, इसलिए यह भी समझ लेना चाहिए कि आत्मा अकर्ता और साक्षी है और जो भी कर्म किया जा रहा है, वह प्रकृति कर रही है, जीव को उस कार्य के कर्ता बनने का प्रयास या श्रेय नही लेना चाहिए, वह मात्र निमित्त होता है।

महर्षि वशिष्ठ ने राम को यह उपदेश दिया था, “कर्ता बर्हिकत्रिलोक विहर राघव (योग वशिष्ठ)” अर्थात राम कर्म करते समय बाह्य रूप से स्वयं ऐसा परिश्रम करो जैसा कि इसका परिणाम तुम पर निर्भर हो लेकिन आंतरिक दृष्टि से स्वयं को अकर्ता समझो।

अर्जुन को युद्ध का निर्देश देने का आशय इन तीन श्लोक में निहित है, जो समक्ष योद्धा खड़े  है, वे उपाधि से विभिन्न रिश्तेदार, मित्र और शक्तिशाली योद्धा है। किंतु सभी उसी परमात्मा के स्वरूप है। परिस्थितियों के कारण उन से श्त्रुभाव में क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध किया जाना है, जिस से उन की हत्या अर्थात उन को उन के शरीर से विमुक्त करना पड़ रहा है। अर्जुन इस का निमित्त है और कार्य प्रकृति द्वारा ही माया से रचा गया है। अर्जुन को यह युद्ध निसंग भाव से, निष्काम हो कर, प्रकृति के व्यवहार में पूर्ण दक्षता से लड़ना है और उस के अंदर युद्ध में कोई राग – द्वेष, अहम और कामना को नही आना चाहिए, यह कर्तव्य धर्म को समझ कर युद्ध किया जाना चाहिए।

ज्ञान को प्राप्त करने के तीन कारण हम ने इन दो श्लोक में पढ़े। प्रथम जीव को समदर्शी होना चाहिए, समदर्शी जीव प्रकृति से भिन्न नित्य, दृष्टा, अकर्ता और साक्षी होने से परब्रह्म का अंश है, इसलिए उसे अमृत्व तत्व की प्राप्ति है। नष्ट पंचभूत का शरीर होता है, जीव नही। तृतीय जो कुछ भी क्रिया इस सृष्टि में होती है वह प्रकृति करती है। वह इस क्रिया के लिए के लिए निमित्त मात्र है। यही जीव जब अकर्त्ता भाव से कर्म करता है तो कार्य कारण के कर्म फल के बंधन से मुक्त रहता है, किंतु जब अहम में कर्ता भाव से करता है तो उसे कर्म फल का बंधन प्राप्त होता है। यह बंधन उसे प्रारब्ध और संचित कर्म के साथ बार जन्म लेने और उसे भोगने को मजबूर करता है।

आगे परम तत्व को जानने से क्या होता है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.30।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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