।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.28 II
।। अध्याय 13.28 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.28॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
“samaḿ sarveṣu bhūteṣu,
tiṣṭhantaḿ parameśvaram..।
vinaśyatsv avinaśyantaḿ,
yaḥ paśyati sa paśyati”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य समस्त नाशवान शरीरों में अविनाशी आत्मा के साथ अविनाशी परमात्मा को समान भाव से स्थित देखता है वही वास्तविक सत्य को यथार्थ रूप में देखता है। (२८)
Meaning:
He who sees the supreme lord established equally in all beings, as the imperishable within the perishable, he sees (correctly).
Explanation:
Shree Krishna had previously used the expression yaḥ paśhyati sa paśhyati (they alone truly see, who see that…) Now He states that it is not enough to see the presence of the soul within the body. We must also appreciate that God, the Supreme Soul, is seated within all bodies. His presence in the heart of all living beings was previously stated in verse 13.23 in this chapter. It is also mentioned in verses 10.20 and 18.61 of the Bhagavad Gita, and in other Vedic scriptures as well:
“God is one. He resides in the hearts of all living beings. He is omnipresent. He is the Supreme Soul of all souls.” (Śhwetāśhvatar Upaniṣhad 6.11)
“God is seated inside all living beings as the Witness and the Master.” (Bhagavatam 10.86.31)
“The Supreme Lord Ram is eternal and beyond everything. He resides in the hearts of all living entities.” (Ramayan)
The Supreme Soul accompanies the individual soul as it journeys from body to body in the cycle of life and death.
When a nation is fighting for its independence from an invader, freedom fighters always urge the citizens to emphasize that which is common among them and de-emphasize that which is different. In India, freedom fighters had to urge its citizens to overcome their differences of region and religion and emphasize the idea of a united Indian nation. Unless the citizens stopped identifying themselves with a certain region/religion and started identifying themselves as Indians, there was no chance of India gaining independence.
Similarly, all of us tend to focus on each other’s physical appearances, words, ideas, thoughts, all of which are fundamentally perishable and transient. Shri Krishna urges us to develop and attitude where we shift our focus from the perishable to the imperishable. In other words, we learn to see the imperishable Ishvara in everybody and everything, including ourselves. We saw earlier that everything and every being is a combination of the kshetra and the kshetrajnya. We now stop identifying with the imperishable kshetra and start identifying with the imperishable kshetrajnya, which is Ishvara himself.
So then, this is the correct attitude, the correct vision, that we should develop. We are a product of Ishvara and Prakriti; therefore, we should identify with the Ishvara aspect as our self, our “I”. In parallel, everything and everyone is also a product of Ishvara and Prakriti, therefore we should emphasize the Ishvara aspect which is present in everyone equally. We will come to the conclusion that the Ishvara aspect in us is the same as the Ishvara aspect in everyone else. Shri Krishna says that one who develops such a vision, one who sees the imperishable in the perishable, he truly sees, not anyone else.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जिस अधिष्ठान पर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के परस्पर मिथ्या तादात्म्य की क्रीड़ा और परिणामत दुखपूर्ण संसार की प्रतीति होती है, वह एक परमेश्वर ही है, जो भूतमात्र में समभाव से स्थित है, जैसे समस्त तरंगों में जल होता है।नश्वर भूतों में अनश्वर केवल सतही दृष्टि से निरीक्षण करने वाले पुरुष को जगत् में निरन्तर परिवर्तन होता दिखाई देगा। वस्तुएं स्वभावत परिवर्तित होती रहती हैं और उनके परस्पर के सम्बन्ध भी। परिवर्तन होना यह वैषयिक और वैचारिक दोनों ही जगतों का स्थायी धर्म है। इस जगत् की तुलना से कहा गया है कि इन सब में वह परमेश्वर नित्य और अविकारी अधिष्ठान है, जिस के कारण ये सब परिवर्तन जाने जाते हैं। जन्म, वृद्धि, व्याधि, क्षय और मृत्यु ये वे विकार हैं, जो प्रत्येक अनित्य वस्तु को प्राप्त होते हैं। जिस की उत्पत्ति हुई हो, उसे ही आगे के विकारों से भी गुजरना पड़ेगा। यहाँ परमेश्वर को अविनाशी कह कर उसके पूर्व के विकारों का भी अभाव सूचित किया गया है। यह अविनाशी चैतन्य ही नाश का प्रकाशक और जगत् का आधार है।
श्रीकृष्ण ने पहले ‘यः पश्यति स पश्यति’ भावभिव्यक्ति का प्रयोग किया था जिसका अर्थ है कि केवल वही वास्तव में देखता है जो ऐसा देखता है। अब वे कहते हैं कि शरीर के भीतर केवल आत्मा के अस्तित्त्व को देखना ही पर्याप्त नहीं है। हमें इसकी सराहना करनी होगी कि भगवान परमात्मा के रूप में सभी शरीर में निवास करते हैं। सभी जीवों के हृदय में परमात्मा स्थित है, इसका उल्लेख पहले भी इस अध्याय के 23वें श्लोक में किया गया है। इसके अतिरिक्त भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 20वें और 18वें अध्याय के 61वें श्लोक में और उसी प्रकार से अन्य वैदिक ग्रंथों में भी इसी प्रकार का वर्णन किया गया है।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.11)
“भगवान एक है, वह सभी के हृदयों में रहता है, वह सर्वव्यापी है। वह आत्माओं की परम आत्मा है।”
भवान् हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग् विभो।। (श्रीमद्भागवतम्-10.86.31)
“भगवान सभी के भीतर साक्षी और स्वामी के रूप में निवास करता है।”
राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी सरब रहित सब उर पुर बासी।।(रामचरितमानस)
“परम भगवान श्रीराम अविनाशी और सबसे परे हैं। वह सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं।” परमात्मा सदैव जीवात्मा के साथ रहते हैं क्योंकि यह जन्म और मृत्यु के कालचक्र में एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा करती है।
किसी कारखाने में काम करने वाला कोई मिस्त्री, कोई मजदूर, कोई निरीक्षक, कोई इंजीनियर, कोई सुरक्षा तथा कोई ऑफिस में बैठ कर काम करने वाला क्लर्क, ऑफिसर, मैनेजर और मालिक होता है। इन सब को कोई पद तो कोई लिंग अर्थात स्त्री – पुरुष के भेद से देखता है। यह भेद कारखाने के अंदर बैठे व्यक्ति के लिए हो सकता है कि आवश्यक हो, क्योंकि वह उस का भाग है किंतु जिन्हे उस कारखाने को समझना है, उन के लिए सभी कर्मचारी है। इस प्रकृति के जितने भी प्राणी है वह रूप, रंग, आकार एवम व्यवहार में विभिन्न प्रकार के होते हुए भी, उन के अंदर का क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा एक ही है। स्वर्ण के कितने भी गहने हो, सुनार उस को स्वर्ण के हिसाब से देखता है। समभाव में मनुष्य को संसार की समस्त वस्तु को प्रकृति और पुरुष में, प्रकृति की दृष्टि से भिन्नता मिलेगी, किंतु पुरुष के स्वरूप में उसे परमात्मा के अंश जीव के स्वरूप में सभी जीव में परमात्मा ही दिखेगा। यह विभेद दृष्टि सांसारिक और प्रकृति की है, जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त होगा, वह यह विभेद दृष्टि को त्याग कर अपना कार्य निष्काम भाव से करेगा।
अर्जुन युद्ध भूमि में विभेद दृष्टि में मोह और राग में सामने रिश्तेदारों को देख रहा है किंतु वह लोग उस में शत्रु देख रहे है। कर्तव्य धर्म और परिस्थिति के अनुसार उसे भी समभाव से बिना राग -द्वेष के युद्ध करना चाहिए।
इसी प्रकार समस्त भूतों की स्थिति, गति, रूप-रंग यद्यपि पृथक पृथक दृष्टिगोचर होते है किंतु ज्ञानी पुरुष इस में जन्म – मृत्यु आदि विकारों से रहित नित्य चेतन एक आत्मतत्व को निर्विकार, अविनाशी और असंग रूप से सर्वत्र समभाव से स्थित देखता है, इसलिए वह यथार्थ को देखता है।
वह पुरुष जो इस सम और अविनाशी परमेश्वर को समस्त विषम और विनाशी भूतों में पहचानता है, वही पुरुष वास्तव में उसे देखता है जिसे देखना चाहिए। यहाँ देखने से तात्पर्य आत्मानुभव से है।भौतिक जगत् की वस्तुएं इन्द्रियगोचर होती हैं, जब कि भावनाओं और विचारों का ज्ञान क्रमश मन और बुद्धि से होता है। इसी प्रकार आत्मबोध भी आध्यात्मिक ज्ञानचक्षु से होता है, चर्मचक्षु से नहीं। जैसे हमारे नेत्र विचारों को नहीं देख सकते वैसे ही मन और बुद्धि आत्मा को नहीं देख सकते। स्थूल के द्वारा सूक्ष्म का दर्शन नहीं हो सकता। सूक्ष्मतम आत्मा समस्त उपाधियों से अतीत है।जो (इस समतत्त्व को) देखता है, वही (वास्तव में) देखता है यह कथन वेदान्त की विशेष वाक्यशैली है, जो अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सभी लोग देखते हैं, परन्तु पारमार्थिक सत्य को नहीं। उनके इस विपरीत दर्शन से ही उनके प्रमाणों (ज्ञान के कारणों) में दोष का अस्तित्व सिद्ध होता है। विभ्रम और वस्तु का अन्यथा दर्शन, मिथ्या कल्पनाएं और विक्षेप ये सब वस्तु के यथार्थ स्वरूप को आच्छादित कर देते हैं। इसलिए, योगेश्वर श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि जो पुरुष इस सम सत्य को देखता है वही वास्तव में देखता है। शेष लोग तो भ्रान्ति में पड़े रहते हैं।
यह श्लोक पूर्व में ही हम ने पढ़ा है कि जब समभाव या साम्यबुद्धि उत्पन्न हो जाती है तो प्राणी में विभेद भी समाप्त हो जाता है। यहाँ यह इसलिये लिखा गया है कि जब ज्ञान द्वारा यह जान लिया गया है कि सम्पूर्ण चर-अचर प्रकृति एवम जीव के संयोग से बनी है तो सम्पूर्ण प्राणियो में दो ही तत्व होंगे- एक नाशवान अष्टधा प्रकृति तत्व एवम नित्य आत्मा या क्षेत्रज्ञ तत्व। क्योंकि अष्टधा प्रकृति तत्व प्रकृति की क्रिया है अतः नाशवान है, तो मूल तत्व वो जीव से जिस के संयोग से चर-अचर बना है, एवम वो स्वयं भी वही है। इसलिये सभी मे स्वयं को देखना या एक ही नित्य आत्मा हो देखना ही ज्ञान है जिस से परमगति प्राप्त होती है। इस के विपरीत प्रकृति के दृष्टिकोण से जो विभेद को देखता है, वह अज्ञान अर्थात अविद्या है।
चौरासी लाख योनियों में घूम कर भी जो जानने योग्य स्वस्वरूप है, जिसे हम देख नही सकते, उस परम अगम्य प्रत्यगात्मा जीवात्मा को देख लेना ही परमगति है और जो जीवात्मा को मनुष्य, पशु, कीट आदि भिन्न भिन्न शरीरों में विषमाकार, अनित्य, अज्ञाता समझता है, वह अपनी ही आत्मा का हनन अपने आप करता है और जन्म – मरण के चक्कर में भवसागर में डूब जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि आत्मा ही अपना सब से बड़ा शत्रु और सब से बड़ा मित्र होता है। जब तक जीव आत्मत्त्व को नही जानता, उस का राग – द्वेष नही छूटता।
अष्टवक्र गीता में जनक अपने अद्वैत भाव को व्यक्त करते हुए कहते है।
राजा जनक कहते हैं कि आत्मा हमारा स्वभाव है , वही सत्य है , आनन्द है । उसे प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़ी महिमा है । आत्मज्ञानी ही महामहिम है । अपनी महिमा में स्थित मुझको कहाँ धर्म है ? कहाँ काम है ? कहाँ अर्थ है ? कहाँ विवेकशीलता है ? कहाँ द्वैत है ? और कहाँ अद्वैत है ?
राजा जनक कहते है कि स्थान और समय का बन्धन अज्ञानी को होता है । आत्मज्ञानी इनकी परिधि से बाहर हो जाता है । मैं आत्मस्वरूप हो गया , इसलिए आत्मा ही मेरी महिमा है । अपनी महिमा में नित्य स्थित हुए मुझे कहाँ भूत है? कहाँ भविष्य है ? अथवा कहाँ वर्तमान है ? अथवा देश ही कहाँ है ?
राजा जनक कहते हैं कि अपनी आत्मा में स्थित हुए मुझको कहाँ आत्मा है और कहाँ अनात्मा है ? कहाँ शुभ है और कहाँ अशुभ है ? कहाँ चिन्ता है और कहाँ अचिन्ता है ? राजा जनक की अभिव्यक्ति एकदम स्पष्ट है कि उस स्थिति में पहुँचकर आत्मा , अनात्मा का भेद ही समाप्त हो जाता है , वहाँ केवल आनन्द का बोध होता है , प्राणी शान्त हो जाता है । ऐसा अनुभव होता है , जिसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ।।
श्री वसिष्ठजी कहते हैं–
‘रघुनन्दन ! ज्ञानी पुरुष सब प्रकार की सारी भ्रान्तियों को परमात्मा के अन्दर स्थित जानता है, इसलिए वास्तव में सर्वस्वरूप अजन्मा परमात्मा ही है। परब्रह्म परमात्मा की सर्वरूपता ही उसकी समता है। जैसे कंगन का रूप सुवर्ण से और तरंग की सत्ता जल से कभी पृथक नहीं हो सकती, उसी प्रकार जगत परमेश्वर से भिन्न नहीं है। यह ईश्वर ही जगत रूप है।’
अगले श्लोक में नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण प्राणियों में अविनाशी परमात्मा को और प्रकृति को पृथक पृथक देखने का फल पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 13.28।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)