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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.25 II

।। अध्याय      13.25 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.25

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।

अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥

“dhyānenātmani paśyanti,

kecid ātmānam ātmanā..।

anye sāńkhyena yogena,

karma-yogena cāpare”..।।

भावार्थ: 

कुछ मनुष्य ध्यान-योग में स्थित होकर परमात्मा को अपने अन्दर हृदय में देखते हैं, कुछ मनुष्य वैदिक कर्मकाण्ड के अनुशीलन के द्वारा और अन्य मनुष्य निष्काम कर्म-योग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होते हैं। (२५)

Meaning:

Some behold the self in the self by the self through meditation, others through Saankhya and yoga, and others do so through karma yoga.

Explanation:

Variety is the universal characteristic of God’s creation.  No two leaves of a tree are alike; no two human beings have exactly the same fingerprints; no two human societies have the same features.  Similarly, all souls are unique, and they have their distinctive traits that have been acquired in their unique journey through the cycle of life and death.  So in the realm of spiritual practice as well, not all are attracted to the same kind of practice.  The beauty of the Bhagavad Gita and the Vedic scriptures is that they realize this inherent variety amongst human beings and accommodate it in their instructions.

So far, it seems like we have studied two unrelated topics in our study of the Gita. One one hand, we studied techniques such as saankhya yoga, karma yoga, dhyaana yoga or meditation and bhakti yoga as techniques to access Ishvara. One the other hand, we came across the two- fold downfall of the Purusha, through ignorance of our true nature and subsequent attachment to the gunaas or qualities. In this shloka and the next, Shri Krishna methodically connects these seemingly unrelated topics.

Before we are ready to remove the ignorance of our true nature, we need to deal with our attachment to the three gunaas of Prakriti. In simple terms, we need to deal with our selfish desires. The technique of dealing with our selfish desires depends upon the capability of the seeker. Shri Krishna says that the most advanced seeker has mastered the technique of dhyaana yoga or meditation. They can directly contact the eternal essence “in the self through the self”, which means that they can access the eternal essence through their intellect. This topic was covered in the sixth chapter.

For those who do not have mastery over meditation, saankhya yoga or the yoga of discrimination is recommended. This was the topic of the second chapter. Here, the seeker has great command over their intellect. They can constantly separate the eternal essence from the three gunas, the Purusha from Prakriti, through viveka or discrimination. “The three gunaas, sattva, rajas and tamas are objects of my perception, I am their witness, eternal and distinct from them.” This is how they think all the time. Some commentators interpret the phrase “saankhya and yoga” to include “ashtanga yoga”, which is the technique of accessing Ishvara through yogic exercises and breathing.

For those who cannot practise saankhya yoga or ashtanga yoga, karma yoga, the yoga of selfless action, is recommended. This was the topic of the third chapter. Most of us fit into this category. When actions are performed with the idea of dedication to Ishvara, the mind is gradually purged of selfishness. Such a pure mind becomes ready to receive and internalize the knowledge of one’s true nature described in the present chapter.

As per Shrimad bhaagwad: “True knowledge is that which helps us develop love for God.  The fulfilment of karma occurs when it is done for the pleasure of the Lord.”

Now, what happens if we cannot follow any of these techniques? Shri Krishna explains the simplest technique in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सर्वोपाधिविनिर्मुक्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही आध्यात्मिक साधना का अन्तिम लक्ष्य है, जिसके सम्पादन के लिए अनेक उपाय, विकल्प यहाँ बताये गये हैं। मानव का व्यक्तित्व सुगठन उसी स्थिति से प्रारम्भ होना चाहिए जहाँ वर्तमान काल में मनुष्य स्वयं को पाता है।

विविधता भगवान की सृष्टि की सार्वभौमिक विशेषता है। वृक्ष के दो पत्ते भी एक समान नहीं होते और उसी प्रकार से दो मनुष्यों के अंगुलियों के निशान भी एक जैसे नहीं होते। समान रूप से सभी जीवात्माएँ अद्वितीय हैं और उनके विशिष्ट लक्षण हैं जिन्हे उन्होंने अपनी जन्म मृत्यु की चक्र रूपी अनूठी यात्राओं से प्राप्त किया है। इसी प्रकार से आध्यात्मिक अभ्यास के क्षेत्र में भी सभी लोग एक प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास की ओर आकर्षित नहीं होते। श्रीमद्भगवद्गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों की सुन्दरता यह है कि ये मनुष्यों को मानव जाति में निहित विविध ताओं का बोध कराते हैं और इन्हें अपने उपदेशों में समायोजित करते हैं।

पूर्व में कर्म प्रकृति और परब्रह्म को पढ़ने से यह अवश्य लगता है कि कर्म प्रकृति से जीवात्मा को मुक्त होना, अपने आप में एक चुनौती है। साधन भी वही, साध्य भी वही और साधने वाला भी वही। प्रकृति को न्याय शास्त्र वाले संपूर्ण और अनादि मानते है, जीव प्रकृति के अतिरिक्त कुछ भी नही। यह चैतन्य जीव प्रकृति के परमाणु के मिलन का संयोग है। जब की चैतन्य के बारे में उन की असमर्थता को सांख्य दर्शन में प्रकृति और चैतन्य के संयोग में जीव का होना हल किया गया। किंतु इस से प्रकृति एक और जीव अनंत हो गए। वेदांती लोगो ने कहा कि जीव और प्रकृति का नियामन करने वाली एक ही शक्ति है, उसे हम ब्रह्म कह सकते है, प्रकृति ब्रह्म के संकल्प – विकल्प से उत्पन्न हुई, यह माया अनादि ब्रह्म का ही स्वरूप है और उसी के नियमो में कर्म करती है, जीव ब्रह्म का ही अंश है, जो प्रकृति की माया से कर्तृत्व एवम भोक्त्त्व से जुड़ा है। गीता का कथन है कि संपूर्ण सृष्टि, शक्ति, जीव, प्रकृति, कर्म, माया सभी एक ही परमात्मा से उत्पन्न हुई है, यह उसी से विस्तृत होती है और उसी में विलीन हो जाती है। यह सब कब, क्यों और किस कारण हुआ, इस को अभी तक कोई नही खोज पाया।

श्री वसिष्ठजी कहते हैं  –

‘ जीवित पुरुषों के जीवन की वह अवस्था, जिसमें वासनाऔं का सर्वथा क्षय हो जाता है, जीवन मुक्ति कहलाती है। अज्ञानी बुद्धिहीन इसका अनुभव नहीं कर सकते ।

अतः हे साधक ! तुम वासना को क्षीण करने का प्रयत्न करो । यह अभ्यास के बिना कभी सिद्ध नहीं होता ।। ‘ अतः मुक्ति के लिए विभिन्न मार्ग को मनुष्य अपनाता है।

कुछ लोग ध्यान और ज्ञान योग से अपने को तपा कर इस भेद को खोजते हुए, ब्रह्म स्वरूप हो जाते है। कुछ ब्रह्म तत्व को खोजते है और कुछ कर्म करते हुए, उस साध्य की साधना करते हैं। यह पतंजलि का ध्यान योग, सांख्य का ज्ञानोत्तर कर्मसन्यास योग, कर्म संन्यास में निष्काम कर्मयोग अथवा श्रद्धा और विश्वास से भक्ति का कोई भी मार्ग हो सकता  हैं।

हम शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान, इंजीयरिंग या व्यवसाय में उसी क्षेत्र को चुनते है, जिस में हमारी रुचि है। ज्ञान के भी तीन विषय है- ध्यान, सांख्य एवम कर्म।

क्रमबद्ध पाठों के बिना कोई भी शिक्षा सफल नहीं हो सकती।अत्यन्त अशुद्ध एवं चंचल मन के व्यक्ति के आत्मविकास के लिए भी अनुकूल साधन का होना आवश्यक है। पूर्णत्व के सिद्धांत को केवल बौद्धिक स्तर पर समझने से ही आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान के अनुरूप ही व्यक्ति का जीवन होने पर वास्तविक विकास संभव होता। इसलिए, अपने वैचारिक जीवन को नियन्त्रित करने तथा पुनर्शिक्षा के द्वारा उसे सही दिशा प्रदान करने में साधक को विवेक तथा उत्साह से पूर्ण सक्रिय साधना का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति को आत्मोन्नति के इस मार्ग में कठिनाई का अनुभव होता है।विभिन्न प्रकार एवं स्तर के मनुष्यों के विकास के लिए, प्राचीनकाल के महान् ऋषियों नेविभिन्न साधन मार्गों को खोज निकाला, जिन सब का साध्य एक ही है।

प्रत्येक मार्ग के अनुयायी के लिए वही मार्ग सबसे उपयुक्त है, जो उस की प्रवृति और प्रकृति के अनुकूल हो। किसी एक मार्ग को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। एक औषधालय में अनेक औषधियाँ रखी होती हैं प्रत्येक औषधि किसी रोग विशेष के लिए होती है और उस रोग से पीड़ित रोगी के लिए स्वास्थ्यलाभ होने तक वही औषधि सर्वोत्तम होती है।

ध्यान न तो चित्त की मूढ़ वृत्ति में होता है और न क्षिप्त वृत्ति में होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्ति में आरम्भ होता है। चित्त जब स्वरूप में एकाग्र हो जाता है, तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्था में चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्था में चित्त संसार, शरीर, वृत्ति, चिन्तन आदि से भी उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपने आप से अपनेआप में अपना अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है।

ध्यान के विषय में शंकराचार्य जी लिखते हैं कि शब्दादि विषयों से श्रोत्रादि इन्द्रियों को मन में उपरत करके मन को चैतन्यस्वरूप आत्मा में एकाग्र करके चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। इस चिन्तन में ध्येयविषयक वृत्तिप्रवाह तैलधारा के समान अखण्ड और अविरल बना रहता है।

स्वाभाविक है कि यह मार्ग उन उत्तम साधकों के लिए हैं, जिनका हृदय और विवेक समान रूप से विकसित होता है।आत्मा को देखने का अर्थ नेत्रों से रूपवर्ण देखना नहीं है।

ध्यान योग मुख्यतः उन के लिये उचित है जिन की वृत्ति सत्व गुण प्रधान होती या सत्व-रज में सत्व की मात्रा अधिक होती है।

सांख्ययोग नाम है विवेक का। उस विवेक के द्वारा सत्असत् का निर्णय हो जाता है कि सत् नित्य है, सर्वव्यापक है, स्थिर स्वभाववाला है, अचल है, अव्यक्त है, अचिन्त्य है और असत् चल है, अनित्य है, विकारी है, परिवर्तनशील है। ऐसे विवेक विचार से सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्य से बिलकुल अलग हो जाता है और अपने आप से अपने आप में परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है।

ज्ञान प्राप्त योगी जीव के चार गुण  है, जिन्हें साधन चतुष्टय कहते है।

1 विवेक

2 वैराग्य – निष्काम, निर्लिप्त, निर्द्वन्द भाव से रहना या कर्म करना

3 षट संपत्ति – शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवम समाधान

4 मुमुक्षुत्व

सांख्य योग उस जीव के लिये मार्ग के जिन की वृत्ति सत्व-रज में रजोगुण प्रधान होती है अर्थात रज या सत्व-रज में रज गुण ज्यादा होते है।

कर्मयोगी जो कुछ भी करे, वह केवल संसार के हित अर्थात लोकसंग्रह के लिये ही करे। यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी करे, वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे, अपने लिये नहीं। ऐसा करने से स्वयं का उन क्रियाओं से, पदार्थ, शरीर आदि से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और अपनेआप से अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।मनुष्य ने स्वाभाविक ही अपने में देह को स्वीकार किया है, माना है। इस मान्यता को दूर करनेके लिये अपने में, परमात्मा को देखना अर्थात् देह की जगह अपने में परमात्मा को मानना बहुत आवश्यक है। यही निष्काम कर्मयोग है।

निष्काम कर्मयोग उस जीव के लिये उचित है जिस में रज गुण प्रधान हो अर्थात जहां सांख्य योग में सत्व एवम रज में रज तत्व प्रधान माना गया है, यहां सत्व-रज-तम या तीनो गुण में रज गुण या रज-तम के रज गुण प्रधान माना गया है।

जिन तत्ववेत्ताओं ने ध्यानयोग, सांख्य योग, कर्मयोग प्रकृति के सम्पूर्ण गुण व परिणामो से अपने आत्मा को असंग साक्षात अपरोक्ष कर लिया है, उन पर यद्यपि कोई विधि नही है और वे जीते हुए ही मुक्त है, तथापि शरीर की स्थिति पर्यंत अपनी भिन्न भिन्न शारीरिक व मानसिक प्रकृति के अनुसार उन का भिन्न भिन्न व्यवहार स्वाभाविक हुआ करता है; किसी कर्तव्य कर के नही।

उन में से कोई तो सत्वगुण की प्रबलता से सब व्यवहारों से छूटे हुए श्रीशुकदेव जी की भांति ध्यान व समाधिपरायण रहते है और सब वृत्तियों को गलित कर के आत्माकार वृति का ही पोषण करते है।

कोई याज्ञवल्क्य मुनि के समान प्रवृतियों से छूटे हुए निवृत्तिप्रायण रहते है और तत्व विचाररूप सांख्ययोग द्वारा आत्मा करके आत्मा को देखते है।

कोई प्रवृतिपरायण हुए जनक के समान किसी कर्तृत्व व कर्तव्य के बिना कर्मयोग द्वारा संसार के सब व्यवहारों में देहादि द्वारा प्रवृत्त हुए साक्षी स्वरूप अपने आत्मा का साक्षात रूप से चमत्कार देखते हर। यद्यपि प्रारब्ध के अनुसार इन तत्ववेत्ताओं का व्यवहार भिन्न भिन्न होता है, तथापि निश्चय से वे नित्य मुक्त अपने आत्मा में कोई कर्तव्य नही देखते और ग्रहण त्याग से बुद्धि से छूटे हुए बालको के समान अपना विनोद करते रहते है।

प्रकृति, परमात्मा, आत्मा तथा अन्तःकरण की स्पष्ट जानकारी हो जाने से अर्थात ज्ञान प्राप्त हो जाने से जीव मुक्ति का अधिकारी हो जाता है किंतु पहले भी बतलाया है कि कुम्हार के चाक से घड़ा उतार लेने के बाद भी चाक अपनी गति में घूमता रहता है एवम गति का प्रभाव बन्द होने पर  ही बन्द होता है, इसी प्रकार यह जीव भी शेष जीवन निर्लिप्त हो कर इस लोक में व्यतीत कर के मोक्ष को प्राप्त करता है।

प्रस्तुत श्लोक ज्ञान मार्ग से प्रेरित तीन मार्गो के एकात्मक एवम एक ही लक्ष्य की पूर्ति के मार्ग बता कर गीता ने वेदान्त, सांख्य एवम निष्काम कर्मयोग को संगठित किया है जिसे भविष्य में यह विवाद समाप्त हो जाये कि कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है।

श्रीमद भागवद में कहा गया है कि “सच्चा ज्ञान वह है जो भगवान के लिए प्रेम उत्पन्न करने में सहायता करता है। कर्म की सार्थकता तभी होती है जब यह भगवान के सुख के लिए किया जाता है।”

अगले श्लोक में हम अब हम उन लोगो के लिये जिन्हे हम बद्ध जीव या अज्ञानी कहते हैं, जो स्वयं को नास्तिक, अज्ञेयवादी तथा संशय वादी और आध्यात्मिक ज्ञान विहीन समझते है, उन में भी यदि ज्ञान या मुक्ति की आकांक्षा है, उन के लिए भी ज्ञान का मार्ग पढ़ेंगे । इन का रज-तम में रज गुण तत्व निष्काम कर्मयोग के लिये पर्याप्त नही है। यह मार्ग उन लोगो के लिये भी है जिन्हें गीता व्यवहारिक ग्रंथ नही लगता।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.25।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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