।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.20 II Additional II
।। अध्याय 13.20 II विशेष II
II सांख्य सिंद्धान्त में अनुसार प्रकृति का एक संक्षिप्त अध्ययन भी जरूरी है, जिस से हम प्रकृति एवम पुरुष को समझ सकते है। विशेष भाग – 1, 13.20 II
प्रकृति के विकास में सर्वप्रथम कणाद ऋषि का न्याय शास्त्र आता है। कणाद ऋषि का मानना है कि जगत का मूल कारण परमाणु है, परमाणु का अर्थ वह सूक्ष्म इकाई है, जिस का विभाजन न हो सके। यह परमाणु आपस में मिल कर नए नए पदार्थ की रचना करते है और इन के मिलने से इन के गुण धर्म में परिवर्तन भी होते रहते है, इसी प्रकार मन और आत्मा के भी परमाणु होते है, जिस से चैतन्य का निर्माण होता है। यह सिद्धांत पश्चिम देशों के अतिभौतिकवाद से मिलता है और आज के रसायन शास्त्र का भी नियम भी है। इस में पृथ्वी, जल, आकाश, तेज, वायु सभी के परमाणु है। इसी प्रकार रस, गंध, रूप एवम स्पर्श के भी परमाणु होते है। इस प्रकार 62 प्रकार के परमाणु बताए गए है। जगत में जितने भी पदार्थ है, वह सभी परस्पर परमाणु के संयोग से विभिन्न पदार्थ विभिन्न गुण धर्म के व्यक्त पदार्थ बनते है, जिस के निमित्त का कारक ईश्वर है। इसे हम सृष्टि की उत्पत्ति का आरंभवाद भी कहते है। इस के लिए प्रकृति ही सम्पूर्ण निमित्त मात्र हैं और इस को जड़ अद्वैत भी कहा गया है।
न्याय शास्त्र के परमाणुवाद को उस समय रसायन शास्त्र के सीमित विकास से अधिक मान्यता नहीं मिली, फिर वह यह भी बताने में असक्षम रहा की परमाणु को संयोग की गति का कारण एवम वृक्ष, पशु, मनुष्य इत्यादि सचेतन बढ़ती श्रेणियां किस प्रकार बनी। अचेतन को चेतना कहाँ से प्राप्त हुई।
पश्चिम देशों में परमाणुवाद हेकल ने प्रतिपादित किया और सांख्य का सिद्धांत हमारे यहाँ कपिल ऋषि ने और पश्चिम में डार्विन के उत्क्रांतिवाद के सिद्धांत से प्रतिपादित हुआ।
सांख्य का अर्थ है, संख्या या गिनना, इस के अंतर्गत क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के 25 तत्व गिनने में आए जो हम ने अभी पढ़े है। इस के अतिरिक्त सांख्य तत्व ज्ञान के लिए भी प्रयोग होता है, वह कपिल का सांख्य योग नही है। गीता में सांख्य में कपिल का सांख्य योग एवम तत्व ज्ञान को जहां भी विवादित नही है, वैसा ही लिया गया है।
सांख्यशास्त्रकार न्याय शास्त्र के जड़ अद्वैत को नहीं मानते, उन का कहना है कि मन, बुद्धि और अहंकार पंचभूतात्मक जड़ प्रकृति के ही धर्म है किंतु जड़ प्रकृति से चैतन्य की उत्पत्ति नही हो सकती। इसलिए प्रकृति और पुरुष पृथक पृथक है। इसलिए ज्ञाता और ज्ञेय दोनो को अलग अलग ही मानना चाहिए। अतः सांख्य के अनुसार सृष्टि के पदार्थो के तीन वर्ग हुए, प्रथम अव्यक्त प्रकृति, दूसरा व्यक्त प्रकृति और तीसरा पुरुष अर्थात ज्ञे। इसलिए सांख्य द्वैतवादी होते है, वे वेदांत के अनुसार प्रकृति और पुरुष के ब्रह्म और परब्रह्म को नही मानते।
सांख्य शास्त्र का सिंद्धान्त है कि इस संसार मे नई वस्तु कोई भी उत्पन्न नहीं होती; क्योंकि शून्य से अर्थात जो पहले था ही नही, उस से शून्य को छोड़ और कुछ भी प्राप्त नही हो सकता। इसलिये उत्पन्न हुई वस्तु में, अर्थात कार्य मे, जो गुण देख रहे पड़ते है, वे गुण, जिस से यह वस्तु उत्पन्न हुई है उस मे अर्थात कारण में सूक्ष्म रीति से अवश्य होने ही चाहिए। वृक्ष के बीज में जो द्रव्य है उस का नाश नहीं होता, वही द्रव्य जमीन, वायु एवम जल से दूसरे द्रव्य को खींच कर अंकुर हो कर वृक्ष बनता है। लकड़ी जलाने से धुआं, अग्नि तत्व जो उस मे थे बाहर आते है, कोई नया तत्व नही बनता।
छान्दोग्योपनिषद में कहा है जो है ही नही, उस से , जो है वह, कैसे प्राप्त हो सकता है। इसलिये असत शब्द से केवल नामरूपात्मक व्यक्त स्वरूप या अवस्था का अभाव ही माना गया है। यही कारण के पानी से दही नही जमता या बालू से तेल नहीं निकलता। इसलिये यह सिद्ध होता है किसी भी कार्य के वर्तमान द्रव्यांश और मूल कारण में भी किसी न किसी रूप में रहते है इसको सत्कार्य वाद कहते है।
विज्ञान भी मानता है पदार्थ के जड़ द्रव्य और कर्म शक्ति दोनों सर्वदा मौजूद रहते है; किसी पदार्थ के कितने भी रूपांतर हो जाये; तो भी अंत मे सृष्टि के कुल द्रव्यांश का और कर्मशक्ति का जोड़ हमेशा एक सा बना रहता है। जैसे दिया जलने पर धुंए, काजल, रोशनी आदि का वजन जले हुए तेल से बराबर होगा।
यह सिंद्धान्त वेदान्त में मान्य तो है किंतु इस मे निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति के विषय मे यह सही नही बैठता।
अतः मूल एक ही तत्व से विभिन्न तत्व बनने के नियम में प्रकृति को मूल तत्व माना गया एवम अन्य तत्व प्रकृति की विकृति कहलाये जाते है। एक मूल तत्व से विभिन्न तत्व सत्कार्य वाद के अनुसार सम्भव नही। इसलिये पदार्थ के तीन गुण – सत-रज-तम माने गए। सत -एकदम शुद्ध अवस्था, रज – निर्मल या पूर्णावस्था एवम तम अर्थात निकृष्ट विरुद्ध अवस्था। यह अवस्था स्थायी नही है अतः निकृष्ट से शुद्ध अवस्था को परिवर्तन चौथी अवस्था माना गया। प्रकृति जब साम्यावस्था में होती है तो यह तीनों गुण शांत रहते है, किंतु जब तीनो गुणों में न्यूनाधिक होता है तो विकृति उत्पन्न होती है और सृष्टि की रचना शुरू हो जाती है। प्रकृति जड़ है किंतु अपने आप व्यवहार करती है। इसलिये जितने भी पदार्थ है वो इन तीनो गुणों के ही मिश्रण है। प्रत्येक पदार्थ में तीनों गुणों का रगड़ा-झगड़ा चला करता है और इस मे जो भी गुण प्रबल हो उस के अनुसार पदार्थ को हम पहचानते है।
सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है, जब की रज गुण कामनाओं का एवम तम गुण निंद्रा, आलस्य व स्मृति भ्रंश आदि का। इसी प्रकार जगत के पदार्थ में सोना, लोहा, पारा आदि जो अनेकता ने भिन्नता दिखाई पड़ती है वह प्रकृति के सत्व, रज और तम इन तीनो गुणों का ही परस्पर न्यूनाधिकता का फल है। मूल प्रकृति यद्यपि एक ही है तो भी जानना चाहिए, की यह अनेकता या भिन्नता कैसे उत्पन्न हुई। इसी विचार को विज्ञान कहा गया है जिस की अनेक शाखाएँ रसायन शास्त्र, विद्युत शास्त्र, पदार्थ विज्ञान शास्त्र आदि विविध विज्ञान बने।
साम्यावस्था में रहने वाली प्रकृति को सांख्य शास्त्र में अव्यक्त अर्थात इंद्रियाओ से गोचर न होने वाली कहा। इस प्रकृति के सत्व, रज और तम इन तीनो गुणों की परस्पर न्यूनाधिकता के कारण जो अनेक पदार्थ हमारी इंद्रियाओ को गोचर होते है, अर्थात जिन्हें हम देखते है, सुनते है, चखते है, सूंघते है या स्पर्श करते है उन्हें सांख्य शास्त्र में व्यक्त कहा है। जो पदार्थ हमारी इंद्रियाओ को स्पष्ट रीति से गोचर हो सकते है वे सब व्यक्त कहलाते है; चाहे फिर वे पदार्थ अपनी आकृति, रूप, गन्ध या किसी भी अन्य कारण से व्यक्त होते हैं। अनेक व्यक्त पदार्थो में कुछ पत्थर, पेड़ पशु आदि स्थूल कहलाते है और कुछ जैसे मन, बुद्धि, आकाश आदि व्यक्त होते हुए भी सूक्ष्म कहलाते है। अतः सूक्ष्म का अर्थ छोटा सा न हो कर स्थूल के विरुद्ध महीन ले सकते है क्योंकि आकाश सूक्ष्म है किंतु सर्वव्याप्त है। सूक्ष्म एवम स्थूल से किसी वस्तु की शरीर रचना का ज्ञान होता है एवम व्यक्त व अव्यक्त से हमे बोध होता है कि उस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान हमे हो सकता है या नही। अतएव भिन्न भिन्न पदार्थो में जैसे हवा सूक्ष्म है किंतु स्पर्श इन्द्रिय के कारण व्यक्त भी है।
सभी पदार्थो की मूल प्रकृति अर्थात उस का अणु अत्यंत सूक्ष्म होने से इन्द्रिय गोचर नही है, इसलिये अव्यक्त है।
अनेक व्यक्त पदार्थो के अवलोकन से सत्कार्यवाद के अनुसार यही अनुमान सिद्ध होता है कि इन सब पदार्थो का मूल रूप प्रकृति यद्यपि इंद्रियाओ को गोचर न हो तथापि उस का अस्तित्व सूक्ष्म रूप से अवश्य होना चाहिये। उस समय माइक्रोस्कोप न होने के बावजूद हर पदार्थ के अणु होते है, यह सिद्ध माना गया। वेदान्तियों ने भी ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये इस युक्ति को माना है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष भाग – 1, 13.20 ।।
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