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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.04 II

।। अध्याय      13.04 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.4

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌ ।

स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥

“tat kṣetraḿ yac ca yādṛk ca,

yad-vikāri yataś ca yat..।

sa ca yo yat- prabhāvaś ca,

tat samāsena me śṛṇu”..।।

भावार्थ: 

यह शरीर रूपी कर्म-क्षेत्र जैसा भी है एवं जिन विकारों वाला है और जिस कारण से उत्पन्न होता है तथा वह जो इस क्षेत्र को जानने वाला है और जिस प्रभाव वाला है उसके बारे में संक्षिप्त रूप से मुझ से सुन। (४)

Meaning:

And what is that field, and of what is its nature, and what are its modifications, and from where it was born; and who is he and what are his powers, listen from me in brief.

Explanation:

Since we covered a lot of ground in the prior two shlokas, let us do a quick recap. Shri Krishna said that there is only one kind of knowledge that has to be known by a seeker: that there are several bodies or conditionings called fields, and there is just one knower of the field that is as though limited by these bodies due to ignorance or avidyaa. Since there is a lot more to be said about this subject, Shri Krishna lists all the relevant topics that he has to cover.

Now, a comprehensive list of what includes the nature of Kṣetraṁ is to be studied. What all are included is the nature of Kṣetraṁ, the objective universe, Kṣetraṁ and as different from the subjective experiencer.

Second topic yadvikāri means what are the causes out of which various effects are born. So the details regarding the causes, Kāraṇam. what are the effects born out of various causes? It refers to Kāraṇam and refers to kāryam. One refers to the cause and the other to the effect. The idea is the whole objective universe consists of cause- effect chain only.

With regards to the kshetra, the field, we have to learn about what it is, what are its characteristics, how does it undergo modifications and what it its source. With regards to the knower of the field, the kshetragnya, we have to also learn what it is, what are its powers and what are its effects. This is the theoretical aspect of this chapter. All this will be covered in just a few shlokas, or “in brief” from Shri Krishna’s standpoint, but we will study it elaborately.

Another topic that will be covered in this chapter is the comparison between the individual and the world, how does the individual come in contact with the world, how does he transact with the world, and what are the means of knowledge he can use to maintain the awareness of the field and its knower throughout his life. This is an extremely practical and useful aspect of this chapter.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जिस अर्थ का विस्तारपूर्वक वर्णन करना हो, उस का संक्षेप पहले कह देना उचित ही है, जिस का पहले इदं शरीरम् इत्यादि ( वाक्य ) से वर्णन किया गया है, यहाँ तत् शब्द से उसी का संकेत करते हैं। यह जो पूर्वोवत क्षेत्र है वह जैसा है अर्थात् अपने धर्मों के कारण वह जिस प्रकार का है तथा जैसे विकारों वाला है और जिस कारण से जो कार्य उत्पन्न होता है – यहाँ च शब्द समुच्चय के लिये है और कार्य उत्पन्न होता है यह वाक्यशेष है तथा जिसे क्षेत्रज्ञ कहा गया है वह भी जिस प्रभाववाला अर्थात् जिन जिन उपाधिकृत शक्तियोंवाला है, उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों का उपर्युक्त विक्षेषणों से युक्त यथार्थ स्वरूप तू मुझ से संक्षेप से सुन अर्थात् सुनकर निश्चय कर।

भगवान् श्रीकृष्ण न केवल क्षेत्र की वस्तुओं का उल्लेख ही करेंगे, वरन् क्षेत्र के गुण धर्म, उस के विकार तथा कौन से कारण से कौन सा कार्य उत्पन्न हुआ है, इस का भी वर्णन करेंगे।

उसी प्रकार, क्षेत्रज्ञ का स्वरूप तथा उपाधियों से सम्बद्ध उसके प्रभाव को भी इस अध्याय में बतायेंगे। जिन कारणों से हमारे जीवन की समस्यायें उत्पन्न होती हैं उनकी ओर से दृष्टि फेर लेने का अर्थ है, समस्या को नहीं सुलझाना। हमारे आसपास का यह जगत्, जिसे हमने ही प्रेक्षित किया है तथा वे ही प्रक्रियायें जिनके द्वारा हम कार्य करते हुये असंख्य विषयों, भावनाओं और विचारों की विविधता को देखते हैं इन सब का हमें सूक्ष्म निरीक्षण तथा अध्ययन करना चाहिये। इसकी उपेक्षा करने का अर्थ स्वयं को विशाल आवश्यक सारभूत ज्ञान से वंचित रखना है।

शत्रुओं के विरुद्ध युद्धनीति सम्बन्धी योजना बनाने के लिए शत्रुपक्ष की रणनीति का कमसेकम सामान्य ज्ञान होना आवश्यक होता है। इसी प्रकार क्षेत्र से युद्ध करके उस पर विजय पाकर उसके बन्धनों से स्वयं को मुक्त करने के लिये यह जानना आवश्यक है कि क्षेत्र क्या है तथा परिस्थिति विशेष में ये उपाधियाँ किस प्रकार कार्य और व्यवहार करती हैं। इस प्रकार, शरीरशास्त्र, जीवशास्त्र, मनोविज्ञान तथा अन्य प्राकृतिक विज्ञान की शाखायें भी जीवन को समझने में अपना योगदान देती हैं। अध्यात्म का ज्ञानमार्ग समस्त लौकिक विज्ञानों का चरम बिन्दु है और उसकी पूर्तिस्वरूप है। इस बात की पुष्टि इसी तथ्य से होती है कि युद्धभूमि पर भी अर्जुन को इस ज्ञान का उपदेश देते समय, भगवान् इस बात पर बल देने के लिए भूलते नहीं कि इस क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान होना महत्व की बात है। इसका हमें सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये।

इस श्लोक में भगवान शरीरारम्भक द्रव्य, शरीराश्रित पदार्थ, शरीर के विकार, शरीर के प्रयोजन, आत्मा का स्वरूप और आत्मा के प्रभाव को बताने की बात कह रहे है। क्योंकि इस विषय पर सैंकड़ो वर्षो से चिंतन-मनन होता रहा है, इसलिये  उस का सार संक्षेप में कहा जा सकता है। सरल भाषा मे यह कहे कि महत्ता उस परब्रह्म की है, जिस संकल्प से सृष्टि की रचना हुई और मोक्ष परमलक्ष्य होना चाहिए, किन्तु विकारों के रहते महत्ता के गुणगान प्रकृति और योगमाया के हो रहे है और हम सत्य से पीछे जा रहे है। अतः सत्य क्या है, उसे जानना आवश्यक है।

सम्पूर्ण ज्ञान क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को जानना है और द्वितीय और तृतीय श्लोक इतना कठिन था, कि सामान्य जन समझ ही नही सके, तो उस को सरल जनभाषा में होना आवश्यक है। क्षेत्र उत्पत्ति, विनाश, धर्मावाला, जड़, अनित्य, ज्ञेय और क्षणिक है, इस के विपरीत क्षेत्रज्ञ नित्य, चेतन, ज्ञाता, निर्विकार, शुद्ध और सदा एक सा रहनेवाला है। अतएव दोनो परस्पर अत्यंत विलक्षण है, अज्ञान से ही दोनों में एकता सी प्रतीत होती है। इस तथ्य को समझना ही ज्ञान है।

अब, क्षेत्र की प्रकृति में क्या शामिल है, इसकी एक व्यापक सूची का अध्ययन किया जाना है। इस में जो कुछ भी शामिल है, वह क्षेत्र की प्रकृति, वस्तुनिष्ठ ब्रह्मांड, क्षेत्र और व्यक्तिपरक अनुभवकर्ता से अलग है।

दूसरा विषय यदविकारी का अर्थ है कि वे कौन से कारण हैं जिनसे विभिन्न प्रभाव पैदा होते हैं। तो कारणों के बारे में विवरण, कारणम। विभिन्न कारणों से पैदा होने वाले प्रभाव क्या हैं? यह कारणम को संदर्भित करता है और कार्यम को संदर्भित करता है। एक कारण को संदर्भित करता है और दूसरा प्रभाव को। विचार यह है कि संपूर्ण वस्तुनिष्ठ ब्रह्मांड केवल कारण-  कार्य और प्रभाव की श्रृंखला से बना है।

इसलिये पूर्वश्लोक में जिस को संक्षेप से सुनने के लिये कहा गया है, उस का विस्तार आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.4।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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