Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.03 II Additional II

।। अध्याय      13.03 II विशेष II

।। महावाक्य ।। गीता- विशेष 13.03 ।।

वेदान्त इस तथ्य को उजागर करता है कि आपको बाहर से किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। अपने वास्तविक स्वरूप में आप सदैव सुरक्षित हैं। इसलिए वेदान्त सुरक्षा नहीं देता, वेदान्त असुरक्षा की भावना को दूर करता है। वेदान्त असुरक्षा की भावना को दूर करता है, और यही कारण है कि वे ज्ञानी और उनमें से कई संन्यासी हैं और उनके पास पकड़ने के लिए कुछ नहीं है, उनके पास अपना परिवार नहीं है, उनके पास बैंक खाता नहीं है, उनके पास कोई अन्य संपत्ति नहीं है, उनके पास भोजन के लिए रसोई नहीं है, वे नहीं जानते कि अगला भोजन कहाँ से आएगा। सांसारिक दृष्टि से वे सब से असुरक्षित लोग होंगे, लेकिन आप उन ज्ञानियों को देखें, वे संपत्ति रखने वाले अन्य सभी लोगों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। वास्तव में संपत्ति जितनी अधिक होगी, आपको उतने ही अधिक सुरक्षा गार्डों की आवश्यकता होगी।  इसलिए कृष्ण कहते हैं: क्षेत्रेत्रयो, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ यों ज्ञानम्, क्षेत्र और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के बीच का यह ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। और इसे आत्म ज्ञानम् कहते हैं।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान में जो ज्ञानी है वह विस्तार से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानता है। जो क्षेत्रज्ञ के एकत्व को भी जानता है, वह ही ब्रह्मसिद्ध है। क्योंकि परमात्मा समस्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को एकीकृत किए हुए है। अतः इस ज्ञान को महावाक्य द्वारा कहा गया है।

परमात्मा ने आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी चार प्रकार के भक्त बताए थे। जन सामान्य के अनुसार हम अध्यात्म को सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाने के लिए अपनाते है। इसलिए प्रार्थनाएं कष्ट निवारण या कष्ट सहने की क्षमता प्रदान हो इसलिए की जाती है। कुछ व्यक्ति अपने बौद्धिक विकास के लिए वेद, उपनिषद या पुराण का अध्ययन करते है और कुछ इस को अपनी आजीविका का माध्यम बनाने के लिए अध्ययन करते है, जिस के लिए वह विभिन्न कर्म कांड करते रहते है या फिर प्रवचन या गोष्ठी आयोजित करते है। कुछ अपनी प्रतिष्ठा के लिये बड़े बड़े आयोजन और सभा भी करते है और आश्रम, संगठन या संस्था भी बनाते है।

यदि इन सब का गहन अध्ययन किया जाए तो यह समस्त कर्म क्षेत्र के लिए विभिन्न उद्देश्य से किये कर्म है।

हमे यह नही भूलना चाहिए कि किसी अच्छे वाक्य, परमात्मा की सगुण तस्वीर, दान, दया, धर्म या निष्काम कर्म की संतुष्टि इन्द्रिय-मन-बुद्धि और चेतन के सयंम के लिए होती है। आत्मा तो अकर्ता, नित्य, साक्षी और निर्लिप्त है, उस को इन सब से कुछ नही होता, यह सब इसी प्रकृति अर्थात क्षेत्र का ही कर्म है, जिसे हम मन और बुद्धि से आत्मा का कार्य भले ही कह दे, किन्तु कर्म हमेशा क्षेत्र के अधिकार का विषय है। फिर गीता जैसे महान ग्रन्थ को भी पढ़ने के बाद यही कामना, मोह और लोभ अर्थात राग-द्वेष यदि नही जाता, तो यही कह सकते है कि प्रकृति अपने क्षेत्र में कर्म कर रही है और क्षेत्रज्ञ के समझने के प्रकृति के संसाधनों का दुरुपयोग ही किया जा रहा है।

इन से कुछ आगे कुछ लोग परलोक के दान, पुण्य, यज्ञ आदि करते है, जिस से देह त्याग के बाद उन्हें स्वर्ग या ब्रह्मलोक में स्थान मिले। सांसारिक दृष्टि से यह समस्त कर्म निस्वार्थ और निष्काम कहलाते है क्योंकि उन्हें किसी सांसारिक जीव से कुछ भी अपेक्षा नही होती, किन्तु वेदांत इस कर्म को भी कामना और आसक्ति में लेता है। क्योंकि अच्छे  कर्म के फल स्वर्ग या विभिन्न लोक में भोगने के बाद जीव को मोक्ष के लिये पुनः मृत्यु लोक में आना ही पड़ता है।

मेरा निजी अनुभव यही है कि ज्ञान के क्षेत्र में अक्सर व्यक्ति अपने आत्म संतोष के लिये अध्यात्म को चुनता है और जिस से उस के मन खुशी मिले, उसे ही अध्यात्म कहता है। इसलिए गम्भीर और गहन विषय पर भी वह कोई कष्ट या क्लेश नही लेना चाहता। यह अज्ञानी का आध्यात्मिक ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नही है और आज के युग मे सोशल मीडिया में इसी का अधिक प्रचलन है। गीता को आत्मसात करनेवाले कोई एक मिल जाये तो बड़ी बात समझो किन्तु उस को धाराप्रवाह बोलने वाले और उस की शिक्षा देने वाले अनेक है। इसलिए ही कहा गया है गीता अर्जुन को कृष्ण ने सुनाई थी और आज सभी कृष्ण बन कर गीता सुना रहे है किन्तु अर्जुन कोई भी नही बन रहा।

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान मोक्ष का ज्ञान है। जीव परब्रह्म का अंश है, वह प्रकृति से उस के गुण सत-रज-तम से जुड़ा है और योग माया से भ्रमित है। वह सम्पूर्ण सृष्टि का रचयिता अर्थात ब्रह्म का अंश है, इसे तभी जान सकता है, जब उसे क्षेत्रज्ञ का ज्ञान आत्मसात हो जाये। यह ज्ञान किसी पुस्तक में लिखी इबादत या महावाक्य के रटने से नही हो सकती। अपने को जानने और पहचानने के लिए दर्पण नही चाहिये क्योंकि इस का कोई अक्स भी नही है। जब ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय सभी एक हो जाये तो कुछ शेष रहता ही नही। यह महावाक्य उसी महानतम ज्ञान के है।

महावाक्य से उन उपनिषद वाक्यो का निर्देश है जो स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है –

अहं ब्रह्मास्मि – “मैं ब्रह्म हुँ” ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० – यजुर्वेद)

तत्त्वमसि – “वह ब्रह्म तु है” ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )

अयम् आत्मा ब्रह्म – “यह आत्मा ब्रह्म है” ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ – अथर्ववेद )

प्रज्ञानं ब्रह्म – “वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है” ( ऐतरेय उपनिषद १/२ – ऋग्वेद)

सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् – “सर्वत्र ब्रह्म ही है” ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )

उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है।

उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।

परिचय

कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद “शुकरहस्योपनिषद ” में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश ‘ब्रह्म रहस्य’ के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं-

ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म,

ॐ अहं ब्रह्मास्मि,

ॐ तत्त्वमसि, और

ॐ अयमात्मा ब्रह्म

प्रज्ञानं ब्रह्म

इस महावाक्य का अर्थ है- ‘प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।’ वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही ‘ब्रह्म’ है।

अहं ब्रह्माऽस्मि

इस महावाक्य का अर्थ है- ‘मैं ब्रह्म हूं।’ यहाँ ‘अस्मि’ शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कह उठता है।

तत्त्वमसि

इस महावाक्य का अर्थ है-‘वह ब्रह्म तुम्हीं हो।’ सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय ‘ब्रह्म’ ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।

अयमात्मा ब्रह्म

इस महावाक्य का अर्थ है- ‘यह आत्मा ब्रह्म है।’ उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को ‘अयं’ पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही ‘आत्मा’ है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व’ है।

अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-‘हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप ‘ब्रह्म’ को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।’

भगवान शिव के उपदेश को सुन कर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।

अध्याय 13 से 17 तक मे हमे इन  महावाक्य को स्मृति में रखते हुए, आगे पढ़ना है।

।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 13.03 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply