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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  12.19 II

।। अध्याय      12.19 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 12.19

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥

“tulya-nindā-stutir maunī,

santuṣṭo yena kenacit..।

aniketaḥ sthira-matir,

bhaktimān me priyo naraḥ”..।।

भावार्थ: 

जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने निवास स्थान में कोई आसक्ति नही होती है ऎसा स्थिर-बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित मनुष्य मुझे प्रिय होता है। (१९)

Meaning:

To whom praise and insult are same, who is silent, content with anything, who is without a home, with unwavering mind, a person who is such a devotee is dear to me.

Explanation:

Shri Krishna continues summarizing the twelfth chapter in this shloka by listing further attributes of the perfected devotee.

Take praise and reproach alike.  For those who are externally motivated, the appreciation and rejection by others is all- important.  However, devotees are internally motivated by the principles they value within themselves.  Hence, neither commendation nor denunciation by others makes any difference to them.

Given to silent contemplation.  Crows and swans have diametrically opposite choices.  While crows are drawn to garbage piles, the majestic swans are attracted by tranquil lakes. Similarly, the minds of worldly people find great relish in conversing about materialistic topics.  But the saintly devotees possess pure minds, and thus worldly talks seem as attractive to them as a pile of garbage.  This does not mean that they do not converse.  Like the swan drawn to the lakes, their minds are drawn toward topics such as the Names, Forms, Pastimes, and Glories of God.

Content with whatever comes their way.  The needs of the devotees shrink to the bare necessities for maintaining the body.  Saint Kabir expresses this in his famous couplet:

“O Lord, give me just enough for the bare maintenance of my family’s bodily needs, and for giving alms to the sadhu who comes to my door.”  

Without attachment to the place of residence.  No earthly home can be a permanent residence for the soul, for it must necessarily be left behind at the time of death.  When the Mogul Emperor, Akbar, built his capital, Fatehpur Sikri, he put the following inscription on the main entrance gate: “The world is a bridge; cross over it but build no house on it.”  In the same vein, Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj states:

“Live in this world as a traveller lives in a wayside inn (aware that it is to be vacated the next morning).” (Rādhā Govind Geet)

Realizing the truth of this statement, devotees look on their home as only a temporary dwelling place.

Intellect is firmly fixed in Me.  Devotees have deep conviction in the supremacy of God’s position in creation and in their eternal relationship with Him.  They are also firm in their faith that if they surrender to Him lovingly, by God’s grace they will achieve the highest realization.  Hence, they neither wander from attraction- to- attraction or from path- to- path.  Shree Krishna declares such resolute devotees to be very dear to Him.

The ocean is not affected whether it gets a torrential downpour or no rain at all. It happily accepts whatever comes its way because it is content with itself. Similarly, the devotee is content in his constant devotion to Ishvara, and therefore accepts whatever comes his way without any complaint. The devotee also does not have an attitude of possession towards anything, including his home. Like the wind that comes and goes anywhere as it pleases, the devotee considers the entire world his home and is attached his house, his physical body, his mind, his intellect, or his desires.

As we proceed along the path of devotion, we will notice that our mind shifts between giving reality to the world as part of Ishvara and giving reality to the world as separate from Ishvara. As long as we give reality to the world as an independent entity, we can never get rid of our unfulfilled desires, and the attachment to the world that results from those desires. A perfected devotee is one whose mind is fixed on giving reality to the world as a part of Ishvara, giving up all selfish desires in the process. Shri Krishna says that a person who harbours all these attributes is fit to be called a naraha, a human being, in the true sense of the world. Such a devoted person is very dear to him.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्लोक 19-20 युग्म श्लोक है इसलिये आचरण के पूर्व श्लोक में हम ने भक्त के गुणों में  मित्र-शत्रु के साथ सम भाव, मान-अपमान में सम भाव, गर्मी-सर्दी में समान भाव एवम सुख-दुख में सम भाव पड़ा। इस के अतिरिक्त संगविर्वजित अर्थात पूर्णतः अहम एवम आसक्ति रहित है जाना।

जीव जब जड़ से मिलता है जो जड़ चेतन हो जाता है इसलिये वह वस्तुतः विकास-क्षरण फिर नाश को प्राप्त हो जाता है। यह विकास, क्षरण से जीव को आसक्ति हो जाती है एवम वह स्वयं को परमात्मा का अंश न मान कर अनित्य जड़ पदार्थ को ही अपना स्वरूप मान लेता है, क्योंकि इंद्रियां प्रकृति से सुख-दुख का अनुभव कराती है, मन राग-द्वेष को जन्म देता है एवम अहम मान-अपमान को। जीव यह भूल जाता है की वो परमात्मा का अंश है और आसक्ति से लिप्त हो रहा जाता है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह आसक्ति जीव से जुड़ी रहती है एवम जीव आसक्ति एवम अहम के साथ जुड़ जाता है।

प्रशंसा और निंदा में एक समानः वे जो बाह्य रूप से प्रेरित होते हैं उनके लिए अन्य लोगों की प्रशंसा और निंदा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। किन्तु भक्त आंतरिक रूप से अपने अंतर के सिद्धांतों जिन्हें वे महत्व देते हैं, से प्रेरित होते हैं। इसलिए अन्य लोगों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा और निंदा से उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

शरीर से जुड़े होने से केश एवम नाखून भी वृद्धि को प्राप्त होते है किंतु क्या उन में जीव है। क्योंकि आसक्ति न होने से उन्हें काट देने से कोई दुख नही होता एवम कट जाने से उन की कोई वृद्धि नहीं होती। इसलिये संगविर्वजित होने का अर्थ ही है किसी भी घटना, वस्तु, कर्म, भाव आदि को शारीरिक अहंता एवम ममता से ग्रहण न करना।

इसलिये ऐसे भक्तों के लिये कहा गया है उन्हें निंदा- स्तुति दोनों ही समान लगती है, जिस ने मन-बुद्धि पर नियंत्रण कर लिया है जिस से वह स्थिर है और किसी भी प्रकार के भाव उस मे उत्पन्न नहीं होते। ऐसे भक्त जो मन एवम वाणी दोनों से ही संतुलित है एवम जो कहते, सुनते है वो ही वचन है, जिन का चित्त मनन शील है किंतु जिस ने विचारों को नियंत्रित कर लिया है वो हो मौन है। ऐसे भक्त हर प्रकार से संतृष्ट रहते है। संसार की कोई चीज उन्हें उद्विग्न नही कर सकती।

जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है, वे ही अनिकेत हों – ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी, जिन की अपने रहने के स्थान में ममता आसक्ति नहीं है, वे सभी अनिकेत हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उस को अनिकेतः कहा गया है। अनिकेत के लिये राजा जनक या दधीचि ऋषि का उदाहरण ले सकते है। क्योंकि वो जानता है कि यह जमीन, जायदाद, घर, संसार एवम शरीर उस का नहीं है और उस के साथ नही जाएगा। इसलिये जो उपलब्ध के उस से लोकसंग्रह के लिये कर्म करो। कुछ लोग अनिकेत से वो सन्यासी होना भी मानते है जो किसी एक स्थान पर नही टिकते।

भक्त की बुद्धि में भगवत्तत्त्व की सत्ता और स्वरूप के विषय में कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उस की बुद्धि भगवत्तत्त्व के ज्ञान से कभी किसी अवस्था में विचलित नहीं होती। इसलिये उस को स्थिरमतिः कहा गया है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उस को कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार, स्वाध्याय आदि की जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से भगवत्तत्त्व में तल्लीन रहता है।स्थिरबुद्धि होने में कामनाएँ ही बाधक होती हैं। अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है।

मौन चिंतनः कौए और साँप की पसंद एक दूसरे से विपरीत होती है। कौएँ गंदगी के ढेर पर आकर्षित होते हैं जबकि भव्य सोँ का आकर्षण शांत झील होती है। समान रूप से सांसारिक लोगों का मन लौकिक विषयों पर वार्तालाप करने में अत्यंत आनन्द प्राप्त करता है। लेकिन संतों का मन शुद्ध होता है इसलिए उन्हें सांसारिक विषय उसी प्रकार से आकर्षित प्रतीत नहीं होते जैसा कि वे गंदगी का ढेर हों। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे वार्तालाप नहीं करते। जिस प्रकार सर्प झील की ओर आकर्षित होते हैं उसी प्रकार से उनका मन भगवान के नाम, गुण, रूप, लीलाओं और भगवान की महिमा के व्याख्यान जैसे विषयों की ओर आकर्षित होता है।

ज्ञानी पुरुष और भक्त में एक समान समानता है। धीर, गम्भीर, निर्भय, अनासक्त, समभाव, स्वभाव से फक्कड़, प्रत्येक कार्य को परमात्मा का समझ कर करनेवाला। अधिकांश मनुष्य प्रायः ऐसे मनुष्य का चित्रण साधु के समान पुरुष का करते है किंतु भगवद गीता में यह चित्रण उस के आन्तरिक स्वभाव को ले कर है। युद्ध भूमि में अर्जुन को उपदेश देते हुए, कर्तव्य कर्म युद्ध छोड़ने को नही कहा गया। सांसारिक जीवन मे भी हमे हमारे व्यवसायिक और सामाजिक विद्या और कर्म उसी प्रकार करते रहना चाहिए, जिस से हम श्रेष्ठतम कहलाये। इस के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी नीति न्यायोचित है, किन्तु इस मे सर्वश्रेष्ठ गुण निष्काम और लोकसंग्रह के लिए कर्म का होना है। वेशभूषा और रहन सहन कर्म के अनुसार होना चाहिए और आधुनिक संसाधनों का उपयोग उन के निर्माताओं के प्रति कृतज्ञ भाव से करना आना चाहिए, किन्तु मोह, ममता, लोभ और स्वार्थ अर्थात राग और द्वेष नही होना चाहिए। भक्ति मार्ग के गुण संसार मे व्यक्तित्व विकास के सर्वश्रेष्ठ गुण है, वह न केवल हमारे जीवन का, बल्कि परिवार और समाज के जीवन का भी आधार होना ही चाहिये।

जो कुछ मिल जाए उसी में संतुष्ट होनाः शरीर की देखभाल के लिए भक्त अति न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीवन निर्वाह करते हैं।

इस संबंध में संत कबीर का प्रसिद्ध दोहा इस प्रकार से है: मालिक इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाए। मैं भी भूखा न रहू, साधु न भूखा जाए।।

हे भगवान मुझे केवल उतना ही दीजिए कि जिससे मेरे परिवार की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और अपने द्वार पर आने वाले साधु को भी मैं कुछ दान दे सकूँ।”

घर-गृहस्थी से ममता रहितः जीवात्मा के लिए पृथ्वी पर स्थायी निवास नहीं होता क्योंकि मृत्यु के पश्चात यह संसार में ही रह जाता है। जब मुगल शहंशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी में अपनी राजधानी स्थापित की तब उसने मुख्य प्रवेश द्वार के शिला लेख पर निम्नलिखित शब्द उत्कीर्ण करवाएँ-“यह संसार एक पुल है इसे पार करो किन्तु इस पर कोई घर न बनाओ।”

इसी संबंध में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सुंदर वर्णन किया है; जग में रहो ऐसे गोविन्द राधे।धर्मशाला में यात्री रहें ज्यों बता दे।।(राधा गोविन्द गीत)

संसार में एक यात्री के समान रहो जो मार्ग में आने वाली धर्मशाला में ठहरता है, यह जान लो कि अगली सुबह उसे इसे खाली करना पड़ता है।” इस कथन को सत्य समझकर भक्त अपने निवास स्थान को केवल अस्थायी निवास स्थान के रूप में देखता है। दृढ़ बुद्धि के साथ मेरे प्रति समर्पणः सृष्टि में भगवान के परम पद और उसके साथ अपने नित्य संबंधों के प्रति भक्तों की गहन आस्था होती है। उनमें यह दृढ़ विश्वास होता है कि अगर वे प्रेमपूर्वक भगवान के शरणागत होते हैं तब वे भगवान की कृपा से परम सत्य को पा सकते हैं। इसलिए वे न तो भिन्न-भिन्न आकर्षणों और न ही एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर भटक सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसी दृढ़ बुद्धि वाले भक्त मुझे अति प्रिय है।

ऐसा भक्तिमान पुरुष (नर) मुझे प्रिय है। नर शब्द से यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो पुरुष कम से कम इस भक्ति मार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है, वही गीताचार्य की दृष्टि से विकसित मनुष्य कहलाने योग्य है। इन दो श्लोकों को मिला कर यह पांचवा भाग है जिस में भक्त के दस लक्षण बताये गए हैं। इस प्रकार अब तक छत्तीस गुणों का वर्णन करके भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ज्ञानी भक्त का सम्पूर्ण शब्दचित्र चित्रित कर दिया है। इस चित्र में हमें भक्त का व्यवहार, उसका मानसिक जीवन और जगत् के प्राणियों एवं घटनाओं के प्रति उसके बौद्धिक मूल्यांकन आदि का दर्शन होता है।

भक्तियोग में उपरोक्त गुण हम किस प्रकार अपने आचरण, स्वभाव और व्यक्तित्व में ला सकते है। गुण जब सीखे जाते है तो वह वस्त्र ओढ़ने के समान है, मानसिक या आत्मिक स्थिति उस गुण के अनुसार नही बदलती। मन मे ईर्ष्या भाव रख कर भी व्यक्ति मधुर भाषा मे बात कर सकता है और लोभ में डूबा व्यक्ति भी त्याग की बाते कर सकता है। भक्त के यह समस्त गुण- लक्षण सीखने की बजाए भक्त की श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ स्मरण और समर्पण की उच्चतम स्थिति में यह गुण, उस के नैसर्गिक गुण बन कर उस के भक्त के स्वरूप मे स्वतः ही आ जाते है। परमात्मा भी कहते है, जो भक्त मेरे परायण हो कर मुझे भजता है, उसे ज्ञान मैं ही प्रदान करता हूँ। भक्ति मार्ग श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ परमात्मा के प्रति समर्पण और स्मरण का है। इस के उदाहरण में भक्त प्रह्लाद, जो कितनी भी विपदा में परमात्मा के प्रति विस्वास से नही डिगे का ले सकते है। वृंदावन की गोपियों का प्रेम उस पराकाष्ठा को छूता है, जहाँ ब्रह्म स्वयं उन के संग रास में नाचने को विवश है। सूरदास, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु आदि  अनेक भक्तियोगी भक्त के चरित्र के गुण उन में प्रेममय भक्ति से ही आये। इसी  प्रेम रस में डुबो कर व्यास जी ने श्रीमद्भागवद पुराण रचा।

एक उत्तम भक्त के नैतिक एवं सदाचार के गुणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए अगले अंतिम श्लोक में भगवान् क्या कहते हैं, यह हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 12.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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