।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.12 II
।। अध्याय 12.12 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 12.12॥
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
“śreyo hi jñānam abhyāsāj,
jñānād dhyānaḿ viśiṣyate..।
dhyānāt karma-phala-tyāgas,
tyāgāc chāntir anantaram”..।।
भावार्थ:
बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान का अनुशीलन करना श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ समझा जाता है और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि ऎसे त्याग से शीघ्र ही परम-शान्ति की प्राप्त होती है। (१२)
Meaning:
Knowledge is superior to practice, meditation is superior to knowledge, and renunciation of fruits of actions is superior to meditation, for peace immediately follows renunciation.
Explanation:
The last four shlokas laid out a series of stages that enable us to access Ishvara based on our qualifications. They were laid out in descending order, addressing the most qualified to the least qualified. Jnyaana yoga was prescribed for those who have given up attachment to the body, abhyaasa yoga for those who can sit for meditation, bhakti yoga for those who can perform every action for Ishvara, and karma yoga for those who can dedicate the results of their actions to Ishvara.
Here, Shri Krishna provides a recap of those four shlokas as well as providing some additional insights into the nuances of each stage. He first says that knowledge is superior to practice. Here, practice refers to mere mechanical chanting of japas without the involvement of the mind or the intellect. Such inert practice will not lead us anywhere. Shri Krishna cautions us against jumping into meditative practice without the knowledge of what we are doing, how to do it, what is the goal and so on.
Next, he says that meditation is superior to knowledge. Here, the word meditation is used in the sense of a higher kind of knowledge, one that does not create a distinction between the knower and the known, one that is a direct, intuitive understanding of Ishvara. This higher kind of knowledge is superior to dry, academic knowledge gained through a cursory reading of the scriptures without the guidance of a guru, and without the perfect internalization of that knowledge through a pure mind and intellect. In this sense, meditation or higher knowledge is superior to purely academic knowledge.
Since contradictory statement needs repitation to understand perfectly. Lord Krishna talks about four types of sādanās. And having talked about four types of sādanās, Lord Krishna grades them; from the lowest to the highest; four levels of sādanā. And what are the four sādanās? No.1 abhyāsaḥ (Practice); No.2 jñānam (knowledge); No.3, dhyānam (medidation); and No.4, karma phala tyāgaḥ (Sacrifice).
It is just reverse to previous list of five sādanās (Devotion); OK in that five sādanā list; karma phala tyāgaḥ is given as the lowest one. We started from third and then He gave jñāna yōga; and Viśvarūpa upāsana is the next lowest sādanā; ēkarūpa upāsana is the next lower one; then niṣkāma karma pradhāna yōga; next lower one; the lowest one is what? karma phala tyāgaḥ.
Whether he plays with us or confuse us. It is questionable and answer always stands with faith, love and trust on GOD. in absence of all three top is lowest and lowest is topmost with all three devotions. We shall also keep in mind the three qualification of nature sattav, rajas and tamas. We also know that human is under influence of Affinity (raag) and Jealousy (dwaish). Without sacrificing influence of nature and development of sattav, the meditation, knowledge and practice has no meaning. The sattav needs your sacrifice towards fruit of any work means to become nishkaam karmyogi.
We must remember Saint Balmiki who started bhakti with name jaap “mara mara” and reach to highest status. Bhakti is not mechanism to achieve the highest status, it is purely devotion with love, faith and trust and also surrender to GOD. Hence to start the journey for liberisation, we must start with nishkaam bhakti.
In fact, in Sanskrit, do you know what is the meaning of the word prasādaḥ; normally when I say prasāda, what thought comes to your mind; vadai, chundal, kadalai, laddu. Remember the meaning of the word prasādaḥ is tranquility of mind; equanimity of mind; it is derived from the root; pra + sad, sad is the root; pra is the prefix; prasādaḥ means mana śānthī or peace in mind. Whatever circumstance in which we live, what is in surrounding of us, whatever we effort and achieve, we must accept as Prasad, even it is spouse, children, post, place, health or money.
Now to get to these two stages, we have to take stock of our qualifications. Shri Krishna knew that the majority of people would have a great sense of attachment to the body, as well as a large stock of selfish desires that prompt them to selfish actions. They need a technique that is appropriate for their qualifications, and that will bring them to a stage where they can eventually practice meditation. For such individuals, renunciation of the fruits of actions, or karma yoga, is superior to meditation. Only renunciation will bring short term peace through reduction of worry for the future, and long-term peace by making us qualified for meditation.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान् ने आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक एक-एक साधन में असमर्थ होने पर क्रमशः समर्पण-योग, अभ्यासयोग, भगवदर्थ कर्म और कर्मफल- त्याग, ये चार साधन बताये। उपर्युक्त चारों साधन स्वतन्त्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। साधकों की रुचि, विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण ही भगवान् ने आठवें से ग्यारहवें श्लोक तक अलग- अलग साधन कहे हैं।
जहाँ तक कर्मफलत्याग के फल- (भगवत्प्राप्ति) को अलग से बारहवें श्लोक में कहने का प्रश्न है, उस में यही विचार करना चाहिये कि समर्पणयोग, अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करने से भगवत्प्राप्ति होती है, यह तो प्रायः प्रचलित ही है; किंतु कर्मफलत्याग से भी भगवत्प्राप्ति होती है, यह बात प्रचलित नहीं है। इसीलिये प्रचलित साधनों की अपेक्षा इस की श्रेष्ठता बताने के लिये बारहवाँ श्लोक कहा गया है और उसी में कर्मफल त्याग का फल कहना उचित प्रतीत होता है।
श्लोक 12 में भक्ति मार्ग से किया हुआ निष्काम कर्मयोग सब से श्रेष्ठ बताया है। सूर्य गीता में भी कहा गया है कि ” जो इस वेदान्त तत्व को जानता है, कि ज्ञान की अपेक्षा उपासना अर्थात ध्यान या भक्ति उत्कृष्ट है, एवम उपासना की अपेक्षा कर्म अर्थात निष्काम कर्म श्रेष्ठ है, वही पुरुषोत्तम है।”
१२वें श्लोक में यह नही कहा गया है, कि सब कर्मो के फलों का एकदम से त्याग कर दे; वरन यह कहा गया है, कि पहले भगवान के बतलाए कर्मयोग का आश्रय करके, तदनन्तर धीरे धीरे इस बात को अंत मे सिद्ध कर ले। और ऐसा अर्थ करने से कुछ भी विसंगीति नही रह जाती। हम ने पहले भी पढ़ा है कि कर्म फल के स्वल्प आचरण से ही नही, अपितु जिज्ञासा हो जाने से भी मनुष्य अपने आप ही आप अन्तिम सिद्धि की ओर खींचा चला जाता है। अतएव उस मार्ग की सिद्धि पाने का पहला साधन या सीढ़ी यही है, कि कर्मयोग का आश्रय करना चाहिए अर्थात इस मार्ग से जाने की मन मे इच्छा होनी चाहिये। कौन कह सकता है, कि साधन अभ्यास, ज्ञान और ध्यान की अपेक्षा सुलभ नही है?
यदि यह मान लिया जाए, कि कर्मो छोड़ने से निर्वाह नही होता, निष्काम कर्म करना ही चाहिए, तो स्वरूपत: कर्मो को त्यागनेवाला ज्ञानमार्ग कर्मयोग से कनिष्ठ निश्चित होता है, कोरी इंद्रियों करनेवाला पातन्जलयोग कर्म योग से हल्का जंचने लगता है, और सभी कर्मो को छोड़ देनेवाला भक्तिमार्ग भी कर्मयोग की अपेक्षा कम योग्यता का सिद्ध हो जाता है।
इस प्रकार निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाने पर यही प्रश्न रह जाता है, कि कर्मयोग में आवश्यक भक्तियुक्त, साम्यबुद्धियुक्त को प्राप्त करने के लिये उपाय क्या है। यह तीन उपाय है – अभ्यास, ज्ञान और ध्यान। इस में किसी से अभ्यास न सधे तो वह ज्ञान अथवा ध्यान में से किसी भी उपाय को कर ले।
कर्म फल त्याग से आश्रय श्लोक 6 में वर्णित ” तू मुझ सगुण परमेश्वर में अपने समस्त कर्तृत्व, कर्म एवम फलों समर्पण कर, है।
कर्मफल का त्याग परम् शांति दायक है, क्योंकि आसक्ति का त्याग शांति दायक ही है। जब कर्म करते समय विषयासक्ति नही होगी, तो कर्म बंधनकारक नही होंगे। मन एवम बुद्धि को परमात्मा में समर्पित करना सरल नहीं, तो अभ्यास किया जाता है। अभ्यास न हो भगवान के ध्यान हेतु भजन, कीर्तन करो। भजन कीर्तन एक ढोकोसला एवम कर्मकांड तक सीमित नहीं होना चाहिये एवम न ही किसी सांसारिक या पारलौकिक सुख की आशा में हो क्योंकि विषय वासना का त्याग करे बिना भक्ति योग सिद्ध ही नही होता। किन्तु जब सभी कर्म भगवान के निमित ही हो जाये तो कर्म के फल की आशा उतेजना पैदा नही करती और परम् शांति प्रदान होती है। यही भक्ति युक्त निष्काम कर्म योग है।
पुनः दोहराते हुए पढ़ते है कि इस श्लोक में भगवान कृष्ण चार प्रकार की साधनाओं के बारे में बात करते हैं। और चार प्रकार की साधनाओं के बारे में बात करने के बाद, भगवान कृष्ण उन्हें वर्गीकृत करते हैं; निम्नतम से उच्चतम तक; साधना के चार स्तर। और चार साधनाएँ क्या हैं? नंबर 1 अभ्यास; नंबर 2 ज्ञानम (ज्ञान); नंबर 3, ध्यानम (ध्यान); और नंबर 4, कर्म फल त्याग (बलिदान)।
यह पाँच साधनाओं (भक्ति) की पिछली सूची के ठीक विपरीत है; ठीक है उस पाँच साधना सूची में; कर्म फल त्याग को सबसे निम्न के रूप में दिया गया है। हमने तीसरे से शुरू किया और फिर उन्होंने ज्ञान योग दिया; और विश्वरूप उपासना अगली निम्नतम साधना है; एकरूप उपासना अगली निम्नतम साधना है; फिर निष्काम कर्म प्रधान योग; अगला निम्नतम; निम्नतम क्या है? कर्म फल त्याग:।
क्या वह हमारे साथ खेलता है या हमें भ्रमित करता है। यह संदिग्ध है और इसका उत्तर हमेशा ईश्वर पर विश्वास, प्रेम और भरोसे के साथ है। इन तीनों की अनुपस्थिति में शीर्ष सबसे निम्न है और तीनों भक्ति के साथ निम्नतम सबसे शीर्ष है। त्रिगुणी प्रकृति में जीव सत, रज और तम गुणों में यदि फसा हो तो ध्यान, अभ्यास या ज्ञान व्यर्थ है। इसी प्रकार जब तक राग और द्वेष नहीं छूटता, हमारी समस्त भक्ति भावहीन हो कर रह जाती। इसलिए प्रथम सीढ़ी निष्काम कर्मयोग की सब से महत्वपूर्ण है। जब तक यह सीढ़ी नही चढ़े, तब तक ज्ञान, ध्यान या अभ्यास प्रकृति से मनुष्य को जोड़े रखता है और उस के मोक्ष का मार्ग नही खुलता। अर्जुन ज्ञानी, पराक्रमी और अभ्यास से परिपूर्ण था किंतु राग – द्वेष के कारण मोह में फस गया। और अपने को सही बताने के लिए विभिन्न तर्क भी करने लगा।
हमें संत बाल्मीकि को याद करना होगा जिन्होंने “मरा मरा” नाम के जाप से भक्ति शुरू की और सर्वोच्च पद तक पहुंचे। भक्ति सर्वोच्च पद प्राप्त करने का तंत्र नहीं है, यह प्रेम, विश्वास और भरोसे के साथ विशुद्ध रूप से भक्ति है और साथ ही भगवान के प्रति अपने अहम को त्याग कर समर्पण भी है।
वास्तव में, संस्कृत में, क्या आप जानते हैं कि प्रसादः शब्द का क्या अर्थ है; आम तौर पर जब मैं प्रसाद कहता हूँ, तो आपके मन में जो विचार आता है; वडै, चुंडल, कदलै, लड्डू। याद रखें कि प्रसादः शब्द का अर्थ है मन की शांति; मन की समता; यह मूल से निकला है; प्र + दुख, दुख मूल है; प्र उपसर्ग है; प्रसादः का अर्थ है मन की शांति या मन की शांति। हम जिस भी परिस्थिति में रहते हैं, हमारे आस-पास जो भी है, हम जो भी प्रयास करते हैं और प्राप्त करते हैं, हमें उसे प्रसाद के रूप में स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह जीवनसाथी हो, बच्चे हों, पद हो, स्थान हो, स्वास्थ्य हो या धन हो।
परमात्मा द्वारा कहा गया यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब तक आधार अर्थात नींव मजबूत न हो तो उस पर खड़ी इमारत मजबूत नही हो सकती। यह बहुदा देखा गया है कि लोग ध्यान और योग द्वारा सिद्धियां प्राप्त कर के बड़े बड़े आश्रम या संगठन बना लेते है किंतु मन से कामना, अहम और स्वार्थ, लोभ अर्थात राग-द्वेष का अंत नही होता। मैंने कई अखाड़ो का महंत बनने के लिये गेरुवे वस्त्र धारण किये साधु संतों को आम व्यक्ति से ज्यादा अनैतिक तरीके से लड़ते देखा है। इसलिये परमात्मा ने निष्काम कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है। जो व्यक्ति निष्काम कर्मयोग सन्यास के मार्ग से आगे बढ़ता है, वह अपनी कामनाओं, अहम के लिए इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण प्राप्त कर चुका होता है। उस का कर्म बन्धनकारी नही होता, उस के कर्मो का लक्ष्य लोकसंग्रह होता है, इसलिये वह लोभ, स्वार्थ और भय से मुक्त होता है। यह व्यक्ति जब अभ्यास से ध्यान करता है और ज्ञान को प्राप्त होता है तो उस का ज्ञान ब्रह्मसिद्ध ज्ञान ही होगा। इसलिये भक्तियुक्त कर्मयोग के सिद्ध होने के लिये अभ्यास, ज्ञान- भजन आदि साधन बतलाकर, इनके और अन्य साधनों के तारतम्य का विचार कर के अंत में कर्मफल के त्यागी की, अर्थात निष्काम कर्मयोग सन्यास की श्रेष्ठता वर्णित की गई है।
वस्तुतः यहाँ ज्ञान, अभ्यास और ध्यान शब्द का आध्यात्मिक या आत्मिक अर्थ नही ले कर पुस्तकीय या सांसारिक अर्थ लिया गया है। अध्यात्म में ज्ञानी वही है जिस ने पतंजलि योग शास्त्र के अनुसार अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि का सम्पूर्ण संयम प्राप्त कर लिया है। कैवल्य की स्थिति ज्ञानी पुरुष की सयंम से प्राप्त होती है, यह सयंम अभ्यास और ध्यान से योगी प्राप्त करता है, जिस की शुरुवात निष्काम कर्मयोग से होती है। कर्म फल त्याग से यहाँ वह सर्वकर्मसन्यास अभिप्राय है जिस का श्लोक 6-7 में वर्णन है कि मेरे मत्परायण हो कर मेरे सगुण रूप परमेश्वर में अपने सब कर्तृत्व, कर्म और फलों को समर्पित करते है, उन भक्तों का मृत्युरूपी संसार से उद्धार मैं ही करता हूँ।
अभ्यास, ज्ञान और ध्यान – तीनों साधनोंसे वस्तुतः कर्मफलत्याग रूप साधन श्रेष्ठ है। जबतक साधक में फल की आसक्ति रहती है, तब तक वह (जडता का आश्रय रहने से) मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये फलासक्ति के त्याग की जरूरत अभ्यास, ज्ञान और ध्यान– तीनों ही साधनों में है। जडता अर्थात् उत्पत्ति- विनाशशील वस्तुओं का सम्बन्ध ही अशान्ति का खास कारण है। कर्मफलत्याग अर्थात् कर्मयोग में आरम्भ से ही कर्मों और उन के फलों में आसक्ति का त्याग किया जाता है। इसलिये जडता का सम्बन्ध न रहने से कर्मयोगी को शीघ्र परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है।
इसलिये यदि कोई व्यक्ति ज्ञान, ध्यान और अभ्यास भी न कर सके तो भी यदि वह निष्काम भाव से अपने नियमित कर्म करता रहे, तो भी उस के लिए मुक्ति का मार्ग खुल जायेगा। हमारे दैनिक जीवन मे काम, व्यवहार और जीवन व्यापन की व्यस्तता से हम यदि ज्ञान, ध्यान और अभ्यास न भी कर पाए, तो भी निष्काम कर्म करते रहे। यह भी स्वयम में श्रेष्ठतम परमात्मा की भक्ति है।
ध्यान रहे, गीता युद्ध भूमि में दिया हुआ, एक क्षत्रिय योद्धा को ज्ञान है, जो युद्ध मे मोह, भय, अहम में अपना मानसिक संतुलन खो कर सन्यास लेने की बात कर रहा था। एक गृहस्थ या सांसारिक जीव के लिये परिवार, समाज और जीविका का महत्व और दायित्व, त्यागी बनने से अधिक होता है। संसार दुखमय हो, तो ही इस दुख में भी सुख को महसूस करने वाले जीव की मुक्ति का मार्ग निष्काम कर्मयोग सन्यास से ही शुरू होता है। अर्जुन के लिये युद्ध भूमि में अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना आवश्यक था, यदि वह उस कर्म से पीछे हट भी जाये तो भी इन्द्रिय और मन का निग्रह नही हो सकता था। इस कारण सांसारिक जीव को अपने मन और इन्द्रियों के निग्रह के लिये निष्काम कर्म सन्यास मार्ग उत्तम बताया गया है।
आगे परमात्मा अपने भक्त के गुणों का वर्णन करते हुए, क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 12.12।।
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