।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.09 II
।। अध्याय 12.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 12.9॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥
“atha cittaḿ samādhātuḿ
na,
śaknoṣi mayi sthiram..।
abhyāsa-yogena tato,
mām icchāptuḿ dhanañjaya”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! यदि तू अपने मन को मुझ में स्थिर नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। (९)
Meaning:
If you are unable to steadfastly establish your mind in me, then seek to attain me through the yoga of repeated practice, O Dhananjaya.
Explanation:
We have study five typies of devotees and Devotion towards God also has five method from top to lower. while dealing with the five steps of bhakthi yōga, Lord Krishna starts with the highest step in the beginning and gradually He is coming down to the lower steps. And the fifth and final step which is the proximate step to liberation was presented as jñāna yōga sādanā, consisting of vēdānta sr̥avaṇa, manana nidhidhyāsanam; which is otherwise called here as akṣara upāsana. Akṣara upāsana is the technical word in the 12th chapter, which means jñāna yōga, which means nirguṇa brahma sr̥avaṇa manana nidhidhyāsanam; which was dealt with in verses 3, 4 and 5.
So, what should those people do, who cannot perfectly fix their mind on God? Shree Krishna states here that they should endeavor to remember Him with devotion. As the saying goes, “Practice makes perfect.” This is called abhyāsa yog, or “union with God through repeated practice.” Each time the mind wanders toward other objects and ideas, the devotee must strive to bring it back to God through remembrance of His Names, Forms, Virtues, Pastimes, Abodes, and Associates.
Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj emphasizes this repeated practice in his instructions for sādhaks: “O dear one, remove the mind from the world and fix it on God. Practice this constantly, again and again!”
A student of music does not become a maestro overnight. While watching a concert, we may admire how easily he can handle complex passages on the piano, but we know that the prowess is a result of years, maybe even decades, of repeated practice. In his book “Outliers”, author Malcolm Gladwell emphasizes the “10,000 hour rule”. The key to success in any field is a matter of practising a task for 10,000 hours. Here, Shri Krishna says that if we are unable to constantly fix our mind in Ishvara, we should set aside some time daily and practice doing so.
Note that abhyaasa is not possible without its counterpart vairaagya or dispassion towards the material world. Without reducing our stock of material desires, it is virtually impossible to sit in meditation. Each vaasanaa, each unfulfilled desire has the potential to produce a series of thoughts in our mind. When we sit for meditation, these unfulfilled desires start competing with each other to produce thoughts that distract us from the object of worship. Therefore, Shri Krishna advises us to follow abhyaasa and vairaagya together.
Now, with the practice of dhyaana yoga, we only think of Ishvara for a brief period of time each day. How should we continue our spiritual practice throughout the rest of the day? Or, our stock of desires may not even let us sit in one place. Then how should we worship Ishvara? Shri Krishna addresses this next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भक्ति योग के चौथे स्तर पर श्लोक संख्या 6, 7 और 8 में चर्चा की गई थी और भक्ति योग के इस चौथे स्तर में सगुण ईश्वर की उपासना शामिल है क्योंकि निर्गुण ईश्वर: अर्थात ज्ञानयोग अप्रस्तुत मन के लिए आसान नहीं है और इसी बात का उल्लेख शंकराचार्य ने विवेकचूड़ामणि में भी किया है।
मोक्षकारणसमाग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी | स्वस्वरूपानुसन्धानं भ निकटिरित्यभिधीयते ||31||
भक्ति मुक्ति की अंतिम अवस्था है और अंतिम अवस्था में भक्ति को आत्म-जांच के रूप में परिभाषित किया जाता है। ब्रह्म जांच, निर्गुण ईश्वर और इस पर विचार:। कृष्ण ने स्वयं स्वीकार किया कि भक्ति योग का यह ज्ञान योग रूप बहुसंख्यकों के लिए आसान नहीं है और उन्हें इसके बारे में बुरा महसूस करने की आवश्यकता नहीं है; उन्हें चौथा चरण आजमाने दें।
भगवान स्वयं ब्रह्मांड के रूप में; अष्टमूर्ति ईश्वर: हैं।
भूरम्भांस्यानालो: ‘नीलो:’अम्बर महारनाथो हिमांशु: पुमान इत्याभति चराचरात्मकमदिं यस्यैव मूर्त्यष्टकम || 9 ||
अष्टमूर्ति ईश्वर ही विश्व रूप ईश्वर हैं। आठ मुख वाले ईश्वर अर्थात विश्व रूप ईश्वर के आठ कारक हैं। आठ कारक क्या हैं? पाँच तत्व पंच मूर्ति हैं; भू, अम्बा, अनल, अनिल और अम्बरम, ये पंच भूत भगवान की पाँच मूर्तियाँ हैं। फिर आहारनात और हिमांशु। आहारनात का अर्थ है सूर्य, जो सभी तारों का प्रतिनिधित्व करता है और हिमांशु का अर्थ है चंद्रमा जो सभी ग्रहों और उपग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। हमारे पास पाँच तत्व पंच मूर्तियाँ हैं। सभी तारे छठी मूर्तियाँ हैं। सभी ग्रह और उपग्रह 7वीं मूर्ति हैं। 8वीं मूर्ति क्या है? मूर्ति क्या है? मूर्ति एक पहलू है, 8वीं पुमान है। पुमान सभी जीवरासि हैं। सभी जीवों को एक साथ मिलाकर अष्टमूर्ति ईश्वर: कहा जाता है; जिसे विराट ईश्वर: भी कहा जाता है; जिसे विश्व रूप ईश्वर: भी कहा जाता है, जिसका वर्णन गीता के 11वें अध्याय में किया गया है।
भक्ति के सर्वोत्तम चरण से नीचे उतरते समय हमे यह ध्यान में रहे कि वह कण कण में विराजमान है। इसलिए जो विश्वरूप में ईश्वर की आराधना नही कर पाते, वे एक रूप अर्थात राम, कृष्ण, शंकर या अन्य स्वरूप में भक्ति करते है और यदि वे यह भी नही कर पाते तो प्रतीक स्वरूप पांच भूतों में नदी, पहाड़, अग्नि आदि से भक्ति करते है।
भक्ति योग के पाँच चरणों पर चर्चा करते हुए, भगवान कृष्ण शुरुआत में सबसे ऊँचे चरण से शुरू करते हैं और धीरे-धीरे वे निम्न चरणों की ओर उतरते हैं। और पाँचवाँ और अंतिम चरण जो मुक्ति का निकटतम चरण है, उसे ज्ञान योग साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसमें वेदांत श्रवण मनन निधिध्यासनम शामिल है; जिसे यहाँ अक्षर उपासना के रूप में भी कहा जाता है। अक्षर उपासना 12वें अध्याय में तकनीकी शब्द है, जिसका अर्थ है ज्ञान योग, जिसका अर्थ है निर्गुण ब्रह्म श्रवण मनन निधिध्यासनम; जिसका वर्णन श्लोक 3, 4 और 5 में किया गया है।
मन चंचल है और बुद्धि सांसारिक भोग एवम अहम में है। भौतिकता के कारण, चिंताएं घेरे रहती है इस लिये मन और बुद्धि को ईश्वर में स्थिर करना लगभग हर सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव नही।
परमात्मा कहते है यदि तुम मन और बुद्धि सहित अपना चित्त पूर्ण रूप से मेरे हाथ नही सौप सकते, तो तुम ऐसा करो कि जितना भी जब भी तुम लगा सको, अपना मन और बुद्धि समेत चित्त मुझे अर्पण करो। इस अभ्यास से शनै: शनै: तुम विषय भोग से बाहर निकल कर मेरे स्वरूप में प्रविष्ट हो जाओगे।
भगवान का यह संदेश मानव जाति के उन सभी के लिये है जो भगवान की शरण प्राप्ति की इच्छा तो रखते है किंतु सांसारिक प्रपंचों के कारण मन एवम बुद्धि को स्थिर कर के भगवान में नही लगा पाते। भगवान के जिस नाम, रूप, गुण और लीला आदि में साधक की श्रद्धा और प्रेम हो – उसी से केवल भगवत प्राप्ति के उद्देश्य से ही बार बार मन लगाने के लिये प्रयत्न करना अभ्यास योग के द्वारा भगवान को प्राप्त करने की इच्छा करना है।
अभ्यास और अभ्यासयोग पृथक्पृथक् हैं। किसी लक्ष्य पर चित्त को बार बार लगाने का नाम अभ्यास है और समता का नाम योग है। समता रखते हुए अभ्यास करना ही अभ्यासयोग कहलाता है। केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्य से किया गया भजन, नामजप आदि अभ्यासयोग है। अभ्यास के साथ योग का संयोग न होने से साधक का उद्देश्य संसार ही रहेगा। संसार का उद्देश्य होने पर स्त्री पुत्र, धनसम्पत्ति, मानबड़ाई, नीरोगता, अनूकूलता आदि की अनेक कामनाएँ उत्पन्न होंगी। कामना वाले पुरुष की क्रियाओं के उद्देश्य भी (कभी पुत्र, कभी धन, कभी मान बड़ाई आदि) भिन्न भिन्न रहेंगे। इसलिये ऐसे पुरुष की क्रिया में योग नहीं होगा। योग तभी होगा, जब क्रिया मात्र का उद्देश्य (ध्येय) केवल परमात्मा ही हो। साधक जब भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रख कर बार बार नामजप आदि करने की चेष्टा करता है, तब उस के मन में दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं, अतः साधक को मेरा ध्येय भगवत्प्राप्ति ही है – इस प्रकार की दृढ़ धारणा करके अन्य सब संकल्पों से उपराम हो जाना चाहिये।
आत्म विकास की जो साधना भगवान् ने पूर्व श्लोक में बतायी है वह अपरिवर्तनीय है। साधक को अपना मन भगवान् के चरणों में स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उस सगुण रूप के पारमार्थिक स्वरूप को पहचानना चाहिए। इन दोनों प्रक्रियाओं का सम्पादन करने के लिए अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि और मन की एकाग्रता की आवश्यकता होती है।
व्यवहारिक जीवन मे इस अध्याय के नवम श्लोक से बाहरवें श्लोक को अत्यंत महत्वपूर्ण कहा गया है। शाब्दिक रूप में ब्रह्मसिद्ध या योगी शब्द अत्यंत रोमांचित करने वाला है किंतु ब्रह्मसिद्ध या योगी होना प्रत्येक मनुष्य के उस की बुद्धि के विकास, सांसारिक व्यवस्था में सरल नही है। इसलिए इस को सरल विधि से अभ्यास से शुरुवात की जा सकती है। कई बार कठिन काम या अत्यधिक काम सामने हो तो कहाँ से शुरू करे, कैसे पूरा होगा आदि की चिंता काम से अधिक होती है। किंतु एक सिरे से काम शुरू कर देने से काम के सूत्र एक एक खुलते जाते है और काम पूरा हो जाता है। इसी प्रकार यदि योग से चित्त में एकाग्रता न हो तो उस के लिये अभ्यास का व्यवहारिक स्वरूप है कि हम धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने लगे। भजन गाये, सुने या कीर्तन में भाग ले। इस के द्वारा जो मन संसार की ओर भागता है, वह स्थिर हो कर परमात्मा की ओर मुड़ने लग जायेगा। मन जो भटक रहा है, उसे बार बार अभ्यास से प्रभु की ओर ले कर जाए।
भक्तियोग सगुण उपासना है, अतः अपनी समस्त इन्द्रियों को परमात्मा की तरफ मोड़ना ही प्रथम सोपान है। जब तक मन मे परमात्मा के प्रति इच्छा शक्ति जाग्रत नही होगी, मन परमात्मा की भक्ति की ओर नही जाएगा। सांसारिक होने के नाते परमात्मा को पाने की कामना यदि जाग्रत हो जाये, तो हम मंदिर जाने से ले कर भजन कीर्तन, प्रवचन सुनने और ध्यान आदि लगाने लग जाते है। यही इच्छा शक्ति अभ्यास द्वारा अधिक से अधिक जाग्रत करना ही अभ्यास योग है।
यदि अभ्यास योग भी सम्भव न हो तो, परमात्मा क्या करने को कहते है, आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 12.09।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)