Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  12.08 II

।। अध्याय      12.08 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 12.8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥

“mayy eva mana ādhatsva,

mayi buddhiḿ niveśaya..।

nivasiṣyasi mayy eva,

ata ūrdhvaḿ na saḿśayaḥ”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! तू अपने मन को मुझ में ही स्थिर कर और मुझ में ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझ में ही सदैव निवास करेगा, इस में किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। (८)

Meaning:

Fix your mind only in me, place your intellect in me, thereafter you will dwell in me only, no doubt.

Explanation:

In this series of four shlokas, Shri Krishna prescribed four paths or yogas to attaining Ishvara, each one more easier than the previous one. This shloka describes the path of jnyaana yoga or the yoga of knowledge. Shri Krishna says that the seeker should fix both his intellect and mind in Ishvara constantly, without any interruption. When this happens, that attainment of Ishvara is guaranteed. There is no room for “sanshaya” or doubt of attaining Ishvara when one practices jnyaana yoga. But doing so is not easy.

Shree Krishna now begins to explain how to worship Him.  He asks Arjun to do two things—fix the mind on God and also surrender the intellect to Him.  The function of the mind is to create desires, attractions, and aversions.  The function of the intellect is to think, analyze, and discriminate. Thus, even without the actual sensory activity the mind experiences the perceptions of sight, smell, taste, touch, and sound.

The importance of the mind has been repeatedly stated in the Vedic scriptures: Bhagavatam 3.25.15, “Captivity in Maya and liberation from it is determined by the mind.  If it is attached to the world, one is in bondage, and if the mind is detached from the world, one gets liberated.”

In Pañchadaśhī stated “Bondage and liberation are decided by the state of the mind.”  Mere physical devotion is not sufficient; we must absorb the mind in thinking of God.  The reason is that without the engagement of the mind, mere sensory activity is of no value.  For example, we hear a sermon with our ears, but if the mind wanders off, we will not know what was said.  The words will fall on the ears, but they will not register.

Our intellect is strapped with wrong knowledge.  Though we are eternal souls, we think of ourselves to be the perishable body.  Although all the objects of the world are perishable, we think they will always remain with us, and hence, we busily accumulate them day and night.  And though the pursuit of sensual pleasures only results in misery in the long run, we still chase them in the hope that we will find happiness.”  The above three defects of the intellect are called viparyaya, or reversals of knowledge under material illusion.  The gravity of our problem is further aggravated because our intellect is habituated to this kind of defective thinking from innumerable previous lifetimes.

As and when a new year approaches, many of us start making new year resolutions such as losing weight, giving up a bad habit, cleaning the house and so on. It is our buddhi or intellect that sets firm long- term goals, targets and resolutions. Ultimately all types of plans and resolutions stem from our desires to achieve something in this world. Now, Jnyaana yoga requires us to have just one resolution and nothing else: to merge with Ishvara. But as we have seen in the second chapter, our stock of desires influences our intellect to make innumerable resolutions. This multitude of resolutions makes jnyaana yoga difficult.

 Furthermore, our condition is such that it is not just the intellect that has many resolutions. The mana, our faculty of mind, is fickle to begin with due to the distractions of the senses. Jnyaana yoga requires the fixing of both the intellect and the mind onto Ishvara. It is in rare instances that we can achieve intellectual and mental harmony, such as studying for an exam, where we know that the stakes are high. But even that happens for a few minutes or a few hours at most.

But suppose you see, Viśva rūpa upāsana is also difficult, because it requires an expanded mind. It needs to expand the mind to accommodate the whole universe as īśvaraḥ; which means one should never have rāga or dvēṣā and one should be willing to accept every part of creation as divine. Therefore, he should not complain against anything. It is extremely difficult. we will say that I am ready to look upon everyone as God, except a few people, a list of which is same mind as I am, as everyone has a list; except them everyone is God; if everybody has a exceptional-list; God will not have anything left.

Therefore, Viśva rūpa upāsana itself may be difficult; then what to do; Krishna says; no worry; you come to the third rung of the ladder; how? Krishna provides option in next verse No.9.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्रीकृष्ण यह व्याख्या करना आरम्भ करते हैं कि उनकी आराधना कैसे की जाए। वे अर्जुन को दो उपदेशों का पालन करने के लिए कहते हैं। एक तो वह अपना मन उनमें स्थिर करें और अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित कर दें। मन का कार्य कामनाएँ, आकर्षण और द्वेष उत्पऊ करना है। बुद्धि का कार्य विचार, विश्लेषण और विभेद करना है। वैदिक ग्रथों में मन के महत्त्व का बार-बार वर्णन किया गया है।

चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम्। गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये।। (श्रीमदभागवतम्-3.25.15)

माया के बंधन में रहना या माया से मुक्त रहना इसका निश्चय मन ही करता है। यदि मन संसार में आसक्त है तब मनुष्य माया के बंधन में बंध जाता है और यदि मन संसार से विरक्त हो जाता है तब मनुष्य माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।”

मनेव मनुष्यानम् कारणम् बंध मोक्ष्योः। (पंचदशी)

बंधन और मोक्ष मनःस्थिति द्वारा निर्धारित होते है।” केवल शारीरिक भक्ति ही पर्याप्त नहीं है। हमें अपने मन को भगवान के चिंतन में लीन करना चाहिए क्योंकि मन को तल्लीन किए बिना मात्र इन्द्रियग्राही गतिविधियों का कोई महत्त्व नहीं होता। उदाहरणार्थ यदि हम कोई प्रवचन सुनते हैं किन्तु यदि मन कहीं अन्यत्र भटकता है तब हमें यह बोध नहीं होता कि हमने क्या सुना। हमारे कानों में शब्द तो पड़ते हैं किन्तु वह हृदय में प्रविष्ट नहीं होते। यह दर्शाता है कि मन की तल्लीनता के बिना इन्द्रियों के कार्य निरर्थक हैं। दूसरे शब्दों में मन एक ऐसा यंत्र है जिसमें सभी इन्द्रियाँ सूक्ष्म रूप से रहती हैं। इसलिए यहाँ तक कि वास्तविक क्रियाओं के बिना भी मन रूप, गंध, स्वाद, स्पर्श और शब्द के बोध का अनुभव करता है।

फिर भी मन से परे बुद्धि है। हम अपने मन को भगवान में तभी स्थिर कर सकते हैं जब हम अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित करते हैं। भौतिक जगत में भी जब विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में हमारी बुद्धि समर्थ नहीं होती। तब हम अपने से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं।

हमारी बुद्धि अनुचित ज्ञान की पट्टी से बंधी है। यद्यपि हम शाश्वत जीवात्माएँ हैं किन्तु हम केवल अपनी नश्वर देह की चिंता करते हैं। यद्यपि संसार के सभी पदार्थ नश्वर हैं किन्तु हम यह सोचते हैं कि ये सदा हमारे साथ रहेंगे और इसलिए हम दिन-रात उनका संचय करने में रत रहते हैं किन्तु आगे जाकर अंततः इन्द्रिय सुख का परिणाम दुखदः होता है किन्तु फिर भी हम इस आशा से इनके पीछे भागते रहते हैं कि इनसे हमें सुख प्राप्त होगा।” हमारी बुद्धि के उपर्युक्त तीन विकारों को ‘विपर्यय’ या लौकिक भ्रम के कारण ‘ज्ञान विपर्यय’ अर्थात परिवर्तन कहते हैं। इससे हमारी समस्या की गंभीरता में बढ़ोतरी होती है क्योंकि हमारी बुद्धि अनंत पूर्व जन्मों से इस प्रकार दुर्विचारों को ग्रहण करने की आदी होती है। यदि हम अपनी बुद्धि के निर्देशानुसार अपना जीवन यापन करते हैं तब हम निश्चित रूप से दिव्य आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होने में अधिक प्रगति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार यदि हम भगवान में मन को अनुरक्त कर आत्मिक सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उन्हें अपनी बुद्धि का समर्पण और उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए। बुद्धि का समर्पण करने का अभिप्राय धार्मिक ग्रथों और प्रामाणिक गुरु के माध्यम से प्राप्त भगवद्प्राप्ति के ज्ञान के अनुसार ही चिंतन करने से है।

शास्त्रीय दृष्टि से गीता का यह उपदेश उचित है कि भक्त को चाहिए कि वह अपनी विवेकवती बुद्धि के द्वारा पाषाण की मूर्ति का भेदन करके उस चैतन्य तत्त्व का साक्षात्कार करे जिसकी प्रतीक वह मूर्ति है। अपनी बुद्धि को मुझमें स्थापित करो इसका अर्थ यह है कि अपनी व्यष्टि बुद्धि का तादात्म्य समष्टि बुद्धि के साथ करो, जो भगवान् की उपाधि है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति, किसी एक क्षण विशेष में, अपनी समस्त भावनाओं एवं विचारों का कुल योग रूप होता है। यदि हमारा मन भगवान् में स्थिर हुआ है तथा बुद्धि अनन्त की गहराइयों में प्रवेश कर जाती है, तो हमारा व्यक्तिगत अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और हम सर्वव्यापी, अनन्त परमात्मा में विलीन होकर तत्स्वरूप बन जाते हैं। इसलिए भगवान् ने कहा है कि, तदुपरान्त, तुम मुझ में ही निवास करोगे।

भगवान् के मत में वे ही पुरुष उत्तम योगवेत्ता हैं, जिनको भगवान् के साथ अपने नित्ययोग का अनुभव हो गया है। सभी साधकों को उत्तम योगवेत्ता बनाने के उद्देश्य से भगवान् अर्जुन को निमित्त बना कर यह आज्ञा देते हैं कि मुझ परमेश्वर को ही परमश्रेष्ठ और परम प्रापणीय मानकर बुद्धि को मेरे में लगा दे और मेरे को ही अपना परम प्रियतम मानकर मन को मेरे में लगा दे।

भगवान् में हमारी स्वतःसिद्ध स्थिति (नित्ययोग) है; परन्तु भगवान् में मन-बुद्धि के न लगने के कारण हमें भगवान् के साथ अपने स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध का अनुभव नहीं होता। इसलिये भगवान् कहते हैं कि मन-बुद्धि को मेरे में लगा, फिर तू मेरे में ही निवास करेगा (जो पहले से ही है) अर्थात् तुझे मेरे में अपनी स्वतः सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जायगा।

देहेन्द्रीय मन बुद्धि द्वारा जो व्यवहार हो रहा है; उन में अभिमान न कर के अपने आप को कर्ता न जानना, किन्तु यह निश्चय धारण करना कि जो कुछ व्यवहार देहादि द्वारा हो रहा है, उस मे कर्तापन रंजन मात्र भी नही है; किन्तु सर्व कर्ता धर्ता भगवान ही है, वे ही अंतर्यामी इन के अंदर बैठ कर सूत्रधार की भांति जड़क्तजपुतलियो के समान इन देहेन्द्रीय मन बुद्धि आदि को नचा रहा है। इस निश्चय से अपने सब कर्तृत्व एवम कर्मो को विश्व रूप सगुण परमेश्वर में समर्पण करना, इसी का नाम यहाँ सर्व कर्म सन्यास है।

मनुष्य की पांच ग्राह्य इंद्रियां एवम पांच कर्म इंद्रियां होती है, यह सभी जो भी ग्रहण करती है या कर्म करती है, उस को मन द्वारा ही किया जाता, मन हो नियंत्रित बुद्धि करती है। बुद्धि चेतन के अनुसार काम करती है, यही चेतन अहम हैं। अहम की कर्तृत्व अभिमान से भरा रहता है, उस की कामना पूर्ति के दास ये मन और बुद्धि है। यदि मन और बुद्धि चेतन से चेतन्य तत्व से जुड़ जाए तो अहम एवम कामना को कोई स्थान नहीं। जहां मैं नही, वहाँ परमात्मा के अतिरिक्त कोई हो ही नही सकता।

ध्यान कोई शारीरिक क्रिया नहीं, वरन् मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के द्वारा विकसित की गई एक सूक्ष्म कला है। प्रत्येक साधक का यह अनुभव होता है कि उस की बुद्धि जिसे स्वीकार करती है, उसका हृदय उसे समझ नहीं पाता या उसमें रुचि नहीं लेता और जिसके प्रति हृदय लालायित रहता है, बुद्धि उस पर हँसती है। अत बुद्धि और हृदय इन दोनों को परम आनन्द के उसी एक आकर्षक रूप में स्थिर करना ही आन्तरिक व्यक्तित्व को आध्यात्मिक प्रयत्न के साथ युक्त करने का रहस्य है।  मीरा ने कृष्ण की मूर्ति पर ही ध्यान लगाया था और कृष्णमय हो गई। तुलसीदास जी ने राम की मूर्ति पर मन और बुद्धि को लगाया और राम चरित मानस की रचना कर दी। रामकृष्ण परमहंस काली की मूर्ति के साथ मन एवम बुद्धि लगा कर बाते करते थे।

जब तक मन एकाग्र न हो भगवान में नही लगता तब तक इंद्रियां, बुद्धि और मन मे समर्पण भाव नही हो सकता, इसलिये व्यावसायिक बुद्धि हो या निश्चयात्मक बुद्धि, मन अपनी इन्द्रियों के संग, संपूर्ण बुद्धि के संग परमात्मा में लग जाये, जिससे जीव का अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और जो शेष रहेगा, वह परमात्मा ही होगा।

रे मन सब सों निरस है, सरस् राम सों होंहि।। भलो सिखावन देत हैं, निसदिन तुलसी तोहिं ।।

चित्त की स्थिरता के बिना ध्यान नही हो सकता। निर्गुण उपासक योग से चित्त को स्थिर करने का प्रयत्न करता है, सगुण उपासक चित्त को सगुण परमात्मा को इन्द्रिय, मन और बुद्धि से समर्पित हो कर करता है। इसलिये कर्ता अभिमान या देह अभिमान की समाप्ति हो और हम यह माने की जो कुछ भी हम कर रहे है या जो कुछ भी हो रहा है, वह परमात्मा ही कर रहा है और वह ही हमे निमित्त बना कर करवा रहा है। कर्म सन्यास में निष्काम कर्म का प्रथम सोपान यही है कि किसी भी कर्म पर अपना अधिकार कर्ता भाव का न हो। इसलिए परमात्मा अर्जुन को उन को समर्पित हो कर कर्म करने को कह रहे है।

विराट विश्वरूप दर्शन के बाद परमात्मा स्पष्ट स्वरूप से सामने आ गए, इसलिये उन की भाषा तृतीय पुरुष की अपेक्षा प्रथम पुरुष ‘मैं’ की हो गई। यह संवाद कृष्ण – अर्जुन मानवीय स्वरूप का न हो कर ब्रह्म-जीव के मध्य का संवाद हो गया है।

मूर्ति में परमेश्वर को देखना किन्तु मूर्ति को ही परमेश्वर नही मान लेना। लेकिन मान लीजिए, विश्व रूप उपासना भी कठिन है; क्योंकि इसके लिए विस्तृत मन की आवश्यकता होती है। पूरे ब्रह्मांड को ईश्वर के रूप में समायोजित करने के लिए मन को विस्तृत करने की आवश्यकता होती है; जिसका अर्थ है कि किसी को कभी राग या द्वेष नहीं होना चाहिए और उसे सृष्टि के प्रत्येक भाग को ईश्वर के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार होना चाहिए। इसलिए उसे किसी भी चीज़ के खिलाफ शिकायत नहीं करनी चाहिए। यह बहुत कठिन है। हम कहेंगे कि मैं सभी को भगवान के रूप में देखने के लिए तैयार हूं, कुछ लोगों को छोड़कर, जिनकी सूची मेरे जैसे ही मन की है, क्योंकि हर किसी की एक सूची है; उनके अलावा सभी भगवान हैं; अगर सभी के पास एक अपवाद-सूची है; भगवान के पास कुछ भी नहीं बचेगा। इसलिए विश्व रूप उपासना अपने आप में कठिन हो सकती है; फिर क्या करें, कृष्ण कहते हैं; कोई चिंता नहीं; आप सीढ़ी के तीसरे पायदान पर आते हैं; कैसे? सगुण उपासक के लिये इस से सरल क्या उपाय हो सकता है, कृष्ण अगले श्लोक नंबर 9 में विकल्प प्रदान करते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 12.08।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply