Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  12.05 II

।। अध्याय      12.05 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 12.5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥

“kleśo ‘dhikataras teṣām,

avyaktāsakta-

cetasām..।

avyaktā hi gatir duḥkhaḿ,

dehavadbhir avāpyate”..।।

भावार्थ: 

अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त मन वाले मनुष्यों को परमात्मा की प्राप्ति अत्यधिक कष्ट पूर्ण होती है क्योंकि जब तक शरीर द्वारा कर्तापन का भाव रहता है तब तक अव्यक्त परमात्मा की प्राप्ति दुखप्रद होती है। (५)

Meaning:

There is greater trouble for those whose minds are attached to the unmanifest. For, the path of the unmanifest is difficult to attain by the embodied.

Explanation:

So, in this verse, Krishna openly admits that nirguṇa dhyānam is extremely difficult, which indirectly means jñāna yōga is extremely difficult. Because nirguṇa dhyānam is part of jñāna yōga only. Jñāna yōga consists of three disciplines: sravanam, mananam and nidhidhyāsanam. And nidhidhyāsanam is called nirguṇa dhyānam.

So why nirguṇa dhyānam is extremely difficult to practice.  Krishna says the common obstacle is dēha abhimānāḥ. The biggest and commonest obstacle to vēdānta is strong attachment to one own’s physical body which makes the mind grossest mind, because we are identified with our grossest personality. And because of grossest personality, he does not have even time to think of improving the mind, because where is the time of think of improving the mind, when he is all the time busy improving the body or doing routine life work.

We used the example of children helping their parents organize a family event to understand the previous shloka. Now let us imagine that the CEO of the one company has asked us to attend an event at his house. What would be our attitude here? We would be on our best behaviour and try our best to impress him with our actions. We will always ask for permission if we need to use anything in the CEO’s house. We would also be on the lookout for others who are trying to impress him, and perhaps try to be one step ahead of them.

Although we look different than our parents, we feel no sense of difference from them. However, we see a difference between the title of the CEO and our title which could be software engineer, manager and so on. Similarly, Shri Krishna says that the one who is “deha vad” or embodied, the one who still has attachment to the notion that “I am Mr. so and so with 5 feet 7 inch body, working for XYZ corporation”, such a person will always have a tinge of separation from Ishvara.

Śankarācārya tells very clearly in his Ātma Bōdha that darkness can go only by light; ignorance can go only by knowledge. Samsāra is because of ignorance; therefore, mōkṣa can be only through knowledge. And if I firmly assert that knowledge is the only means, you should not conclude I am a fanatic; because when I have to ascertain a fact, you cannot call me a fanatic. That means what if I should not be a fanatic, I should admit alternative methods for removing darkness. Even if call me a fanatic, I would like to be a fanatic, as Dayananda Swami says; I say light alone removes darkness; if you call me a fanatic; better I will be a fanatic; rather than a lunatic. So you call me by whatever name; I have to tell ignorance goes by knowledge alone. And the vēdās repeatedly ascertain jñānāt ēva thu kaivalyam. And therefore, to say that jñānam is difficult and therefore I will take alternative method, is born out of confusion regarding spirituality.

So, for the majority of us who want to become devotees, it is “adhikatara klesha”, quite difficult to worship Ishvara in his formless aspect. Our sense of attachment to the body creates a sort of wall, a kind of separation between the devotee and Ishvara. We are carrying conditionings of several lifetimes, perhaps, that prevent us from accessing Ishvara in his formless aspect. Extreme vairagya or detachment is required for this. Does it mean that our spiritual journey ends here?

Even the worship of Brahman is difficult in comparison to that of Bhagavān for another reason.  The difference in paths can be understood through the markaṭ- kiśhore nyāya (the logic of the baby) monkey, and mārjār- kiśhore nyāya (the logic of the baby kitten).  The baby monkey is responsible for holding onto her mother’s stomach; it is not helped by its mother.  When the mother monkey jumps from one branch to another, the onus of clinging tightly onto the mother is upon the baby, and if it is unable to do so, it falls.  In contrast, a kitten is very small and delicate, but the mother takes the responsibility of transporting it from one place to another, by holding the kitten from behind the neck and lifting it up.  In the analogy, the devotees of the formless can be compared to the baby monkey and the devotees of the personal form can be compared to the baby kitten.  Those who worship the formless Brahman have the onus of progressing on the path by themselves, because Brahman does not bestow grace upon them.  Brahman is not only formless, It is also without attributes.  It has been described as nirguṇa (without qualities), nirviśheṣh (without attributes), and nirākār (without form).  From this, it follows that Brahman does not manifest the quality of grace.  The jñānīs who worship God as nirguṇa, nirviśheṣh, and nirākār, have to rely entirely upon self-effort for progress.  On the other hand, the personal form of God is an ocean of compassion and mercy.  Hence, devotees of the personal form receive the help of divine support in their sādhanā.  On the basis of the protection that God bestows upon His devotees, Shree Krishna stated in verse 9.31: “O son of Kunti, declare it boldly that no devotee of Mine is ever lost.”  He confirms the same statement in the next two verses.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इसलिए इस श्लोक में कृष्ण खुले तौर पर स्वीकार करते हैं कि निर्गुण ध्यान अत्यंत कठिन है; जिसका अप्रत्यक्ष अर्थ है कि ज्ञान योग अत्यंत कठिन है; क्योंकि निर्गुण ध्यान ज्ञान योग का ही एक भाग है। ज्ञान योग में तीन अनुशासन शामिल हैं; श्रवणम; मननम और निधिध्यासनम। और निधिध्यासनम को निर्गुण ध्यानम कहा जाता है।

इसलिए निर्गुण ध्यान का अभ्यास करना अत्यंत कठिन है। कृष्ण कहते हैं कि सामान्य बाधा है देह अभिमानः। वेदांत के लिए सबसे बड़ी और सामान्य बाधा है अपने भौतिक शरीर के प्रति प्रबल आसक्ति, जो मन को स्थूलतम मन बना देती है; क्योंकि हम अपने स्थूलतम व्यक्तित्व से पहचाने जाते हैं और स्थूलतम व्यक्तित्व के कारण, उसके पास मन को सुधारने के बारे में सोचने का समय भी नहीं है, क्योंकि जब मैं हर समय शरीर को सुधारने में व्यस्त रहता हूँ, तो मन को सुधारने के बारे में सोचने का समय कहाँ है।

पूर्व श्लोक में निर्गुण उपासक के विषय में भगवान का कहना है कि वो मुझे ही प्राप्त होता है, अतः सगुण उपासना साधन है और निर्गुण उपासना साध्य एवम फल है। उपासक के तीन गुण बताए गए है।

1. इन्द्रीयसमुदाय का संयम

2. सर्वत्र समबुद्धि

3. सर्वभूतहित रति

इंद्रियों की अपने अपने विषयो में स्वाभाविक ही अनुकूल एवम प्रतिकूल बुद्धि से राग- द्वेषयुक्त प्रवृति होती है, वहां अनुकूल व प्रतिकूल बुद्धि से छूट कर अपने अपने विषयो में रागद्वेष वर्जित प्रवृति का नाम इन्द्रियसंयम है।

अध्यात्मवादियों का समूह जो परमेश्वर के अचिन्त्य, अव्यक्त, निराकार स्वरूप के पथ का अनुसरण करता है, उसे हम ज्ञान योगी कहते है। जप, तप एवम यज्ञ के कठिन नियमो का पालन करने वाला जीव शाश्वत रूप से व्यष्टि आत्मा है, वह आध्यात्मिक पूर्ण में तदाकार हो कर अपनी मूल प्रकृति के शाश्वत सत एवम ज्ञेय को प्राप्त तो करता है किंतु यह अत्यंत कठिन कार्य है।साधारण मनुष्य की समझ मे ही यह आना दुष्कर है तो करना तो और भी कठिन।

हम ने पहले भी ज्ञान योग में पढ़ा है जिस के समस्त पाप तथा रजोगुण और तमोगुण शांत हो गए हो, जिस का देहाभिमान नष्ट हो गया हो एवम जो ब्रह्म से एकाकार को प्राप्त हो गया हो, वो ही ब्रह्मसंथ या ब्रह्मभुत कहलाता है।वो ही परमात्मा को प्राप्त होता है। यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि चतुर्भुज विश्वरूप दर्शन उसे ही प्राप्त होते है जो सगुण उपासना करते है। निर्गुण उपासक अद्वेत भाव का उपासक है, वो परमात्मा से एकाकार होता है, उसे दर्शन की कामना भी नही होती।

तत्त्व में आविष्ट होने के लिये साधक में तीन बातों की आवश्यकता होती है – रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनों के द्वारा निर्गुण तत्त्व की महिमा सुनने से जिन की (निराकार में आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण उपासना को श्रेष्ठ मानने के कारण) उस में कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं परन्तु वैराग्य की कमी और देहाभिमान के कारण जिनका चित्त तत्त्व में प्रविष्ट नहीं होता। हमे अपना नाम, जाति, धर्म, शिक्षा, पद, अवस्था हमेशा ध्यान रहता है, यह शरीर मै हूँ, मै ही ध्यान लगा रहा हूँ। घ्यान लगाने वाला  जब तक उस अव्यक्त से एकाकार नहीं होता, इस का देहाभिमान बना रहता है।

जिन का देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह को ही अपना स्वरूप समझते हैं, वे लोग उन में आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का ध्यान करना प्राय असंभव होता है। जिस की दृष्टि मन्द हो और हाथ काँपते हों, ऐसे वृद्ध व्यक्ति को सुई में धागा डालने में बड़ी कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार, जो मन और बुद्धि क्षुब्ध हैं, चंचल और विषयोपभोग में लालायित रहती है, ऐसे अन्तकरण से युक्त पुरुष समस्त नाम और रूपों के अतीत अनन्त आत्मवैभव को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है, वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है।

भगवान किसी भी प्रकार से निर्गुण उपासना की तुलना नही कर रहे एवम न ही सगुण उपासना को श्रेष्ठ बता रहे है। क्योंकि अंत मे दोनों एक ही स्थान को प्राप्त होते है, इसलिये वो उन भक्तों को अन्य सरल मार्ग सगुण उपासना का मार्ग बताना चाहते जिस के द्वारा सगुणाकार व्यक्त परमात्मा द्वारा निर्गुणाकार अव्यक्त परमात्मा की बढ़ा जा सके।

इस को हम यदि और समझने की चेष्टा करे तो तो आंखों से जो कुछ देखते है उस को देखने वाले दो जन आत्मा और चित्त है। आत्मा अर्थात चेतन शुद्ध-बुद्ध होने से वह दृष्टा स्वरुप में जो कुछ देखता है, वह विकार रहित है। जब कि चित्त का प्राकृतिक स्वभाव सत-रज-तम गुणों का होता है, इसलिये अहम, कामना और स्वार्थ में वह स्वरूप को अपनी वृति के अनुसार देखता है और आत्मा अर्थात चेतन को दिखाता है। इसलिए चेतन चित्त की वृत्ति के कारण कर्तृत्व-भोक्तत्व भाव मे देखने लगता है।

निर्गुण उपासक इस चित्त की वृत्ति को योग, ध्यान, बुद्धि और ज्ञान से सयंम द्वारा शुद्ध करता है,   किन्तु किसी स्वरूप के न होने से यह प्रक्रिया अधिकांश लोगों के लिये कठिन और क्लेशमय होती है। इसलिये सरल प्रक्रिया में यह सब श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ सगुण परमात्मा के प्रति स्मरण और समर्पण से भी प्राप्त की जा सकती है। भक्तों के चार प्रकार् में ज्ञानी भक्त जब अहम और कामना त्याग कर परमात्मा के प्रति एक रूप हो जाता है तो उस की स्थिति भी सांख्य योगी की भांति ब्रह्मसिद्ध हो जाती है। इसलिए यह सगुण- फिर सगुणाकार से निर्गुणाकार और अंत मे निर्गुणाकार परमात्मा से एकाकार की प्रक्रिया है। अतः निर्गुण उपासक और सगुण उपासक दोनो एक ही परमात्मा की आराधना करते है, जिस में एक ज्ञान और विवेक से आगे बढ़ता है और दूसरा श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से समर्पित हो कर स्मरण करता हुआ आगे बढ़ता है।  चित्त को आत्मा के समान शुद्ध-बुद्ध करने की प्रक्रिया में त्याग दोनो को ही करना पड़ता है।

निराकार ब्रह्म की उपासना इतनी कठिन क्यों है? इसका प्रथम और महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि हम मनुष्य देहधारी हैं और अनंत जन्मों से साकार रूपों के साथ आचार व्यवहार करने के आदी हो चुके हैं। इसलिए भगवान से प्रेम करने के प्रयास में भी इसी प्रकार से यदि हम भगवान के मनोहारी रूप पर अपने मन को आकर्षित करते हैं तो यह सुगमता से भगवान पर एकाग्र हो जाता है और भगवान के प्रति हमारे अनुराग को बढ़ाता है। अपितु इसके विपरीत निराकार रूप की उपासना की स्थिति में हमारी बुद्धि निराकार रूप को ग्रहण नहीं कर सकती क्योंकि मन और इन्द्रियों के सामने कोई स्थूल पदार्थ नहीं होता जिस पर वे अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें। इसलिए भगवान का मनन करने का प्रयास और मन में भगवान की प्रीति को बढ़ाना दोनों कठिन हो जाते हैं। एक अन्य कारण से भी ब्रह्म की आराधना भगवान की उपासना की अपेक्षा कठिन है। इसके अंतर को ‘मर्कत किशोर न्याय’ अर्थात ‘बंदर के बच्चे’ और ‘मर्जर किशोर न्याय’ अर्थात बिल्ली के बच्चे के अन्तर से समझा जा सकता है। अपनी मां के पेट को कसकर पकड़ने का दायित्व बन्दर के बच्चे का ही होता है जबकि इसमें उसकी माँ कोई सहायता नहीं करती। जब मादा बंदर अपने बच्चे को लेकर वृक्ष की एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाती है तब माँ को कसकर पकड़ने का दायित्व बच्चे पर होता है। यदि वह ऐसा करने में समर्थ नहीं होता तब वह नीचे गिर सकता है। इसके विपरीत बिल्ली का बच्चा बहुत छोटा और कोमल होता है लेकिन उसकी गर्दन के पीछे से उसे मुँह से पकड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का दायित्व बिल्ली का होता है।

समान रूप से भगवान के निराकार रूप के उपासक की तुलना बंदर के बच्चे से की जा सकती है और साकार रूप के उपासक की तुलना बिल्ली के बच्चे से की जा सकती है। वे जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं, अपनी उपासना के मार्ग पर आगे बढ़ने का उत्तरदायित्व उन्हीं पर होता है क्योंकि ब्रह्म उन पर कोई कृपा नहीं करता। ब्रह्म केवल निराकार ही नहीं अपितु निगुर्ण भी है। उसका वर्णन निर्गुण, निर्विशेष और निराकार के रूप में किया गया है। इससे बोध होता है कि ब्रह्म में कृपा का गुण व्यक्त नहीं होता। ज्ञानीजन जो निर्गुण, निर्विशेष और निराकार भगवान की उपासना करते हैं उन्हें केवल अपने स्वयं के प्रयासों पर निर्भर रहना पड़ता है। दूसरी ओर भगवान का साकार रूप करुणा और दया का सागर है। इसलिए भगवान के साकार रूप की उपासना करने वाले भक्त अपनी साधना भक्ति द्वारा भगवान की दिव्य कृपा प्राप्त करते हैं और भगवान अपने भक्तों की रक्षा का दायित्व स्वयं ले लेते हैं। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने नौंवे अध्याय के 31वें श्लोक में यह कहा था-हे कुन्ती पुत्र! निडर होकर यह घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता।

बचपन मे यदि सीट पर बैठ कर साईकल नही चलानी आती तो कैंची चला कर साईकल सीखते है जिस से गति एवम हैंडल को कंट्रोल करें। फिर सामने डंडे पर उस के बाद सीट पर बैठ कर साईकल चलाना सीखते है। लेकिन साइकिल चलाना सीख कर भी साइकिल चलाने के नियम  जिस ने डायरेक्ट सीट पर बैठ कर चलाना सीखा है या कैची द्वारा, नियम एक ही होते है।

शंकराचार्य ने अपने आत्मबोध में बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि अंधकार केवल प्रकाश से ही दूर हो सकता है; अज्ञान केवल ज्ञान से ही दूर हो सकता है। अज्ञान के कारण ही संसार है; इसलिए मोक्ष केवल ज्ञान से ही हो सकता है। और यदि मैं दृढ़ता से कहता हूँ कि ज्ञान ही एकमात्र साधन है, तो आपको यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि मैं कट्टरपंथी हूँ; क्योंकि जब मुझे किसी तथ्य का पता लगाना होता है, तो आप मुझे कट्टरपंथी नहीं कह सकते। इसका मतलब है कि अगर मैं कट्टरपंथी नहीं हूँ, तो मुझे अंधकार को दूर करने के वैकल्पिक तरीकों को स्वीकार करना चाहिए। भले ही मुझे कट्टरपंथी कहा जाए, मैं कट्टरपंथी होना पसंद करूँगा, जैसा कि दयानंद स्वामी कहते हैं; मैं कहता हूँ कि केवल प्रकाश ही अंधकार को दूर करता है; यदि आप मुझे कट्टरपंथी कहते हैं, तो बेहतर है कि मैं कट्टरपंथी रहूँ; पागल होने के बजाय। इसलिए आप मुझे किसी भी नाम से बुलाएँ; मुझे कहना होगा कि अज्ञान केवल ज्ञान से ही दूर होता है। और वेद बार-बार पुष्टि करते हैं ज्ञानात एव तु कैवल्यम्।  और इसलिए यह कहना कि ज्ञान कठिन है और इसलिए मैं वैकल्पिक विधि अपनाऊंगा, आध्यात्मिकता के संबंध में भ्रम से पैदा हुआ है।

अतः परमात्मा को किस प्रकार उपासना से प्राप्त करे यह हम आगे पढ़ते है।

।।हरि ॐ तत सत।। 12.5।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply