Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  12.02 II

।। अध्याय      12.02 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 12.2

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥

“śrī-bhagavān uvāca,

mayy āveśya mano ye māḿ,

nitya- yuktā upāsate..।

śraddhayā parayopetās te,

me yuktatamā matāḥ”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान कहा – हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। (२)

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

Those who, fixing their mind in me, are constantly engaged in my worship, endowed with supreme faith, those are superior in yoga, in my opinion.

Explanation:

Previously, Arjuna had asked Shri Krishna to select which type of devotees were better between those who worship Ishvara as the formless unmanifest, and those who worship him as an entity endowed with form.

Remember, comparison is only among similars. Saguṇa bhakthi and nirguṇa bhakthi can never be compared because one is the means, and the other is the end. Saguṇa bhakthi is the sādanām, the means the stepping stone; and only through saguṇa bhakthi one has to reach nirguṇa bhakthi, which is advaitam. Saguṇa bhakthi is dvaitam; nirguṇa bhakthi is advaitam; saguṇa bhakthi is bhēdaḥ means what? difference; nirguṇa bhakthi is abēdaḥ; one is means the other is end. Therefore, you do not have a choice between them.

So, everyone has to go through saguṇa bhakthi and everyone has to end in the discovery of nirguṇa bhakthi; which is abēdaḥ advaita jñānam. Without saguṇa bhakthi, nirguṇa bhakthi is impossible and without nirguṇa bhakthi, saguṇa bhakthi is incomplete; without saguṇa bhakthi, nirguṇa bhakthi is impossible; and without nirguṇa bhakthi saguṇa bhakthi is incomplete. Therefore, everyone has to go through saguṇa bhakthi; come to nirguṇa bhakthi which is the culmination of sādanā. Hence, the basic question, which is better, itself is wrong.

And therefore, Krishna does not say you are wrong. And but he gives an intelligent answer. He says saguṇa bhakthas are superior; nirguṇa bhakthās attain Me. It is Krishna’s mischief; it is not only during childhood days; even in Gītā in the philosophical text also; He continues His mischief. So the idea is there is no question of choice. And therefore, He says: Saguṇa bhaktha is indeed great so that everyone will take to saguṇa bhakthi in the beginning. Once a person has sufficiently practiced, he can be slowly absorbed into, sucked into nirguṇa bhakthi; which is otherwise jñānam

But shri Krishna begins by describing those devotees who worship Ishvara endowed with form. He says that such devotees are the most superior yogis because they are constantly engaged in worship of Ishvara, full of supreme faith.

Three qualities of a superior yoga are highlighted here. Firstly, we as devotees should be able to fix our mind on Ishvara, using all the instruction given in chapter six and other places as well. In the initial stages of meditation, keeping our mind on Ishvara even for ten minutes is quite an achievement. Secondly, we have to be “nitya yuktaa”, the ability to remain constantly engaged in worship, without letting the mind divert itself to other pursuits. Thirdly, we need to be endowed with supreme and unwavering faith.

Even though these qualities may seem easy to attain on the surface, they are not so. Shri Krishna chooses words that indicate that he is looking for the highest kind of concentration and faith. For example, he uses the word “aaveshya” to describe concentration, but what it really means is using our thoughts to enter, to penetrate into the object of concentration. This kind of concentration requires a highly purified mind, free from selfish likes and dislikes and from attachment to material concerns. Our degree of faith further reinforces the ability to remain focused on our object of concentration.

God is perfect and complete and is the possessor of unlimited energies.  His personality is replete with divine Names, Forms, Pastimes, Virtues, Associates, and Abodes.  However, He is realized in varying levels of closeness, as the Brahman (formless all-pervading manifestation of God), the Paramātmā (the Supreme Soul seated in the heart of all living beings, distinct from the individual soul), and Bhagavān (the personal manifestation of God that descends upon the earth).  The Bhagavatam states: “The knowers of the Truth have stated that there is only one Supreme Entity that manifests in three ways in the world—Brahman, Paramātmā, and Bhagavān.”  They are not three different Gods; rather, they are three manifestations of the one Almighty God.  However, their qualities are different.  This is just as water, steam, and ice are all made from the same substance—H2O molecules—but their physical qualities are different.  If a thirsty person asks for water, and we give ice, it will not quench the thirst.  Ice and water are both the same substance, but their physical properties are different.  Similarly, Brahman, Paramātmā, and Bhagavān are manifestations of the one Supreme Lord, but Their qualities are different.

So then, what is Shri Krishna’s opinion on those devotees who worship Ishvara as the unmanifest? This comes next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन के प्रश्न पूछने पर की निर्गुण एवम सगुण में कौन श्रेष्ठ है, भगवान का कहना है जो भक्त मुझ विश्वरूप परमेश्वर में मन को समाधिस्थ कर के सर्व योगेश्वरों के अधीश्वर रागादि पञ्चक्लेश रूप अज्ञान दृष्टि से रहित मुझ सर्वज्ञ परमेश्वर की निरन्तर तत्पर हुए उत्तम श्रद्धा से युक्त होकर उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठतम योगी हैं, यह मैं मानता हूँ। क्योंकि वे लगातार मुझ में ही चित्त लगाकर रातदिन व्यतीत करते हैं, अतः उन को युक्ततम कहना उचित ही है।

द्वितीय अध्याय से आरम्भ कर के नवम अध्याय पर्यंत भगवान अपने सर्व साक्षी, सर्वात्म, इन्द्रियातीत एवम अव्यक्त स्वरूप की महिमा का वर्णन किया है। फिर इस अध्याय में परमात्मा श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से उन को समर्पित भाव से उन के स्वरूप का चिंतन का समर्थन कर रहे है। यह आपस मे विपरीत स्थिति दिखाई देते हुए भी, विपरीत नही है। जो चित्त की वृत्ति को जानते है, उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि चित्त की एकाग्रता किसी भी ध्यान, ब्रह्मसिद्ध होने के लिये प्रथम अनिवार्यता है। निर्गुण का ध्यान करने की अपेक्षा सगुण का ध्यान करना सरल है। अतः सगुण, सगुणाकार से निर्गुणाकार फिर निर्गुणाकार की स्थिति को अधिक सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। इसलिये दोनो उपासना एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के दो एक दूसरे के पूरक मार्ग है।

इसलिए याद रखें, तुलना केवल समानों के बीच ही होती है और सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति की कभी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक साधन है और दूसरा साध्य है। सगुण भक्ति ही साधन है, साधन ही सोपान है और केवल सगुण भक्ति से ही निर्गुण भक्ति तक पहुँचना है, जो अद्वैत है; सगुण भक्ति द्वैत है; निर्गुण भक्ति अद्वैत है; सगुण भक्ति भेद है अर्थात क्या? अंतर; निर्गुण भक्ति अभेद है; एक का अर्थ है दूसरा साध्य है। इसलिए आपके पास उनके बीच कोई विकल्प नहीं है।

इसलिए सभी को सगुण भक्ति से गुजरना होगा और सभी को निर्गुण भक्ति की खोज में पहुँचना होगा, जो अभेद: अद्वैत ज्ञानम् है। सगुण भक्ति के बिना निर्गुण भक्ति असंभव है और निर्गुण भक्ति के बिना सगुण भक्ति अधूरी है। सगुण भक्ति के बिना निर्गुण भक्ति असंभव है और निर्गुण भक्ति के बिना सगुण भक्ति अधूरी है। इसलिए सभी को सगुण भक्ति से गुजरना होगा; निर्गुण भक्ति तक पहुँचना होगा जो कि साधना की पराकाष्ठा है।

और इसलिए कृष्ण यह नहीं कहते कि तुम गलत हो। लेकिन वह एक बुद्धिमान उत्तर देते हैं। वह कहते हैं कि सगुण भक्त श्रेष्ठ हैं; निर्गुण भक्त मुझे प्राप्त करते हैं। यह कृष्ण की शरारत है; यह केवल बचपन के दिनों में ही नहीं है; यहाँ तक कि दार्शनिक ग्रंथ गीता में भी, वह अपनी शरारत जारी रखते हैं। तो विचार यह है कि चुनाव का कोई सवाल ही नहीं है और इसलिए वह कहते हैं: सगुण भक्त वास्तव में महान है ताकि हर कोई शुरुआत में सगुण भक्ति को अपनाए। एक बार जब कोई व्यक्ति पर्याप्त रूप से अभ्यास कर लेता है तो वह धीरे-धीरे निर्गुण भक्ति में लीन हो सकता है, उसमें डूब सकता है; जो अन्यथा ज्ञानम है।

एक सच्चा भक्त बनने के लिए इस श्लोक में जिस तीन आवश्यक एवं अपरिहार्य गुणों को बताया गया है, वे हैं (1) परम श्रद्धा (2) उपासना में नित्ययुक्तता और (3) ध्येयस्वरूप में मन की एकाग्रता। इन तीन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भगवान् युक्ततम मानते हैं।

भगवान् ने ठीक यही निर्णय अर्जुन के बिना पूछे ही छठे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में दे दिया था। परन्तु उस विषय में अपना प्रश्न न होनेके कारण अर्जुन उस निर्णय को पकड़ नहीं पाये। कारण कि स्वयं का प्रश्न न होने से सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्य में नहीं आती। अतः जब तक जिज्ञासा उत्पन्न न हो, ज्ञान की बात भी समझ मे नही आती।

गोपियों की भांति समस्त कर्म करते समय प्रेमास्पद, सर्वशक्तिमान, सर्वांतयामि, सम्पूर्ण गुणों से युक्त भगवान में तन्मय करके उन के गुण, प्रभाव और स्वरूप का सदा- सर्वदा प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहना ही मन को एकाग्र करके निरन्तर उन के ध्यान में स्थित रहते हुए उन की उपासना करना है।

भगवान के प्रति भक्त प्रह्लाद की भांति उन की सत्ता में, उन के अवतारों में, वचनों में, उन की शक्तियों में, उन के गुण, प्रभाव, लीला और ऐष्वर्य आदि में अत्यंत सम्मानपूर्वक जो प्रत्यक्ष से बढ़ कर विस्वास ही उन पर अतिशय श्रद्धा भाव है।

जीव जब धरा पर आता है तो उस कोई नाम, धर्म, जाति, कर्म नहीं होता। धीरे धीरे उस का मन, इंद्रियां, आत्मा सब कुछ चेतन एवम अचेतन स्वरूप से नाम, धर्म, जाति, कर्म, शिक्षा से जुड़ जाता है। यदि वो नींद में भी है तो भी नाम पुकारने पर तुरंत चेतना में आ जाता है। ऐसा की तारतम्यता भक्ति मार्ग में परमात्मा से जुड़नी चाहिये, जिस से भक्त व भगवान में कोई भेद न रहे।

जब स्वयं ही अपने आप को भगवान् का मान ले, तब तो मन बुद्धि भगवान् में तल्लीन हो ही जाते हैं। स्वयं कर्ता है और मन बुद्धि करण हैं। करण कर्ता के ही आश्रित रहते हैं। जब कर्ता भगवान् का हो जाय, तब मन बुद्धि रूप करण स्वतः भगवान् में लगते हैं।साधक से भूल यह होती है कि वह स्वयं भगवान् में न लगकर अपने मनबुद्धि को भगवान् में लगाने का अभ्यास करता है। स्वयं भगवान् में लगे बिना मनबुद्धि को भगवान् में लगाना कठिन है। इसीलिये साधकों की यह व्यापक शिकायत रहती है कि मन बुद्धि भगवान् में नहीं लगते। मनबुद्धि एकाग्र होनेसे सिद्धि (समाधि आदि) तो हो सकती है, पर कल्याण स्वयं के भगवान् में लगने से ही होगा।

मन को मुझ में एकाग्र कर के मन और बुद्धि दोनों ही वृत्तिरूप हैं, जिन्हें सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। यह पर्याप्त नहीं है कि मन की वृत्तियां आराम से भगवान् के रूप के आसपास विचरण करती रहें। उन्हें वास्तव में, उस रूप का भेदन करके, गहराई में प्रवेश कर अन्त में, पूर्णत्व के आदर्श के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। वह रूप तो पूर्णत्व का केवल प्रतीक होता है।इस प्रक्रिया को यहाँ आवेश्य शब्द से सूचित किया गया है। इसका अर्थ रूप के साथ वृत्ति का स्पर्श मात्र नहीं, वरन् रूप का भेदन है। इस का प्रत्यक्ष उदाहरण मीरा का कृष्ण प्रेम है।

दोनों प्रकार के उपासकों में जो मुझ में उक्त भाव मेरे सगुण स्वरूप में श्रद्धा एवम प्रेम रखते है, उन्ही को मैं उत्तम योगवेत्ता मानता हूँ।

ब्रह्म भगवान का सर्वव्यापक स्वरूप है। केवल एक ही परमात्मा है। ये तीनों अलग-अलग भगवान नहीं है अपितु एक सर्वशक्तिमान की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं। ये जल भाप और बर्फ के समान हैं जो सब एक ही तत्त्व-हाईड्रोजन डाईआक्साइड कण हैं लेकिन इनके भौतिक रूप विभिन्न होते हैं अगर कोई प्यासा व्यक्ति जल मांगता है तब यदि हम उसे बर्फ देते हैं तो उससे उसकी प्यास नहीं बुझेगी। बर्फ और जल दोनों एक ही तत्त्व हैं किन्तु उनके भौतिक गुण विभिन्न हैं। इस प्रकार ब्रह्म, परमात्मा और भगवान सभी एक ही परम प्रभु की अभिव्यक्तियाँ हैं किन्तु उनके गुण विभिन्न हैं। ब्रह्मः भगवान का सर्वव्यापक रूप है जो सर्वत्र है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन है

एको देवः सर्वभूतेषु गुढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा (श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.11)

अनंत ब्रह्माण्डों में एक परम ही सत्ता है। वह सभी वस्तुओं और सभी जीवों में स्थित है। भगवान के इस सर्वव्यापक रूप को ब्रह्म कहते हैं। यह सत्-चित्-आनन्द अर्थात नित्य, सर्वज्ञ और आनन्द है। अपने इस रूप में भगवान अपने अनंत गुणों, अनंत सौंदर्य और मधुर लीलाओं को व्यक्त नहीं करता। वह एक दिव्य ज्योति है जो कि निर्गुण निर्विशेष और निराकार है। जो ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हैं वे भगवान के इसी स्वरूप की पूजा करते हैं।

परमात्माः भगवान का वह स्वरूप है जो सबके हृदय में स्थित है। श्लोक 18.61 में श्रीकृष्ण कहते हैं-हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदयों में वास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देश देता है जो प्राकृत शक्ति से बने यंत्र पर सवार रहती हैं। हमारे हृदय में बैठकर भगवान हमारे सभी कर्मों को देखते हैं और उनका लेखा-जोखा रखते हैं और उचित समय पर उन कर्मों का फल देते हैं। हम जो कर्म करते हैं उसे भूल जाते हैं।

हमारे हृदय में बैठकर भगवान हमारे सभी कर्मों को देखते हैं और उनका लेखा-जोखा रखते हैं और उचित समय पर उन कर्मों का फल देते हैं। हम जो कर्म करते हैं उसे भूल जाते हैं। भगवान हमारे सभी विचारों और कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। उन्हें हमारे सभी विचारों, शब्दों, कार्यों और हमारे सभी जन्मों का स्मरण रहता है। न केवल इस जन्म में अपितु अनंत जन्मों में हम जहाँ भी रहे और हमने जो भी शरीर पाया वे सदैव हमारे साथ रहे। वे हमारे ऐसे मित्र हैं जो क्षण भर भी हमारा साथ नहीं छोड़ते। हमारे हृदय में स्थित भगवान का यह स्वरूप परमात्मा है।

समान रूप से भगवान पूर्ण सिद्ध हैं और अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। उनका परम व्यक्तित्त्व दिव्य नामों, रूपों, लीलाओं, गुणों, संतों और लोकों से परिपूर्ण है किन्तु उनकी निकटता विभिन्न स्तरों पर अनुभव होती है जैसे ब्रह्म (निराकार रूप में भगवान की सर्वव्यापक अभिव्यक्ति) परमात्मा (सभी जीवों के हृदय में स्थित परमात्मा जीवात्मा से भिन्न) और भगवान (भगवान का साकार रूप) जिसके द्वारा वह पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है;

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम्।  ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।।(श्रीमद्भागवतम्-1.2.11)

सत्य को जानने वाले कहते हैं कि केवल एक ही परम सत्ता संसार में तीन प्रकार से ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में प्रकट होती है।”

किन्तु इस का अर्थ यह भी नही की निर्गुण उपासना के बारे में जो पहले ज्ञान दिया गया व्यर्थ है, उस के लिए भगवान आगे जो कहते है, हम पढेंगे।

।। हरि ॐ तत सत ।। 12.02।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply