।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.01 II
।। अध्याय 12.01 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 12.1॥
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
“arjuna uvāca,
evaḿ satata-yuktā ye,
bhaktās tvāḿ paryupāsate..।
ye cāpy akṣaram avyaktaḿ,
teṣāḿ ke yoga- vittamāḥ”..।।
भावार्थ:
अर्जुन ने पूछा – हे भगवन! जो विधि आपने बतायी है उसी विधि के अनुसार अनन्य भक्ति से आपकी शरण होकर आपके सगुण-साकार रूप की निरन्तर पूजा-आराधना करते हैं, अन्य जो आपकी शरण न होकर अपने भरोसे आपके निर्गुण-निराकार रूप की पूजा-आराधना करते हैं, इन दोनों प्रकार के योगीयों में किसे अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माना जाय? (१)
Meaning:
Arjuna said:
Those devotees, constantly united in you, worship you, and those devotees who worship the imperishable, the unmanifest, between them, who is the superior knower of yoga?
Explanation:
The first chapter of the Gita addressed the confusion of Arjuna arising out of his lack of identity, and of not knowing his duty on the battlefield. Chapters two to five explained what is the true nature of the individual, and using karma yoga to purify oneself. Chapter six explained how to remain constantly in one’s true nature through the yoga of meditation. Chapters seven to ten gave us an elaborate description of Ishvara, culminating with the vision of the cosmic form in the eleventh chapter.
The theme of this chapter is bhakti yoga, the yoga of devotion to Ishvara. Throughout the Gita, Shri Krishna has said, “perform actions for me”, “become devoted to me”, “make me your supreme goal”. But we have to first know, who is this “me” that is to be worshipped? There are some places in the Gita where Shri Krishna has described himself as imperishable, unmanifest, not visible to our senses. Conversely, he has shown his visible cosmic form to Arjuna in the previous chapter. In India, most devotees worship images of their chosen deities in their homes and temples.
So then, Arjuna wants to know, who is the superior devotee? Is it the one who worships the unmanifest, or is it one who worships the manifest? There is a well-known Marathi bhajan (devotional song) that asks the very same question: do I call you saguna or nirguna? Saguna means one with attributes, one that can be seen and felt. Nirguna means one that has no attributes. It is a tough choice for Shri Krishna.
Arjun’s question once again confirms that God has both aspects—the all-pervading formless Brahman and the personal form. Those who say that God cannot possess a personal form limit Him, and those who say that God only exists in a personal form also limit Him. God is perfect and complete, and so He is both formless and possessing forms. We individual souls too have both aspects to our personality. The soul is formless, and yet it has taken on a body, not once, but innumerable times, in countless past lifetimes. If we tiny souls have the ability to possess a form, can the all-powerful God not possess a form whenever He wishes? Even the great proponent of the path of jñāna-yog, Jagadguru Shankaracharya, stated:
mūrtaṁ chaivāmūrtaṁ dwe eva brahmaṇo rūpe, ityupaniṣhat tayorvā dwau
bhaktau bhagavadupadiṣhṭau, kleṣhādakleśhādwā muktisyāderatayormadhye
“The Supreme entity is both personal and impersonal. Practitioners of the spiritual path are also of two kinds—devotees of the formless Brahman, and devotees of the personal form. But the path of worshipping the formless is very difficult.”
He answers the question in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान द्वारा परमात्मा के साकार, निराकार एवम सर्वव्यापकत्व स्वरूप को बता चुके है। आध्यात्मवादियों के अनुसार भक्त दो प्रकार के होते है। एक निर्विशेषवादी एवम द्वितीय सगुणवादी।
जो लोग भक्ति के द्वारा परमेश्वर की प्रत्यक्ष सेवा करते है, वे सगुणवादी कहलाते है एवम जो लोग निर्विशेष ब्रह्म का ध्यान करते है वो निर्विशेषवादी कहलाते है।
भगवान कृष्ण ने द्वितीय अध्याय में बताया कि जीव भौतिक शरीर नहीं है, वह आध्यात्मिक स्फुलिंग है और परम सत्य परम पूर्ण है। सांतवे अध्याय में उन्होंने ज्ञान- विज्ञान का निरूपण कर के जीव को परम पूर्ण का अंश बताते हुए पूर्ण पर ही ध्यान लगाने की सलाह दी है। पुनः आठवें अध्याय में अक्षर, अनिर्देशय और अव्यक्त ब्रह्म के स्वरूप को बताते हुए कहा है कि जो मनुष्य भौतिक शरीर का त्याग करते समय कृष्ण का स्मरण करता है वो सीधा उन के धाम को प्राप्त होता है। छठे अध्याय में भी कृष्ण कहते है कि योगियों में से जो भी अपने अन्तःकरण में निरंतर कृष्ण का चिंतन करता है, वही परम् सिद्ध है। ग्याहरवे अध्याय में भक्ति से और निसंग बुद्धि से समस्त कर्म की सलाह अंत मे दी।
अध्याय तीन में अर्जुन ने प्रश्न किया था कि निष्काम कर्मयोग से सांख्य योग आप को श्रेष्ठ लगता है तो उसे क्यों कर्म करना चाहिए। तब भगवान ने बताया था कि कर्म तो दोनों मार्ग में आवश्यक है। अध्याय पांच में भी अर्जुन ने पूछा था कि भगवन! आप कभी सांख्य माध्यम से कर्म करने की प्रशंसा करते है, तो कभी समर्पण माध्यम से निष्काम कर्म योग की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है? तब भगवान ने बताया था कि निष्काम कर्म मार्ग श्रेष्ठ है, निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना न कोई योगी होता है न ज्ञानी। सांख्य योग दुष्कर है, इसलिये सभी के संभव नही।
आठवें अध्याय में क्षर-अक्षर विचारपूर्वक परमेश्वर के अव्यक्त स्वरूप को सिद्ध करके कहा कि युद्धचित्त से मुझे ह्रदय में धारण करते हुए युद्ध कर और नवम अध्याय में व्यक्त उपासनारूप प्रत्यक्ष धर्म बताकर परमेश्वर बुद्धि से सभी कर्म करने को कहा।
यह सुविदित तथ्य है कि जगत् में दो प्रकार के साधक होते हैं, जो वस्तुत एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए साधनारत होते हैं। कोई साधक परमात्मा के सगुण, साकार व्यक्त रूप की आराधना उपासना करते हैं, जबकि अन्य साधक निर्गुण, निराकार अव्यक्त का ध्यान करते हैं। दोनों ही निष्ठावान् हैं और अपने अपने मार्ग पर प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु, प्रश्न यह है कि इन दोनों में कौन उत्तम योगवित् या योगनिष्ठ है। दर्शनशास्त्र में इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त कहते हैं तथा जो वस्तु प्रमाण गोचर नहीं होती, उसे अव्यक्त कहा जाता है। विद्यार्थी दशा में अर्जुन को यह बताया गया था कि परमात्मा अव्यक्त और सर्वव्यापी है। परन्तु, पूर्व अध्याय में ही उसने ईश्वरी विराट रूप का साक्षात् दर्शन किया था। वह उसका व्यक्तिगत अनुभव था। स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित अनुप्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है। अनुप्रश्न का अर्थ है, पूर्व में दी गई जानकारी के आधार में प्रश्न को पूछना, जब कि प्रश्न हमेशा नई जानकारी के आधार पर किया जाता है।
अर्जुन का प्रश्न पुनः यह पुष्टि करता है कि भगवान के दो रूप हैं-एक सर्वव्यापक निराकार ब्रह्म रूप और दूसरा उनका साकार रूप। जो यह कहते हैं कि भगवान साकार रूप धारण नहीं कर सकते वे भगवान को अपूर्ण मानते हैं और इसी प्रकार से जो यह कहते हैं कि भगवान केवल साकार में विद्यमान रहते हैं वे भी भगवान को अपूर्ण सिद्ध करते हैं। भगवान पूर्ण और सिद्ध हैं इसलिए वे साकार और निराकार दोनों रूपों में रहते हैं। हम जीवात्माओं के व्यक्तित्त्व के भी दो पहलू हैं। हमारी आत्मा निराकार है फिर भी यह न केवल एक बार शरीर धारण करती है अपितु अनंत बार हमारे अनगनित पूर्व जन्मों में आत्मा हमारे शरीर में थी और आगे के जन्मों में भी रहेगी। यदि हम अणु जीवात्माओं के व्यक्तित्त्व के दो स्वरूप हैं तब फिर सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी इच्छानुसार जब चाहे साकार रूप धारण क्यों नहीं कर सकता? यहाँ तक कि ज्ञान योग के प्रबल समर्थक शंकराचार्य ने भी कहा है
मूर्तम् चैवमूर्तम् द्वेवा ब्रह्मणों रूपे, इत्युपनिशत त्योरवाद्वय
भक्तो भगवदुपदिष्टौ, क्लेशदक्लेशद्वा मुक्तिस्यादेरत्योर्मध्ये
“परम प्रभुत्ता सम्पन्न भगवान के साकार और निराकार दोनों रूप हैं। आध्यात्मिक मार्ग के साधक भी दो प्रकार के होते है-एक निराकार ब्रह्म के उपासक और दूसरे साकार रूप की आराधना करने वाले किन्तु निराकार रूप की पूजा करना अत्यंत कठिन है।”
साकार और निराकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन है — अर्जुन के इस प्रश्न का भगवान् ने जो उत्तर दिया है, उस पर गहरा विचार करने से अर्जुन के प्रश्न की महत्ता का पता चलता है जैसे , इस अध्याय के दूसरे श्लोक से चौदहवें अध्यायके बीसवें श्लोक तक भगवान् अविराम बोलते ही चले गये हैं। भगवान द्वारा तिहत्तर श्लोकों का इतना लम्बा प्रकरण गीता में एकमात्र यही है, जिस में बाहरवें अध्याय के बाद अर्जुन उवाच चौदहवें अध्याय में 21वें श्लोक में आया। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि भगवान् इस प्रकरण में कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात समझाना चाहते हैं।
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में, भगवान क्या कहते है, आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता 12.01।।
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