।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.54 II Additional II
।। अध्याय 11.54 II विशेष II
।। भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग ।। विशेष गीता – 11.54 ।।
अभी तक हम ने गीता में पढ़ा कि देह में बनी सर्वभूतात्मैक्यरूपी निष्काम बुद्धि ही कर्मयोग की और मोक्ष की भी जड़ है। यह शुद्ध बुद्धि ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान से प्राप्त होती है। अतः इस को प्राप्त करने के लिये ज्ञान, ध्यान और त्याग को हम ने पढ़ा। किन्तु प्रश्न यह है कि यह सभी के लिये संभव नही है। प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि का विकास एक समान हो, यह आवश्यक नही। तो क्या हम यह मान ले कि मोक्ष का अधिकार उन लोगो को नही है,जिन का मानसिक विकास उच्च श्रेणी में नही हुआ है।
कुछ बाते ज्ञान से समझ मे आती है, ज्ञानी लोग भी इस के लिये अध्ययन और चितंन करते रहते है। किंतु जब ब्रह्म का विषय हो तक उस की विवेचना करते हुए उन्हें भी नेति-नेति कहना पड़ता है, क्योंकि ब्रह्म का वर्णन करना सभी के लिये सम्भव नही।
कौन इस संभावना से इनकार कर सकता है कि बरगद के फल में कुछ भी नजर नही आने पर भी, इतना विशाल वृक्ष बन जाता है। सूर्य पूर्व से हर सुबह प्रकट होता है, क्यों? हम कारण बता सकते है परंतु ‘क्यों’ को बताना कठिन है।
स्त्री के प्रति दृष्टिकोण का आधार हमारा ज्ञान नही होता, उस का आधार होता है, हमारी श्रद्धा और भावना। एक स्त्री श्रद्धा और भावना से माँ, बहन, कामुक, बेटी आदि विभिन्न स्वरूप में दिखती है।
इसी प्रकार प्रकृति में अनेक वर्षों से जो क्रम चल रहा है, वह किस को कब कौंध जाए, इसे कौन जानता है। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज सेब को गिरते देख कर की, क्या सेब उस से पहले नही गिरता था।
अतः सर्वभूतात्मैक्यरूपी निष्काम बुद्धि को यही प्राप्त करना सभी के सम्भव न हो तो उस ज्ञान को, जिसे अन्य ने प्राप्त किया है, हम श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ भी प्राप्त कर सकते है। परमात्मा कहते है, जो मुझे भक्तिभाव से भजते है, उन्हें ज्ञान मैं प्रदान करता हूँ और उन का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
कर्म कांड या पूजा पाठ में मंत्र जाप करने से या मंदिर में जा कर दर्शन करने से मुक्ति मिल जाती, अथवा निष्ठा मंदिर परिसर में मूर्ति की तारक शक्ति होतो तो, मन्दिर में चप्पल की चोरी कोई नही कर सकता था। दिनभर लोगो को व्यापार में धोका देना या लोगो को फसा कर ठगना, फिर सुबह-शाम मंदिर जाना, भक्ति का भाव नही है। जब तक व्यवहारिक या स्वार्थ बुद्धि से भक्ति होगी तो कितनी भी पूजा करे, कुछ भी लाभ नही होगा। मुक्ति के लिये अनन्य भक्ति ही होनी चाहिए।
भक्ति विभिन्न प्रकार और उद्देश्य को ध्यान में रख कर की जाती है, इसलिये भक्ति सगुण उपासना है। इस भक्ति में पराकाष्ठा अनन्य भक्ति की है, जहां भक्त और भगवान में अंतर नही रहे अर्थात भक्त भी ज्ञानयोगी की भांति भगवान के चिंतन में इतना अधिक डूब जाए कि उस की स्थिति ब्रह्मसन्ध की भांति हो, उसे एक चींटी तक मे भगवान ही के स्वरूप दिखे।
अतः मार्ग निष्काम कर्मयोग हो, ज्ञानयोग, ध्यान योग हो या फिर भक्ति योग। परमात्मा ही एक मात्र साध्य है, साधन भी वही है। यही एकरूपता है।
जीव जब तक प्रकृति से जुड़ा है, तब तक वह प्रकृति के नियमो से बंधा है। उस के बंधन में कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव का अभाव होना ही, मुक्त होना है। अतः अभाव का यह अर्थ यह कदाचित नही है कि जीव प्रकृति से मुक्त हो गया या कर्मो से मुक्त हो गया। कर्म का स्वरूप निष्काम एवम लोकसंग्रह हेतु हो जाता है। इसलिए युद्ध भूमि में भगवान अर्जुन को कर्म त्याग का आदेश या सुझाव कभी नही देते।
आलस्य जीव का प्राकृतिक स्वभाव है। राग-द्वेष, मन की स्वावभिक प्रकृति है। इसलिये जीव मूलतः काम, क्रोध, लोभ, मोह, स्वार्थ जैसे दुर्गुणों से जुड़ा रहता है। ज्ञान योग के मार्ग क्लेशमय कठिन मार्ग है किंतु भक्ति मार्ग में भी अनन्य भक्ति का मार्ग भी किसी भी प्रकार् से तप से कम नही, किन्तु इस मे परमात्मा की कृपा दृष्टि बनी रहती है, इसलिये जब निष्काम कर्मयोगी श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ परमात्मा के प्रति समर्पण एवम स्मरण भाव ह्रदय में धारण कर के अपने कर्म में लगा रहता है, तो उस के लिये परमात्मा ही सारथी का कार्य भार संभालते है और उसे के लिये सभी मार्ग से निष्कंटक पार करवाते है।
इस अध्याय के अंत मे भक्तिमार्ग का वर्णन किया है जिसे हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे। भक्तिमार्ग मोक्ष का सब से अहम और सरल मार्ग है किंतु भक्ति किसे कहते है, यह निष्काम कर्मयोग से किस प्रकार सम्बंधित है, हम आगे पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष गीता – 11.54 ।।
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