।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.53 II Additional II
।। अध्याय 11.53 II विशेष II
।। निज धर्म और मर्यादा ।। विशेष – गीता 11.53 ।।
पूर्व में एक निजी मत रखा था, उसी संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं को सुन रहा था जो यूट्यूब में रश्मिरथी में श्रृंखला बद्ध में है।
यदि सभी अपने अपने सीमित धर्मो का पालन कर रहे थे तो प्रश्न यह आता है कि भीष्म ने प्रतिज्ञा में हस्तिनापुर की रक्षा करते हुए, अपने की प्राण हरण की विधि बता कर प्रतिज्ञा के साथ अन्याय नही किया। उन्हें स्वैच्छा से मृत्यु का वरदान था तो उन्होंने क्यों मृत्यु का मार्ग चुना।
कर्ण ने मित्र धर्म को निभाते हुए भी अपना कर्ण कुंडल एवम कवच का दान दिया एवम चार पांडव को भी युद्ध मे जीवन दान दिया। अर्जुन को भी एक बार हरा कर युद्ध के नियमो में छोड़ दिया। उस ने भी अपनी मृत्यु का स्वेच्छा से वरण किया।
द्रोण हस्तिनापुर के साथ बंधे रहने के बावजूद युद्ध भूमि में अपने पुत्र की मृत्यु के समाचार को सहन नही कर सके एवम सेनापति होते हुए भी हथियार डाल दिये।
पांडव लड़ तो धर्म युद्ध रहे थे किंतु लगभग सभी कौरव वीरों को युद्ध के नियमो के विरुद्ध जा कर मारा। क्यों धर्म युद्ध का उद्देश्य सिर्फ युद्ध जितना ही है।
कृष्ण स्वयं परमात्मा होते हुए भी अपने मे विश्वास रखने वाले कर्ण, दुर्योधन आदि को पांडव के हित में राजनीति में गलत सलाह देते रहे।
धर्मयुद्ध जीत कर भी पांडव उस गौरव प्राप्त न कर सके और जिसे भीष्म, कर्ण, बर्बरीक आदि हार कर भी उन से अधिक प्राप्त किया। उन से अनुचित कार्य उन की मर्यादा में रहने से हो गया, हो सकता है किंतु निजी स्वार्थ में इन लोगो ने कोई अनुचित कार्य नहीं किया।
हम धर्म को कैसे परिभाषित कर सकते है, किस के चरित्र को ले कर हम कह सकते है यह धर्म से युक्त है, सनातन है। धर्म को परिभाषित करने के लिये भी हमे कृष्ण के समान परमात्मा ही चाहिए। अतः हम जिस भी मर्यादा या नियम का पालन करे वह सात्विक, जनहित में, निस्वार्थ होनी चाहिये। हमारा हमारे वर्ण के अनुसार किया प्रत्येक कर्तव्य कर्म ही हमारा धर्म है।
जब कोई व्यक्ति किसी मर्यादा का पालन जनहित या निस्वार्थ भाव मे सात्विक गुण के साथ करता है, तो वह मर्यादा उस के व्यक्तित्व का आयाम हो जाती है, इस जगत में रहने वाले सात्विक मर्यादाओं को सम्मान देते है। इसलिये मातृभूमि, स्त्री एवम निर्बल की रक्षा, आपातकाल में अपना सर्वशः दान करना, सत्य बोलना, किसी की रक्षा हेतु अपना बलिदान देना आदि ऐसे गुण या मर्यादाएं है जिन से कोई भी व्यक्ति यदि इन मर्यादाओं का पालन करते हुए प्राण भी दे दे तो भी जगत में वह आम जनमानस पर अपनी छाप अनगिनत काल तक छोड़ देता है। फिर चाहे व्यवसाय ही क्यों न हो, वह भी हमारा धर्म बन जायेगा। व्यापार में अपनी बात की मर्यादा और धोखा घड़ी नही करने वालों को पूरा व्यापारी वर्ग सम्मान भी देता है और याद भी रखता है, भले ही उस ने धन नहीं कमाया हो, किंतु उस नाम धन कमाने वाले से अधिक होता है। उदाहरण में टाटा ग्रुप को लोग अडानी या अंबानी ग्रुप से अधिक सम्मान जनित मानते है।
यही कारण है कि भीष्म, कर्ण आदि युद्ध न भी जीत सके, अधर्म व्यक्ति के पक्ष में युद्ध भी किये किन्तु अपनी योग्यता, मर्यादा के कारण जगत में पांडव से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुए।
अपनी प्रतिज्ञा, नियम और धर्म के अतिशय पालन भी अपने आप मे एक कमजोरी है, कर्ण की दान के नियम ने उस के कवच कुंडल छीन लिए। राजा बलि को वामन अवतार में उस के दान की प्रवृति के कारण भगवान विष्णु ने ठगाI पृथ्वी राज चौहान द्वारा निहत्थे हारे हुए शत्रु को अभय प्रदान करना, उस के लिये प्राण, राज खोने का कारण बना। यदि हम भगवान श्री कृष्ण का जीवन चरित्र पढ़े, तो हमे ज्ञात होगा, निष्काम कर्मभूमि में कर्म करते हुए, उन्होंने किसी भी प्रतिज्ञा या मर्यादा को अपनी कमजोरी नही बनने दिया। युद्ध भूमि में भीष्म के विरुद्ध हथियार उठा कर, उन्होंने प्रतिज्ञा भंग की। अतः निष्काम कर्मयोग में लोकसंग्रह एवम ब्रह्मा जी द्वारा बताए सनातन धर्म का पालन करना ही श्रेष्ठ धर्म है। अन्य मर्यादा या प्रतिज्ञा हमारे चरित्र या प्रसिद्धि को अवश्य प्रदान कर सकते है, किन्तु लोकसंग्रह के कर्तव्य पालन को पूर्ण करने में बाधक हो सकते है।
इसलिये जो पूर्ण सनातन धर्म का पालन भी नही कर सकते, यदि वह सात्विक मर्यादाओं में जीवन व्यापन करते है और जिन का जीवन जनहित को समर्पित होता है, वह निष्काम कर्मयोगी भी अपने अच्छे कर्मों के कारण संसार मे पूजा जाता है। गुरु तेगबहादुर जी बलिदान, शिवा जी, महाराणा प्रताप , Dr होमी जहांगीर भाभा आदि हमे कई नाम मिल जायेंगे, जिन को संसार उन की उपलब्धियों और त्याग के लिये याद करता है। किन्तु कर्तव्य पालन के धर्म मे सनातन धर्म ही श्रेष्ठ है।
हम यदि त्रेतायुग में राम एवम रावण के समय पर विचार करे तो हम पाएंगे कि राम ने एक मर्यादित जीवन जिया, वह स्वयं एवम अपने सभी निकट लोगो के साथ पूर्णता मर्यादित रहे। इस लिये रावण ज्ञानी, शक्तिशाली एवम नीतिवान होते हुए भी राम के समक्ष टिक नही सका।
पुराने चलचित्रों में चरित्र को विशेष महत्व दे कर सद्चरित्र, अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाले, असत्य या मिथ्या भाषी न होना नायक की पहचान थी। किन्तु आज के युग मे चरित्र, कर्म, वाक किसी का न महत्व न हो कर नायक उसे बना दिया जो निर्धन और गरीब को सहायता दे। धन किसी भी स्रोत से आये, प्राप्त करने वाला पात्र हो या न हो, उस का उपयोग क्या होगा, इस कि कोई विवेचना नही। यह समाज का अवमूल्यन नही तो क्या है। महाभारत में अधर्म में दुर्योधन के साथ जिन भी महापराक्रमी लोगो ने साथ दिया, उन्हें कभी नायक नही बनाया गया। रामायण में भी रावण के साथ कितने भी सद्चरित्र योद्धा हो, उन्हें नायक नही बनाया गया।
महाभारत में ब्राह्मण और व्याध का संवाद है जिस में व्याध पहले बहुत से अध्यात्म ज्ञान देता है, फिर कहता है, ‘ हे द्विजवर ! मेरा जो प्रत्यक्ष धर्म है, उसे देखो । इस के बाद उस ने ब्राह्मण का परिचय अपने वृद्ध माता-पिता से कराया और कहा, यही मेरे प्रत्यक्ष देवता है और मनोभाव से इन की ईश्वर के समान सेवा करना ही मेरा प्रत्यक्ष धर्म है।
अतः व्यक्तिगत मर्यादा और कर्तव्य पालन का धर्म और ब्रह्मा जी द्वारा बताए हुए सनातन धर्म के अंतर को भली भांति समझा जा सकता है।
राम ने जिस मर्यादा की स्थापना त्रेतायुग में की थी वो भगवान कृष्ण जी ने द्वापर में खत्म कर दी। यही कारण के राम आज भी जिस आदर्श एवम आत्मिक सम्मान के साथ जन जन के मानस में है, उस के विपरीत भगवान श्री कृष्ण को राजनीतिज्ञ के रूप पूजा जाता है। भगवान श्री कृष्ण और राम एक ही परमात्मा के दो रूप है। किन्तु सामाजिक आचरण की दृष्टि से लोग भगवान राम के चरित्र को भगवान श्री कृष्ण के चरित्र की अपेक्षा अधिक महत्व देते है।
समाज में लोकसंग्रह या लोक कल्याण के लिए भी यदि कोई विपरीत मार्ग में जाने की चेष्टा करता है तो उस को पहले अपना चरित्र भगवान श्री कृष्ण जैसे निष्पक्ष, निष्काम, निस्वार्थ और तपस्वी सा बनाना होगा अन्यथा विपरीत मार्ग में कब जीव योगभ्रष्ट हो जाए, कोई नही जानता। उस को अपने अहम को त्याग कर अपनी कोई छवि या मर्यादा नही बनानी होगी, क्योंकि विरोध में अनेक बाधाए और अपमान भी सहने होते है। जो मर्यादित होते है वे कर्ण, भीष्म या द्रोण तो हो सकते है किंतु भगवान श्री कृष्ण नहीं।
गीता में अर्जुन को भगवान ने अपने स्वरूप के दर्शन के साथ स्पष्ट कर दिया कि जिस विराट स्वरूप के दर्शन उस ने देखे है उस का एक मात्र कारण अर्जुन का समर्पण भाव है। यह वेद शास्त्रो के अध्ययन, यज्ञ और दान से नही मिलता, इस को प्राप्त करने के भगवान के प्रति अहम त्याग कर समर्पण करना पड़ता है। ज्ञान, साहस, योग्यता और मर्यादा में द्रोण, भीष्म और कर्ण अर्जुन से आगे थे, किन्तु यह सभी अपने अपने अहम से बंधे थे, इसलिये जब तक मैं और तू है, परमात्मा के दर्शन नही हो सकते। उसे पाने के लिए मैं को त्याग कर सिर्फ तू होना पड़ता है।
पूर्व में लिखा था कि कृष्ण को अर्जुन की तलाश है, क्योंकि गीता को पढ़ने वाले अक्सर कृष्ण बन जाते है और गीता की उपदेशों का प्रचार और प्रसार करते है। अर्जुन बन कर गीता के उपदेश को आत्मसात करने और अनुसरण करने वाले कदाचित ही मिलते है। महृषि व्यास जी गीता किसी को पढ़ कर सुनाने के लिये या उस के श्लोक याद कर के बोलने के नही लिखी, उन्होंने इसे आत्मसात करने, जीवन मे इस को अपनाने एवम इस के अनुसार निष्काम कर्म करने के लिये लिखी। किंतु वे कृष्ण भी पूरे कहा बन सकते है क्योंकि वे प्रकृति से बंध कर सकाम, राग – द्वेष, लोभ और स्वार्थ एवम मोह और ममता से बंधे ज्ञानी होते है, यह स्थिति को हम ने प्रथम अध्याय और द्वितीय अध्याय में अर्जुन द्वारा शास्त्रों और अपनी कमजोरी को सही सिद्ध करते समय पढ़ी थी।
गीता अर्जुन का ग्रन्थ है, अर्जुन ही उस के योग्य पात्र है, इसलिये भगवान का विराट विश्वरूप दर्शन, चतुर्भुज दर्शन और दो भुजाओं में मानवीय स्वरूप में उस के सारथी का दर्शन उस को ही प्राप्त हुआ जो किसी भी वेद के अध्ययन, ध्यान यज्ञ और दान आदि से प्राप्त नही हो सकता है। अर्जुन बनो- कृष्ण स्वयम तुम्हे खोज लेंगे, गीता का संदेश भी देंगे और तुम भी विराट स्वरूप के दर्शन कर पाओगे। कृष्ण बन कर गीता का पाठ यदि करते भी रहे या जन जन को सुनाते या पढ़ाते भी रहे तो दर्शन का लाभ नही मिल सकता। वेद, शास्त्रो अध्ययन और यज्ञ कर्मो को अनुगामी होकर करो। भक्त का स्थान भगवान से बड़ा हो जाता है जब भक्त श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से भगवान को समर्पित हो जाता है। गीता निष्काम भाव से कर्मयोग में भक्ति मार्ग का अनुमोदन करती है, जिसे हम अब आगे पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष गीता – 11.53 ।।
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