।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.50 II
।। अध्याय 11.50 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.50॥
संजय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा॥
“sañjaya uvāca,
ity arjunaḿ vāsudevas tathoktvā,
svakaḿ rūpaḿ darśayām āsa bhūyaḥ..।
āśvāsayām āsa ca bhītam enaḿ,
bhūtvā punaḥ saumya-vapur mahātmā”..।।
भावार्थ:
संजय ने कहा – वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद अपना विष्णु स्वरूप चतुर्भुज रूप को प्रकट किया और फिर दो भुजाओं वाले मनुष्य स्वरूप को प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया। (५०)
Meaning:
Sanjaya said:
Then, having said this to Arjuna, Vaasudeva showed his form, and again assuming his pleasant form, reassured the scared one.
Explanation:
The eighth chapter in the tenth canto (book) of the Srimad Bhaagavatam describes the ceremony where the sage Garga, in the village of Gokula, gave Shri Krishna the name “Vaasudeva” to indicate that he was the son of Vasudeva. This ceremony was conducted in a low- key manner so as not to arouse the suspicion of the king Kansa, who had vowed to finish the progeny of Vasudeva. Vaasudeva also means “one who pervades the universe”.
Shree Krishna hid the vision of his cosmic form, and manifested before Arjun in his four-armed form, which is adorned with a golden diadem, disc, mace, and lotus flower. It is the repository of all divine opulences such as majesty, omniscience, omnipotence, etc. The four-armed form of Shree Krishna evokes the sentiment of awe and reverence, much like the sentiments of the citizens of a kingdom toward their king. However, Arjun was a sakhā (friend) of Shree Krishna, and devotion dominated by the sentiment of awe and reverence would never satisfy him. He had played with Shree Krishna, eaten with him, confided his private secrets to him, and shared loving personal moments with him. Such blissful devotion of sakhya bhāv (devotion where God is seen as a personal friend) is infinitely sweeter than aiśhwarya bhakti (devotion where God is revered as the distant and almighty Lord). Hence, to conform to Arjun’s sentiment of devotion, Shree Krishna finally hid even his four-armed form, and transformed into his original two-armed form.
Once in the forest of Vrindavan, Shree Krishna was engaging in loving pastimes with the gopīs, when he suddenly disappeared from their midst. The gopīs prayed for him to come back. Hearing their supplications, he manifested again, but in his four-armed form. The gopīs thought him to be the Supreme Lord Vishnu, and accordingly they paid their obeisance. But they moved on, not being attracted to spend any further time with him. They had been habituated to seeing the Supreme Lord Shree Krishna as their soul-beloved, and this form of his as Lord Vishnu held no attraction for them. However, Radharani came onto the scene, and upon seeing her, Shree Krishna became overwhelmed in love for her, and could no longer maintain his four-armed form. His two arms automatically disappeared, and he resumed his two-armed form. In this verse too, Shree Krishna returned to his most attractive two-armed form.
In this shloka, Sanjaya introduced himself in the commentary to indicate that Shri Krishna ended the fearful cosmic form, then assumed his four-armed form, and then the pleasant two armed form that Arjuna knew and loved. Shri Krishna held a whip in one hand and the reins of the chariot in another. Just like a father scolds his children and immediately pacifies them, he pacified Arjuna and ensured that his state of mind returned to normal. This is reflected in the next shloka where the chanting meter also reverts to the “anushtubh chandha”, the default meter for chanting the Gita.
।। हिंदी समीक्षा ।।
यह कथन संजय द्वारा धृष्टराष्ट्र सुनाते हुए बताया गया है कि अर्जुन की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए वसुदेव के पुत्र वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने विराटरूप को छिपा लिया और फिर वे अर्जुन के सम्मुख अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए जो स्वर्ण मुकुट, गदा, चक्र और कमल के पुष्प से विभूषित था जोकि समस्त दिव्य ऐश्वर्यों, गौरव, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता का पुंज था। श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप उसी प्रकार से भय और श्रद्धा को उत्पन्न करता है जैसा कि किसी राज्य के नागरिकों का उनके राजा के प्रति होता है किन्तु अर्जुन श्रीकृष्ण का सखा था इसलिए श्रद्धा और भय के भाव से युक्त भक्ति उसे कभी संतुष्ट नहीं कर सकती थी। वह श्रीकृष्ण के साथ खेला, उनके साथ अन्न ग्रहण किया, अपने व्यक्तिगत रहस्यों को परस्पर बांटा। इस प्रकार की सखा भाव की आनन्दमयी भक्ति (ऐसी भक्ति जो भगवान के मित्र के रूप में दिखाई दे) ऐश्वर्य भक्ति से अत्यंत मधुर होती है। इसलिए अर्जुन की सखा भक्ति की भावना को पुष्ट करने के लिए श्रीकृष्ण ने अंततः अपना चतुर्भुजी रूप भी छिपा लिया और अपने मूल दो भुजाओं वाले मनोहारी रूप में परिवर्तित हो गए। एक बार वृंदावन में श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रासलीला कर रहे थे और जब वे अचानक उनके बीच में से ओझल हो गये तब गोपियाँ उनसे पुनः प्रकट होने की विनती करने लगी। उनके अनुनय-विनय को सुन श्रीकृष्ण वहाँ पुनः चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। गोपियों ने उन्हें विष्णु भगवान समझा और उनका श्रद्धापूर्वक सत्कार किया किन्तु गोपियाँ उनके उस रूप पर मोहित न होकर उनके साथ और समय व्यतीत करना न चाहकर वहाँ से चली जाती है। उनका श्रीकृष्ण के भगवान विष्णु वाले रूप के प्रति कोई आकर्षण नहीं था क्योंकि उनकी आत्मा भगवान श्रीकृष्ण को प्राण-प्रियतम के रूप में देखने की आदी थी। बाद में फिर जब राधा-रानी वहाँ प्रकट होती हैं तो उन्हें देखकर उनके प्रेम में विह्वल होकर श्रीकृष्ण के चतुर्भुजी रूप की दो भुजाएँ स्वतः लुप्त हो गयी और उन्होंने पुनः अपना दो भुजाओं वाला रूप धारण कर लिया।
गीता में विराट स्वरूप दर्शन का वर्णन संजय द्वारा ही श्लोक 9 ने शुरू किया गया और अंत भी संजय द्वारा ही इस श्लोक में किया जा रहा है। व्यास जी इस के द्वारा उन लोगो को संदेश देने के प्रयत्न कर रहे है जो बिना किसी भाव के सत्य को स्वीकार करते है। यह विराट स्वरूप का दर्शन/वर्णन करने वाले में धृतराष्ट्र है, जो पुत्र मोह में और अर्जुन है जो मोह से मुक्त होने का प्रयास कर रहे है किंतु फिर भी विराट स्वरूप में सत्य को देख कर घबरा गए। यदि इस स्वरूप को बिना किसी घबराहट या भाव से यथास्वरूप किसी ने देखा है तो वह संजय ही है।
संजय धृष्टराष्ट्र को वसुदेव पुत्र श्री कृष्ण कहते है जिस से यह पुत्र मोह में अंधा व्यक्ति पुनः समझ ले कि अर्जुन जिसे विराट विश्वरूप में देख रहा था वो इस समय कौन है। वो यह जान ले कि साक्षात भगवान अर्जुन के सारथी के रूप में श्री कृष्ण ही है।
समझने और समझाने में यदि दोनों का मन- बुद्धि एवम विवेक एक समान न हो तो वार्तालाप असफल ही होता है। संजय कुरुक्षेत्र की घटना ही नही सुना रहा वरन धृष्टराष्ट्र को चेतावनी भी दे रहा है कि यदि युद्ध न रोका गया तो कुरुवंश का अंत निश्चित है। किंतु धृष्टराष्ट्र इसे मात्र एक घटना समझ कर अपनी विजय को देखना चाहता है, वो सत्य को समझ नही पा रहा। लालसा अक्सर उन अनहोनी की चाह पर सत्य को नकारना शुरू कर देती है, जिसे लोभ में अंधा व्यक्ति भी जानता है कि वो संभव नही। वो एक प्रतिशत की संभावना के पीछे 99 प्रतिशत की सत्यता को स्वीकार नही करता।
विचारणीय प्रश्न यह भी है कि विराट विश्वरूप के दर्शन अर्जुन ने भी किये किन्तु वह इस सब के लिए तैयार नही था। उसे भविष्य जानने की उत्सुकता अवश्य थी किन्तु इतना भयानक सत्य के लिये उस की मानसिक अवस्था नहीं थी। इसलिये वह भयग्रस्त हो कर पुनः सौम्य स्वरूप के दर्शन की प्रार्थना करने लगा। जब तक जीव में अहंकार, मोह और राग – द्वेष रहता है, ज्ञान का वास्तविक स्वरूप वह स्वीकार नहीं कर सकता। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मोक्ष के लिए कौन प्रयत्न करता है? यदि यह संसार को भूल कर किसी को मोक्ष का अनुभव भी करा दे, तो आत्मशुद्धि के बिना, वह भयभीत हो होगा। विराट विश्वरूप दर्शन ने उस के मोह, अहम एवम ज्ञान की हर सीमा को तोड़ दिया। किन्तु यह वर्णन जब धृष्टराष्ट्र राष्ट्र ने सुना तो भी अपने पूर्वाग्रह मोह से मुक्त नही हो सका। क्या काल ही हर प्रेरणा का कारक है कि हमारी सोच एवम क्रिया हमारी नही, सब का नियंत्रण त्रियामी गुणों से प्रकृति ही माया द्वारा करती है। मृत्यु लोक में सब अपनी आयु को पूर्ण करते है फिर काल के निमित्त हो कर अपने अपने कर्मो के अनुसार भोग को प्राप्त होते हैं। क्या मनुष्य के कर्म भी काल से प्रेरित होते है?
आज के संदर्भ में जब TV पर बहस होती है तो वो विवेकशून्य होती है, क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे को समझते हुए भी अपने अपने पक्ष में उजुल फिजूल तर्कों के साथ एवम असंगत घटनाओं के साथ बहस करते है। क्योंकि उन का बहस से पहले ही यह तय है कि उन्हें दूसरे पक्ष की बात को स्वीकार नही करनी है। एंकर के रूप में हम सभी संजय है और सभी ओर धृष्टराष्ट्र बैठ कर बहस करते है। सभी ने अपने अपने धर्म एवम सत्य को प्रतिपादित कर लिया है, किन्तु जो सनातन धर्म एवम सत्य है, वो देख रहा है वो जानता है कि सत्य क्या है किंतु काल की भांति मौन है। अपनी संस्कृति, सभ्यता एवम आस्था के सत्य पर पूर्ण आस्था रखने वाला कोई एक चाणक्य के समान होता है वो पूरी व्यवस्था में परिवर्तन करने की क्षमता रखता है और अन्य धृष्टराष्ट्र एवम संजय की भांति धर्म एवम सत्य की सुनने एवम सुनाने वाले होते है।
यह भी ज्वलंत प्रश्न है कि कुरुक्षेत्र में युद्ध अपने अपने धर्मो के महारथियों का था या सनातन सत्य का? क्या भीष्म, द्रोण, कृपा, शकुनि, कर्ण, पांडव – युधिष्टर, अर्जुन, भीम, धृष्टराष्ट्र, दुर्योधन एवम अन्य सभी ने अपने अपने स्थापित सत्य के अनुसार अपने अपने धर्म के युद्ध को नही लड़ा?
श्री कृष्ण को मानव और सारथी रूप में पुनः देखने के बाद अर्जुन क्या कहते है, हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.50।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)