।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.48 II
।। अध्याय 11.48 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.48॥
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥
“na veda- yajñādhyayanair na dānair,
na ca kriyābhir na tapobhir ugraiḥ..।
evaḿ-rūpaḥ śakya ahaḿ nṛ-loke,
draṣṭuḿ tvad anyena kuru-pravīra”..।।
भावार्थ:
हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४८)
Meaning:
Not through Vedic studies, rituals, charity, actions nor severe penance can I be seen in this form in the human world by anyone than yourself, O foremost of the Kurus.
Explanation:
Shree Krishna declares that no amount of self- effort— the study of the Vedic texts, performance of ritualistic ceremonies, undertaking of severe austerities, abstinence from food, or generous acts of charity— is sufficient to bestow a vision of the cosmic form of God. This is only possible by his divine grace. This has been repeatedly stated in the Vedas as well:
tasya no hrāsva tasya no dhehi (Yajur Veda)[v24]
“Without being anointed in the nectar of the grace of the Supreme Lord, nobody can see him.”
Shri Krishna taught the Gita to Arjuna during a time when most people confused the means with the end with regards to all things spiritual. We see this during our lifetime in the present day. To understand this, let us look at our pre- sleep rituals. We make the bed, we turn off the light, we lie down and close our eyes. Some of us read a book or listen to music afterwards. We know, however, that these are mere aids to encouraging sleep. If our body isn’t ready to sleep, none of these aids will work.
Similarly, Shri Krishna says that moksha or liberation cannot be attained simply by studying the scriptures, or by performing elaborate rituals, charity or severe penance. All these prescriptions are helpful in purifying our mind, in purging it of selfishness and individuality. When our mind is immaculate through the disciplined observance of these prescriptions, it becomes fit to receive knowledge about the eternal essence through a qualified teacher. That is the only way by which we will realize the true nature of Ishvara and the eternal essence.
In most cases, we see people ardently take up different techniques of worship, penance, study and so on, but tend to get so attached to those techniques that they lose sight of the real goal which is liberation. They go so far as to claim the efficacy of one technique versus the other. Also, the eternal essence is our true nature and beyond the realm of action, as we saw in the second chapter. Nothing eternal can arise from action, as action always creates impermanent effects. Nothing that we create, or that nature has created, is eternal. Even the earth that outlives all of us will one day be destroyed. Therefore, Shri Krishna congratulates Arjuna by reminding him that it was only due to compassion that Arjuna could behold the universal form.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि मनुष्य के स्वयं के प्रयत्नों द्वारा वैदिक ग्रंथो का अध्ययन करने, धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करने, घोर तपस्या करने, अन्न एवं जल का त्याग करने और उदारता से दान करने आदि जैसे भक्त के स्वयं के प्रयास उनके विराटरूप का दर्शन करने हेतु उनकी दिव्य दृष्टि प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार से पर्याप्त नहीं है। यह केवल और केवल उनकी दिव्य कृपा एवं उनकी उदारता से ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार वेदों में इसे बार-बार दोहराया गया है।
तस्य ना रासव तस्य नो देहि (यजुर्वेद)
“परम प्रभु की कृपा के अमृत में निमज्जित हुए बिना कोई उसे नहीं देख सकता”।
मनुष्य का लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना है, जिस के लिए प्रवृति- निवृति दो ही मार्ग है, उन दोनों मार्ग के लिये ज्ञान योग, सांख्य योग, निष्काम कर्म योग, ध्यान योग और भक्ति मार्ग बताया गया है। परमात्मा द्वारा अपने भक्त अर्जुन पर विशिष्ट कृपा करते हुए विराट विश्वरूप का एक अंश मात्र ही प्रकट किया किन्तु अर्जुन की विश्वरूप दर्शन में जो देखने की अपेक्षा थी, यह उस के विपरीत इतना विशाल, अनन्त,आदि स्वरूप काल से परे था कि अर्जुन उस स्वरूप को देख कर विचलित हो गया और उस ने परमात्मा से पुनः चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट होने की प्रार्थना करने लगा। अतः भगवान को आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा।
मैंने प्रेम से अभिभूत हो अपने जिस विराट विश्वरूप का दर्शन तुम्हे दिखाया है, उस का एक अंश देख कर तुम भयभीत हो रहे हो, वह स्वरूप इस मृत्युलोक अर्थात मनुष्य लोक में वेदों के अध्ययन, तप, दान या किसी भी प्रकार यज्ञ आदि से देख पाना संभव नही है। इस को आज तक ब्रह्मा तक ने भी नही देखा, उस स्वरूप को देखने वाले तुम प्रथम व्यक्ति हो। तुम्हे भयभीत नही होना चाहिये।
श्री कृष्ण कहते है मुझे प्राप्ति के विभिन्न मार्ग है जिन्हें हम वेद, यज्ञ, स्वाध्याय, दान, भक्ति, निष्काम कर्म एवम उग्र तप के नामो से जानते है। इन को पूर्ण करने वाला विभिन्न लोको में अपने कर्मो के फल को भोग कर मुझे प्राप्त करता है। यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक के मृत्यु लोक ही एक मात्र लोक है जहां जीव को विभिन्न क्रियाओं को करने का अधिकार है। अन्य स्थान वह अपने कर्मो के अनुसार विभिन्न लोको के दर्शन एवम भोग को प्राप्त करता है। किन्तु मेरे विश्व रूप के दर्शन का अधिकार किसी को प्राप्त नही। मेरे विश्वरूप को मेरी कृपा से कोई देख सकता है। मेरे दर्शन दिव्य नेत्रों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार हो ही नही सकते।
अर्जुन द्वारा विराट विश्वरूप देखने से भय उत्पन्न होने की बात स्वयं ईश्वर के लिये ग्राह्य नहीं थी, अतः अर्जुन के अंदर भय के कारण का निदान करना आवश्यक था। जिस प्रेमवश अर्जुन की अपना विराट विश्वरूप का दर्शन की प्रार्थना को परमात्मा ने स्वीकार की थी उस दर्शन को स्पष्ट करना भी आवश्यक था।
हे कुरुप्रवीर ! मेरे द्वारा प्राप्त दिव्य नेत्रों से विराट विश्वरूप का दर्शन करने वाले तो तुम ही एक मात्र व्यक्ति हो।
क्योंकि कुरु वंश में एक मात्र अर्जुन ने ही विराट विश्वरूप के दर्शन किये इसलिये उस को कुरु प्रवीर कह कुरु श्रेष्ठ बताया गया।
भगवान् द्वारा यहाँ कहे गये वचनों का विपरीत अर्थ कर के कोई यह नहीं समझे कि उन्होंने वेदाध्ययनादि की निन्दा की है अथवा ये समस्त साधन अनुपयोगी होने के कारण त्याज्य हैं। तात्पर्य यह है कि अध्ययन, यज्ञ, दान और तप ये सब अन्तकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता प्राप्ति के साधन हैं, जो अनेकता में एकता के दर्शन करने के लिए अत्यावश्यक है। परन्तु कोई यह भी नहीं समझे कि यज्ञ दानादि साधन अपने आप में ही पूर्ण हैं या वे ही साध्य हैं। केवल वेदाध्ययन आदि से ही एकत्व का बोध और साक्षात् अनुभव नहीं हो सकता। जब साधन सम्पन्न मन वृत्तिशून्य हो जाता है केवल तभी उसकी उस अन्तर्मुखी स्थिति में यह दर्शन सम्भव होता है।
गीता में कृष्ण द्वारा उन लोगो से सावधान रहने का भी संदेश दिया गया है जो अपने जप, तप एवम स्वाध्याय के बल पर विश्व रूप के दर्शन का दावा करते है। विश्वरूप के दर्शन परमात्मा की अनुकंपा से प्राप्त होते है, जब की वेद, यज्ञ, दान, क्रियाओं एवम उग्रतप से चरित्र निर्माण एवम व्यक्तित्व का विकास होता है। वे निर्विशेषवादी अल्पज्ञ ही होते है, इसलिए परमात्मा के दर्शन नही कर पाते।
अर्जुन कृष्ण के अनन्य भक्त थे, इसलिये कृष्ण को भी अर्जुन से अनुराग था। जब भक्ति निश्छल एवम अनुराग पूर्ण हो तो ही विश्वरूप दर्शन की कृपा हो सकती है।
भक्तिमार्ग में जो परमात्मा की अनुकृपा से जो प्राप्त हो सकता है, वह किसी भी मार्ग से प्राप्य नही है। इसलिये तुलसीदास जी ने भी कहा है
“वारि मथें घृत होई बरु, सिकता ते बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिंद्धान्त अपेल” ।। (रा. मा. 7/122 क) (वार=जल, सिकता=बालू)
हमे यह भी बताया गया कि विश्वरूप का दर्शन अर्जुन के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति संजय ने भी देखा। महाभारत में इस परिपेक्ष्य में उल्लेख मिलते हैं कि संजय के भगवतस्वरूप गुरु वेदव्यास की कृपा से संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी ताकि वह युद्ध में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण धृतराष्ट्र को सुनाने में सक्षम हो सके। इसलिए उसने भी अर्जुन के समान भगवान का विराट रूप देखा किन्तु बाद में जब दुर्योधन का वध हुआ तब शोक संतृप्त संजय की दिव्य दृष्टि भी लुप्त हो गयी थी।
अर्जुन का भय दूर करने के लिये भगवान् आगे के श्लोक में उन को देवरूप देखने की आज्ञा देते हुए क्या कहते है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 11.48।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)