।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.46 II
।। अध्याय 11.46 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.46॥
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥
“kirīṭinaḿ gadinaḿ cakra- hastam
icchāmi,
tvāḿ draṣṭum ahaḿ tathaiva..।
tenaiva rūpeṇa catur- bhujena,
sahasra-bāho bhava viśva-mūrte”..।।
भावार्थ:
हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं आपके मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, कृपा करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों। (४६)
Meaning:
Wearing a crown, holding a mace, disc in hand, in that four-armed form do I wish to see you. O one with infinite arms, be that very form, O universal form.
Explanation:
So, Arjuna concludes his prayer. That is the third stage of appreciation, No.1 Ascharyam; No.2 bhayam; No.3 bhakthi. The third stage of bhakthi expression is being concluded here; with Arjuna’s request to the Lord to get back to his own ēkarūpa.
Arjun is not attracted by the infinite opulence’s and is not interested in doing aiśhwarya bhakti of God Almighty. Rather, he prefers seeing that Almighty Lord in the human form, so that he can relate to him as before, like a friend. Addressing Lord Krishna as sahasra- bāho, meaning “thousand- armed one,” Arjuna is now specifically requesting to see the chatur- bhuj rūp, or four- armed form of Lord Krishna.
In the four- armed form, Shree Krishna appeared before Arjun on another occasion as well. When Arjun tied Ashwatthama, the killer of the five sons of Draupadi and brought him before her, at that time Shree Krishna revealed himself in his four- armed form.
niśhamya bhīma- gaditaṁ draupadyāśh cha chatur- bhujaḥ; ālokya vadanaṁ sakhyur idam āha hasanniva (Śhrīmad Bhāgavatam 1.7.52)[v23]
“The four- armed Shree Krishna heard the statements of Bheem, Draupadi, and others. Then he looked toward his dear friend Arjun and began smiling.” By requesting Shree Krishna to manifest in his four- armed form, Arjun is also confirming that the four- armed form of the Lord is non- different from his two- armed form.
We need to dig deeper into the symbolic aspect of the number four to understand this request properly. The number four has a deep significance in the scriptures, since it represents the four Vedas, the four Varnas or classes, the four aashramas or stages, and the four purushaarthaas or aims of life. As an example, let us explore the four aashramas.
A person is supposed to pass through four aashramas or stages during their life. They begin life under the instruction of a guru or teacher, with the sole aim of seeking knowledge. This stage is called brahmacharya. After graduating from their school, they then lead the life of a householder in the grihastha stage. When that is fulfilled, they enter into a stage where they begin to gradually renounce all material attachments. This is known as vaanaprastha. After complete renunciation, a person’s life culminates in the sanyaasa stage where their sole aim is spiritual pursuits.
In this manner, we can uncover the significance behind several aspects of the number four. But what Arjuna really meant to convey to Shri Krishna was a request to assume the form that his admirers and devotees loved the most, the form that was the object of their meditation. This was Shri Krishna’s form as Lord Naaraayana, which was the embodiment of peace and serenity, and a polar opposite of his rudra or terrible form that Arjuna wanted to go away.
।। हिंदी समीक्षा ।।
इस प्रकार अर्जुन अपनी प्रार्थना समाप्त करता है। यह प्रशंसा का तीसरा और अंतिम चरण है। क्रमांक १ आश्चर्यं; क्रमांक २ भयं; क्रमांक ३ भक्तिः। अर्जुन द्वारा भगवान से अपने एकरूप में वापस जाने का अनुरोध करने के साथ भक्ति अभिव्यक्ति का तीसरा चरण यहाँ समाप्त हो रहा है।
अर्जुन को यह अनुभव होता है कि श्रीकृष्ण उसके केवल मित्र ही नहीं है अपितु उससे बढ़कर उनका अनुपम व्यक्तित्त्व हैं। उनका दिव्य स्वरूप अनगिनत ब्रह्माण्डों को अपने में समेटे हुए है फिर भी वह उनके अनन्त ऐश्वर्यों के प्रति आकर्षित नहीं होता। सर्वशक्तिमान भगवान की ऐश्वर्य भक्ति का अनुसरण करने में उसकी कोई रुचि नहीं है अपितु इसके विपरीत वह सर्वशक्तिमान भगवान का पुरुषोतम रूप देखना पसन्द करते है ताकि वह उनके साथ पहले जैसे मित्रवत् संबंध बनाए रख सके। भगवान श्रीकृष्ण को ‘सहस्रबाहु’ संबोधन से पुकारने का तात्पर्य ‘हजारों भुजाओं वाले’ से है। अर्जुन अब भगवान श्रीकृष्ण से अपना ‘चतुर्भुज रूप’ अर्थात चार भुजाओं वाला रूप दिखाने की प्रार्थना कर रहा है।
अर्जुन जानते है कि परमात्मा के असंख्य रूप है, जिन में राम, नृसिंह एवम नारायण मुख्य है। ( ब्रह्मसंहिता) कृष्ण आदि नारायण है जो विराट विश्वरूप में उस के सम्मुख प्रकट हुए। इसलिये वह परमात्मा को अपने विराट अनन्त हाथों एवम अनन्त मुखों को समेट कर नित्य चतुर्भुज रूप में दर्शन देने की प्रार्थना करता है।
जिस के शरीर की कांति नीलकमल के लिये भी आदर्श है, जो आकाश के रंग की भी शोभा ने वृद्धि करती है। जिस के मस्तक पर मुकुट शोभा को प्राप्त कर रहा हो। जिस प्रकार गगन में इंद्रधनुष पर मेघ दृष्टिगोचर होते है वैसे ही वैजंतीमाला माला धारण कर रखी है। जिस के हाथों में असुरों का नाश करने वाली गदा है, अप्रितम सौम्य तेज से चमकता चक्र है, शंख एवम कमल है, मै वह रूप में आप को देखना चाहता हूँ।
अर्जुन ने परमात्मा के कान्तियुक्त चतुर्भुज स्वरूप में देखने की प्रार्थना की है। इन चतुर्भुज में उस ने गदा, शंख, चक्र एवम पद्म (अष्टदल का लाल कमल) आयुध लिये एवम मस्तक में मुकुट धारण किये स्वरूप को कहा है। यहाँ आयुध में शंख एवम कमल को भी बादरायण ने शामिल किया है। क्योंकि कृष्ण का पांचजन्य शंख की ध्वनि से ही शत्रु पक्ष का मनोबल गिर जाता है और जब तीन हाथ मे आयुध हो तो कमल सहज ही पूर्ण स्वरूप में आयुध धारण किये स्वरूप में शामिल हो जाता है।
यहाँ अर्जुन अपनी इच्छा को स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित करता है कि मैं आप को पूर्ववत् देखना चाहता हूँ। वह भगवान् के विराट् रूप को देखकर भयभीत हो गया है, जो उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपने एकत्व को दर्शाने के लिए धारण किया था। वेदान्त द्वारा प्रतिपादित निर्गुण, निराकार तत्त्व या समष्टि के सिद्धांत का जब प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है, तो विरले लोगों में ही वह बौद्धिक धारणा शक्ति होती है कि वे उस सत्य को उसकी पूर्णता में समझकर उसका ध्यान कर सकते हैं। यदि कभी बुद्धि उसे धारण कर भी पाती है, तो प्राय भक्त का हृदय उसके साथ अधिक काल तक तादात्म्य नहीं बनाये रख पाता है। मन के स्तर पर सत्य को केवल रूपकों के द्वारा ही समझकर उसका आनन्द अनुभव किया जा सकता है, सीधे ही उसके पूर्ण वैभव के द्वारा कभी नहीं।
भगवान् की ये चार भुजाएं अन्तकरण चतुष्टय अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। पुराणों में ही चतुर्भुजधारी भगवान् का वर्ण नील कहा गया है तथा वे पीताम्बरधारी हैं अर्थात् वे पीत वस्त्र धरण किये हुए हैं। नीलवर्ण से अभिप्राय उनकी अनन्तता से है असीम वस्तु सदा नीलवर्ण प्रतीत होती है, जैसे ग्रीष्म ऋतु का निरभ्र आकाश अथवा गहरा सागर। पृथ्वी का वर्ण है पीत। इस प्रकार भगवान् विष्णु के रूप का अर्थ यह हुआ कि अनन्त परमात्मा परिच्छिन्नता को धारण कर अन्तकरण चतुष्टय के द्वारा जीवन का खेल खेलता है। भगवान् विष्णु शंख चक्र गदा पद्मधारी हैं। शंखनाद के द्वारा भगवान् सब को अपने समीप आने का आह्वान करते हैं। यदि मनुष्य अपने हृदय के श्रेष्ठ भावनारूपी शंखनाद को अनसुना कर देता है, तो दुख के रूप में उस पर गदा का आघात होता है। इतने पर भी यदि मनुष्य अपने में सुधार नहीं लाता है, तो अन्तिम परिणाम है चक्र के द्वारा शिरच्छेद अर्थात् परमपुरुषार्थ की अप्राप्ति रूप नाश। इसके विपरीत, यदि कोई मनुष्य दिव्य जीवन का आह्वान सुनकर उसका पूर्ण अनुकरण करता है, तो उसे पद्म अर्थात् कमल की प्राप्ति होती है। हिन्दू धर्म में कमल पुष्प आध्यात्मिक पूर्णता एव शान्ति का प्रतीत है।
एक अन्य अवसर पर श्रीकृष्ण अपने इस चतुर्भुज नारायण रूप में अर्जुन के सम्मुख प्रकट हुए थे। द्रोपदी के पांच पुत्रों के हत्यारे अश्वत्थामा को जब अर्जुन बांधकर उसे द्रोपदी के पास ले आया तब उस समय श्रीकृष्ण अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे।
निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः। आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव।।(श्रीमद्भागवतम्-1.7.52)
“चतुर्भुजधारी श्रीकृष्ण ने जब भीम, द्रोपदी और अन्य के कथनों को सुना तब वह अपने प्रिय मित्र अर्जुन की ओर देखकर मुस्कराने लगे।” भगवान से चतुर्भुज रूप में प्रकट होने की प्रार्थना कर अर्जुन यह भी पुष्टि कर रहा है कि भगवान का चतुर्भुज रूप उनके दो भुजाधारी रूप से भिन्न नहीं है।
अर्जुन चाहता है कि भगवान् अपने सौम्यरूप और शान्तभाव में प्रकट हों। पूर्वश्लोक में तदेव तथा यहाँ तथैव और तेनैव – तीनों शब्दो का प्रयोग करके कहना चाहता है कि मैं आपका केवल विष्णुरूप ही देखना चाहता हूँ विष्णुरूप के साथ विश्वरूप नहीं। अर्जुन के द्वारा सिर्फ पूर्ववत स्वरूप में आने को न कह कर चतुर्भुज स्वरूप आयुध के साथ दर्शन देने का कहने का कारण यह भी है कि परमात्मा अर्जुन के सारथी स्वरूप में उस के साथ है और किसी आयुध को धारण नही करने की प्रतिज्ञा से बंधे भी है। अतः यदि सिर्फ पूर्वरत स्वरूप में आने को कहते तो भगवान सारथी स्वरूप में दो भुजा ले कर प्रकट हो जाते, इसलिये अर्जुन कहते है कि आप केवल चतुर्भुजरूप से प्रकट हो जाइये। इस विश्वरूप का उपसंहार कर के आप वसुदेवपुत्र – श्रीकृष्ण के स्वरूप से स्थित होइये।
चतुर्भुजा में कई अर्थ निहित है जिस में चार वेद, चार आश्रम, चार पुरुषार्थ, चार पहर आदि प्रमुख है।
इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना आश्चर्य, भय, परमात्मा के ऐष्वर्य एवम सार्वभौमिक सत्ता को स्वीकृति, समर्पण, आत्मग्लानि, पश्चाताप, क्षमायाचना, शरणागत हो कर भक्तिपूर्ण आग्रह के साथ पूर्ण होती है। श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ समर्पण की यह प्रार्थना अपने आप मे सम्पूर्ण है, इसलिये इसे रक्षोघ्न मंत्र भी कहा गया है जिस के पढ़ने से किसी भी किस्म की बाधाएं, भूत-प्रेत सम्बन्धी भय नष्ट हो जाते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.46।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)