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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.44 II

।। अध्याय      11.44 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.44

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌ ।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्  ॥

“tasmāt praṇamya praṇidhāya kāyaḿ,

prasādaye tvām aham īśam īḍyam..।

piteva putrasya sakheva sakhyuḥ,

priyaḥ priyāyārhasi deva soḍhum”..।।

भावार्थ: 

अत: मैं समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में गिर कर साष्टाँग प्रणाम करके आप की कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन कर लेता हैं उसी प्रकार आप मेरे अपराधों को सहन करने की कृपा करें। (४४)

Meaning:

Therefore, prostrating my body, bowing down, I beg you to be pleased, O Ishvara, worthy of worship. Like a father tolerates his son, a friend his friend, a lover his beloved, so should you tolerate (me), O Lord.

Explanation:

This shloka evokes an illustration fro fcm The Mundaka Upanishad of two birds sitting on the branch of a tree. The two birds are friends. One bird, symbolizing the human condition, is completely engrossed in enjoying the fruit of the tree. This bird doesn’t realize that it has developed an attachment to the fruit, and that the fruit will eventually become the cause of its sorrow. Similarly, we do not realize that the more we get stuck in objects, the more the objects get stuck to us. The Gita has repeatedly pointed out this theme.

Now, the second bird on that branch symbolizes the Ishvara principle. It does not get attached to the fruit, it simply watches the show as a passive onlooker. The first bird is so engrossed in its sense enjoyments that it never pays attention to the second bird. Like Arjuna, and like all of us, the first bird is stuck in the delusion of the material world. The moment the first bird stops its indulgence and looks at the second bird, its bondage is snapped. Without the help of this Ishvara principle, we cannot extricate ourselves from the pull of the senses. For most of us, this Ishvara principle is our teacher, our guru.

No government officer has the privilege to joke with the President of a country. Yet, the President’s personal friend, teases him, jests with him, and even scolds him. The President does not mind, rather he values that jest of an intimate friend more than all the respect he receives from his subordinate officers. Thousands of people salute an army general, but they are not as dear to his heart as his wife, who sits intimately by his side. Similarly, Arjun’s intimate dealings with Shree Krishna were not transgressions; they were gestures of the depth of his loving devotion in the sentiment of being a friend. Yet, a devotee is by nature humble, and so, out of humility, he feels that he may have committed transgressions, and hence he is asking for forgiveness.

So, through this shloka, we are instructed to completely surrender ourselves in prostration to that Ishvara principle. When Arjuna undertook a “saashtaanga namaskaara”, a total surrender of his body through prostration, he referred to SHri Krishna as his friend, recalling the illustration of the two birds who were friends. Arjuna asked for a father’s forgiveness, a friend’s forgiveness, and the beloved’s forgiveness – three categories of forgiveness since he wanted all of these from Shri Krishna.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जब मन मे अप्रत्यक्ष अपराध बोध हो एवम अनजाने में की गई गलतियों का अहसास हो। तो उस व्यक्ति से क्षमा मांगना वास्तव में अन्तःकरण की शुद्धता है। अर्जुन का अन्तः करण मोह, भय, अहम एवम ज्ञान से मुक्त हो चुका है, उसे ज्ञान हो गया कि जिस के समक्ष वो अपने निश्चय को रख कर बहस कर रहा है, उस मे उस का ही क्षुद्रपन है। वह इतना विशाल है कि उस की स्तुति करना जब ब्रह्मा जी वश में नही तो वह उसे कैसे करे।

किसी शासकीय अधिकारी को यह अधिकार नहीं होता कि वह देश के राष्ट्रपति का उपहास उड़ाए। किन्तु राष्ट्रपति का निजी मित्र उसे तंग करे, उसका उपहास उड़ाये यहाँ तक कि उसे फटकार भी दे तब भी राष्ट्रपति इस पर कोई आपत्ति नहीं करता अपितु इसके विपरीत वह अपने अंतरंग मित्र के उपहास को अपने अधीनस्थ अधिकारियों से मिलने वाले सम्मान से अधिक महत्त्व देता है। हजारों लोग सेना नायक को सल्युट देते हैं। समान रूप से अर्जुन के श्रीकृष्ण के साथ घनिष्ठ संबंध अपराध नहीं थे अपितु वे अतरंग मित्रतावश गहन प्रेम भक्ति से युक्त हाव भाव थे फिर भी वह विनम्र भाव से निष्ठावान भक्त होने के कारण विनम्रतापूर्वक अनुभव करता है कि उससे अपराध हुआ है।

अर्जुन कहते है, आप अनन्त ब्रह्माण्डों के ईश्वर हैं। इसलिये सब के द्वारा स्तुति करनेयोग्य आप ही हैं। आप के गुण, प्रभाव, महत्त्व आदि अनन्त हैं अतः ऋषि, महर्षि, देवता, महापुरुष आप की नित्य निरन्तर स्तुति करते रहें, तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करने योग्य आप की मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ मेरे में आप की स्तुति करने का बल नहीं है, सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणोंमें लम्बा पड़कर दण्डवत् प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसीसे आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ।

जब हम अंतर्मन से किसी गलती का प्रायश्चित करते है तो प्रणाम का शार्टकट नहीं होता।जैसे बस हथेलियाँ जोड़कर, और उस से भी छोटे तरीके से सिर्फ एक हाथ से नमस्कार करना। इसलिए यह शार्टकट नमस्कार नहीं है, आप आश्चर्य करेंगे हैं कि यह ईसाई है या हिंदू; सबके लिए वे ऐसा करते हैं, इसलिए हम भी ऐसा करते हैं। इसलिए कायम का अर्थ है शरीरम्; प्रणिदाय; साष्टांग प्रणाम; नीचे गिरना, दंडवत प्रणामः; साष्टांग प्रणामः। ‘इद्यः’ का अर्थ है पूजनीय; एकमात्र जो नमस्कार का पात्र है; भगवान के अलावा कोई भी नमस्कार का पात्र नहीं है; किसी का भी कोई भी सम्मान, अंततः भगवान से ही मिलता है।  इसलिए आप को साष्टांग प्रणामः करता हूं।

आज के युग में बच्चे बड़ों के चरण स्पर्श में पूरा झुक कर भी चरण स्पर्श नहीं करते। या फिर एक हाथ से चरण की ओर इशारा जैसा प्रणाम करते है। यह उन के उस आदर को दर्शाता है जिस में अहम भी है, इसी कारण जब उन के स्वार्थ, अहम और सुविधा की बात हो तो वे बड़ों का अपमान करने से भी नही चूकते।

आप से अनुग्रह करता हूँ। जैसे पुत्र का समस्त अपराध पिता क्षमा करता है तथा जैसे मित्र का अपराध मित्र अथवा प्रिया का अपराध प्रिय ( पति ) क्षमा करता है – सहन करता है, वैसे ही हे देव आपको भी ( मेरे समस्त अपराधों को सर्वथा ) सहन करना अर्थात् क्षमा करना उचित है। मनुष्य का मष्तिक तीन अवस्थाओं में क्रिया शील है, जिसे जाग्रत, सुप्त एवम अर्धचेतन अवस्था भी कहते है। अर्जुन अपनी क्षमा याचना इन तीनो अवस्थाओं में किये अनजान व्यवहारों की मांग रहे है, जो उस समय के अनुसार थे भी नही। किन्तु काल स्वरूप विराट रूप देखने के बाद उस का भय एवम श्रद्धा उसे मजबूर कर रहा था कि वो क्षमा याचना करे।

उपरोक्त तीनो उदाहरण अनजाने में बिना द्वेष के हुए अपराधों का प्रतीक है, जिन्हें हम अक्सर जीवन मे करते है। हर व्यक्ति परमात्मा का ही स्वरूप है, इसलिये जाने – अनजाने में भी गलत शब्दो का प्रयोग नही करना चाहिए, क्योंकि शब्द, आचार तभी तक आप के है, जब तक आप व्यक्त नहीं करते। इन्हें अन्य व्यक्ति अपनी सोच एवम आचरण से ग्रहण करता है। द्रोपदी का एक उपहास ” अंधे का पुत्र अंधा” पूरे महाभारत का कारण बन गया। जब कि वह उपहास ही था। द्रोपदी यदि क्षमा याचना कर लेती तो शायद कथा कुछ और होती।

(वैसे द्रोपति जैसे विदुषी द्वारा यह कथन और प्रसंग के विषय में यह भी कहा गया है कि यह सत्य नहीं है। इसलिए गीता प्रेस की महाभारत में इस प्रसंग को स्थान नही दिया गया। हमारे ग्रंथ वामपंथी, मुगल और अंग्रेजो द्वारा अपभ्रंश किए गए और हम लोग भी दास की मानता में इन कथाओं पर विश्वास भी करते है।)

भगवान ने सांतवे अध्याय में कहा था कि “मैं ज्ञानी भक्त का अत्यंत प्रिय होता हूँ और वह ज्ञानी भक्त भी मुझे प्रिय होता है” अतः कुछ विद्वानों का मत है कि तीन उदाहरण में आपसी सम्बन्ध पिता-पुत्र, सखा एवम गुरु-शिष्य या भक्त और भगवान का प्रिय-प्रियायार्हसि का है, जब कि कुछ प्रिय-प्रियतम से लेते है। हम इस बहस में नही जाते है, किन्तु भगवान एवम गुरु भी अपने प्रिय शिष्य के समस्त अपराध को क्षमा कर देते है। भगवान ने अर्जुन को अपना प्रिय भक्त माना है और अठाहरवे अध्याय में भगवान कहते भी है, जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है।

बचपन मे एक प्रार्थना करते थे, वो याद आ गई, उसे ही दोहरा लेते है। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

इसलिये अर्जुन नतमस्तक हो कृष्ण के चरणों मे गिर कर अपने अपराधों की क्षमा मांग रहा है, क्योंकि उस ने जो देखा वो अभूतपूर्व था। अर्जुन द्वारा परमात्मा के विराट स्वरूप को देखने के बाद, उस का मन उन के प्रति मित्र, सखा, और बन्धु जैसे अनौपचारिक व्यवहार से अपराध ग्रस्त हो गया था। क्षमा मांगना ही अपने आप मे एक प्रक्रिया है जिस से जीव अपनी अपराध ग्रस्त मानसिकता से बाहर आ सके। इसलिये क्षमा याचना के साथ साष्टांग हो कर वह अपनी भावनाओ को अति सुंदर ढंग से व्यक्त कर रहा है।

इसलिये वो अब वे आगे क्या कहते है, हम पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.44।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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