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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.35II

।। अध्याय      11.35 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.35

संजय उवाच

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य   ॥

“sañjaya uvāca,

etac chrutvā vacanaḿ keśavasya,

kṛtāñjalir vepamānaḥ kirītī..।

namaskṛtvā bhūya evāha kṛṣṇaḿ,

sa- gadgadaḿ bhīta- bhītaḥ praṇamya”..।।

भावार्थ: 

संजय ने कहा – भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला। (३५)

Meaning:

Sanjaya said:

Hearing this statement of Keshava, the crowned one with folded palms, trembling, offered salutations, bowed, and even though fear struck, addressed Krishna in a choked voice.

Explanation:

While Arjuna experienced a high degree of fear mixed with confusion in the first chapter, he now demonstrated tremendous gratitude and joy after knowing that the war had been pre-ordained in his favour. The fear had not subsided fully, that is why his voice was choked and his body was trembling. Since there was a bit of a gap between Shri Krishna proclamation and Arjuna’s next statement, Sanjaya stepped in to narrate this shloka.

Here, Arjun is referred to as “the crowned one.” He had once helped Indra kill two demons. As a token of his pleasure, Indra had placed a dazzling crown on his head. In this verse, Sanjay refers to the crown on Arjun’s head. But a crown is also the symbol of monarchy, and Sanjay deliberately uses the word to hint to the old king Dhritarasthra that his sons, the Kauravas, will lose the throne to the Pandavas in the impending war.

Shri Shankaracharya in his commentary adds an extra dimension to Sanjaya’s interjection. Since Shri Krishna had already declared the upcoming death of the Kaurava army’s star warriors, Dhritraashtra could still have had one last opportunity to end the war at this very moment. Without saying it explicitly, Sanjaya asked: would he issue a command to stop the war now? He used the word “crown” to imply that Arjuna’s coronation as the crown prince of the kingdom was not too far away.

Unfortunately, Sanjaya’s plea fell on deaf ears. Dhritraashtra’s attachment to his sons was so great that even a revelation from Ishvara himself could not unsettle it. But even he knew that the fate of his sons was already sealed. The downward spiral caused by attachment has been illustrated with several examples in earlier chapters of the Gita. Perhaps this example of Dhritraashtra is one of the most hard-hitting ones since attachment to family is something that all of us identify with.

So then, what did Arjuna say to Shri Krishna? We shall see next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

गीता पुनः कृष्ण-अर्जुन से संजय- धृष्टराष्ट्र संवाद की ओर चली है। हमे यह पूर्व में ज्ञान है कि एक ओर अपने सगे संबंधियों से अनुराग से ग्रसित वीर योद्धा है जिसे कृष्ण भगवान समझा रहे है और दूसरी ओर मोह, लोभ एवम राज्य अभिलाषा लिये व्यक्ति है। यदि हम यह समझे कि तम बुद्धि से युक्त धृष्टराष्ट्र है जो ज्ञान प्राप्त तो है और गीता भी सुन रहा है। जैसे ज्ञानी को ज्ञान देना एवम जागते को जागना कठिन है, वैसे ही अहम एवम कामना में पड़े व्यक्ति को समझाना कठिन है।

यहाँ अर्जुन को ‘किरीटी’ कह कर संबोधित किया गया है। उसने एक बार में दो दानवों का वध करने के लिए इन्द्र की सहायता की थी। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उसे चमकीला मुकुट उपहार में दिया। मुकुट राज सिंहासन का प्रतीक भी होता है और संजय ने वृद्ध राजा धृतराष्ट्र के सामने यह शब्द प्रयोग कर उन्हें यह संकेत दिया कि उसके पुत्र कौरव आसन्न युद्ध में पराजित होकर राज पाठ खो देंगे।

वस्तुतः गीता में भगवान का यह मायविक स्वरूप जिस में अर्जुन ने भीष्म, द्रोण एवम कर्ण आदि महान योद्धाओं को महाकाल के द्वारा ग्रसित होते, अर्जुन के अतिरिक्त संजय ने भी देखा और धृतराष्ट्र ने सुना। किन्तु जो स्वयम काल के द्वारा अहम, स्वार्थ, लालसा और पुत्रमोह से ग्रसित हो, उस को किसी प्रकार का कोई असर नही होता।

यहाँ पर संजय के वचन इस गूढ़ अभिप्राय से भरे हुए हैं कि द्रोणादि चार अजेय शूरवीरों का अर्जुन के द्वारा नाश हो जाने पर आश्रय रहित दुर्योधन तो मरा हुआ ही है, ऐसा मानकर विजय से निराश हुआ धृतराष्ट्र सन्धि कर लेगा और उस से दोनों पक्षवालों की शान्ति हो जायगी। परंतु भावी के वश में हो कर धृतराष्ट्र ने ऐसे वचन भी नहीं सुने।

हम पुनः श्लोक 30 के भीष्म के वचन को याद करते है जो उन्हों ने भरी सभा मे अहम, स्वार्थ एवम लोभ में डूबी दुर्योधन की सभा मे कृष्ण संधि में कही थी ” कालपक्कमिदम मन्ये सर्वम क्षत्रम जनार्दना” यह समस्त क्षत्रिय काल द्वारा पक गए है एवम अपनी आयु पूर्ण कर चुके है, इसलिये मृत्यु को प्राप्त है। जब समय निकट आ जाता है तो व्यक्ति अपने लिये अच्छा बोलने वाले को भी नही सुनता। रावण को अनेक बार लगभग सभी ने समझाया किन्तु बुद्धि एवम विवेक से पूर्ण रावण काल वश में होने से नही समझ पाया।

नियति जब कार्य करती है तो सर्वप्रथम वह विवेक को या तो भ्रमित कर देती है या उसे हर लेती है। योगमाया और प्रकृति अपना अपना कार्य कर्म विपाक के सिंद्धान्त से करते रहते है, उन के लिये अपना-पराया जैसा कोई शब्द नही होता। महाकाल से कोई नही बच सकता। इस सत्य को प्रत्यक्ष देखने मात्र से शरीर मे भय से कंपकंपी होना स्वाभाविक ही है, यही अर्जुन की स्थिति है।

एक अन्य दृष्टिकोण से भी अर्जुन कृष्ण के बारे में जितना जानता था, उस के कहीं बाहर विश्व के विराट स्वरूप में महाकाल हो सब के कर्मो के फल का निर्णायक दाता, निष्पक्ष एवम भावनाशून्य स्वरूप को उस ने कभी सोचा भी नही था।

संजय कहते है कि काल से भयंकर स्वरूप के बाद भयंकर मेघों के गर्जना , गंगा के प्रचंड घोष से गिरना या क्षीर सागर के मंथन की भीषण वाणी के समान कृष्ण की वाणी सुन कर  अर्जुन डर से गए एवम कर बद्ध परमात्मा के चरणों मे अपना मस्तक रख दिया। उस का गला अवरुद्ध हो गया इसलिये उस अवरुद्ध गले से वो परमात्मा की स्तुति करने लगे। पुनः विचार करे तो हम पाएंगे जब स्थिति अपने नियंत्रण में न हो तो वंदना या स्तुति से बल प्राप्त होता हैं।

भाग्यवाद और नियतिवाद में अंतर को हमने समझा। अतः जब नियति कर्म के फल के अनुसार ही कार्य करेगी तो मनुष्य किसी भी कार्य में कुछ भी सुधार नहीं कर सकेगा। तो हमे यह भी समझना होगा कि प्रायश्चित अर्थात प्रारब्ध के कर्म के वेग को सुधारा जा सकता है, जैसे विषाक्त भोजन से व्यक्ति मर रहा हो तो दवा से उसे समय पर बचाया जा सकता है। सड़क पर एक्सीडेंट  होने पर भी उपचार से जान बच सकती है, यह एक्सीडेंट की मात्रा पर भी निर्भर है। इसलिए अत्यंत वेग पूर्ण प्रारब्ध को भोगने के अतिरिक्त कोई उपाय न होने पर शांत चित्त हो कर व्यतीत करना और यदि प्रारब्ध को मैनेज किया जा सके तो उस को विवेक से समझ कर कार्य करना चाहिए। अतः जीवन में यदि कभी कुछ अनुचित या गलत कार्य भी हो जाए तो आगामी कर्म उस कार्य के फल को न्यून करने के लिए किया जा सकता है। मनुष्य यदि प्रारब्ध को भोगता है तो प्रारब्ध को नियंत्रित कर के भोग भी सकता है। वह यदि अपना विवेक और सद्बुद्धि कायम रखे तो असहाय नही होता।

इसे हम इस प्रकार समझे कि नियति के हिसाब से यदि रेल को चेन्नई से दिल्ली जाना है तो वह उस रूट पर चलेगी। यात्री जो उस में चढ़ेंगे, वे दिल्ली पहुंच जाएंगे। चढ़ना, उतरना या नहीं जाना, यह नियति नहीं तय करती क्योंकि कर्म का अधिकार जीव के पास है। वह काल चक्र की भांति घूमती है और उस में जो विवेक शून्य हो कर रहता है, उसे अपने साथ ले जाती है। कोई यह सोचता है कि उस की नियति में राजयोग है, उसे कुछ कर्म करने की आवश्यकता नहीं। तो वह वैसा यात्री है जो कलकत्ता जाने वाली गाड़ी में बैठ कर सोचता है, यह गाड़ी मुझे दिल्ली पहुंचा देगी। सही समय पर सही कार्य यदि विवेक और समर्पण बुद्धि से किया जाए, तो प्रारब्ध भी उच्च कोटि का होगा और व्यक्ति श्रेष्ठ कार्य के लिए निमित्त बनेगा। यदि जीवन शेष है तो 10 मंजिल से कूदने पर प्राण नहीं निकलेंगे तो वह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। किंतु तूफान आने से या बाढ़ आने से सैंकड़ों लोग मर जाते है, वहां काल चक्र है, जिस में विवेक का कोई कार्य नहीं हैं।

युद्ध भूमि में जब सब की मृत्यु दिख रही है तो धृतराष्ट्र को युद्ध मोह को त्याग कर रोकना चाहिए, यही सोच कर संजय के संवाद का महत्व बढ़ता है किंतु जिस की मति मारी जाए उस कोई उपाय नहीं। रावण भी तो अनेक बार समझाया गया था। आश्चर्य और भय के बाद अर्जुन की तीसरी अवस्था इस अध्याय में समर्पण की हम देखते है। किंतु हमे यह ध्यान रखना होगा कि यह तीनों अवस्था दिव्य दृष्टि से उत्पन्न हुई है, अर्जुन का व्यक्तित्व से इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.35।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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