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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.14 II

।। अध्याय      11.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.14

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।

प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥

“tataḥ sa vismayāviṣṭo,

hṛṣṭa- romā dhanañjayaḥ..।

praṇamya śirasā devaḿ,

kṛtāñjalir abhāṣata”..।।

भावार्थ: 

तब आश्चर्यचकित, हर्ष से रोमांचित हुए शरीर से अर्जुन ने भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला। (१४)

Meaning:

Thereafter, filled with bewilderment, his hair standing on end, Dhananjaya, with folded hands, bowed his head to the lord and began to speak.

Explanation:

Arjun was struck with amazement and deep reverence on seeing that breathtaking spectacle. It struck devotional chords in his heart that evoked paroxysms of delight.

It is pictureless picture description through pen of mahrishi vyas for Arjun. Arjuna was struck by wonder, not because he is seeing a new thing, but he has a new perspective towards an ordinary thing. It is not an extraordinary sight, but it is an extra ordinary attitude towards the ordinary word available and because of this attitudinal change; vismayāviṣṭaḥ; he was wonderstruck, and this wonderment was so intense and deep that it began to express at the physical level also, because extreme emotions flow out to the physical body, because mind and body has connections.

The elation experienced through devotional sentiments occasionally finds expression in physical symptoms. The bhakti scriptures describe eight such symptoms, or the aṣhṭa sāttvic bhāv, that sometimes manifests in devotees when their heart gets thrilled in devotion: “Becoming stupefied, sweating, horripilation, choking of the voice, trembling, complexion becoming ashen, shedding tears, and fainting—these are the physical symptoms by which intense love in the heart sometimes manifests.”

That is what Arjun experienced as his hair began standing on end. So far, Arjuna was reeling under the shock of viewing the cosmic form of Ishvara. Sanjaya paints a wonderful picture of Arjuna’s reaction to this earth-shattering event. Filled with awe and astonishment, Arjuna’s body reacted with goose bumps. Once the extent of the shock receded to some extent, he gained back his faculties and mustered the energy to start speaking again.

Another aspect of this shloka is revealed by the phrase “bowed his head to the lord”. Arjuna, scion of the great Kuru dynasty was a proud warrior, one of the finest archers in the land. There were few instances in his life where he faced a situation that would have humbled him. Seeing the entire universe in one tiny corner of the cosmic form put his accomplishments in the right perspective, taking all his pride away. He realized that he was nothing, his greatness was nothing compared to the glory of that infinite Ishvara.

So, whenever we feel we have accomplished something great, whenever our ego starts to puff up, or even when we feel our personal problems are weighing down upon us, we should do what Arjuna did: fold our hands and bow our head to Ishvara. Our feats and problems are tiny compared to the expanse and power of Ishvara’s universe.

Arjuna begins to describe Ishvara’s cosmic form in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन को दिव्य दृष्टि मिलने के बाद उसे परमात्मा के विराट रूप के दर्शन हो रहे थे और दूर धृष्टराष्ट्र के पास संजय अपनी दिव्य दृष्टि से वह सब देख रहे थे जो अर्जुन देख रहे थे। संजय न केवल दिव्य दृष्टि से देख सकते थे, वो समस्त बाते सुन एवम जहां देख रहे होते है उस व्यक्ति की भावनाओ को भी पढ़ सकते थे। इसलिये वह अर्जुन को देखते हुए कहते है।

यह वर्णन कलम की ताकत  को दर्शाता है जो दूरदर्शन की भांति दृश्य तो नही प्रकट करती किंतु मन में दृश्य अवश्य दिखाती है।

सांसें रोक देने वाले उस दृश्य को श्रद्धा के साथ देखकर अर्जुन विस्मय के साथ आवाक् रह गया। इस दृश्य ने आनंद के आवेग से उत्पन्न उसके हृदय की भक्तिमयी तंत्रियों को झकझोर दिया। भक्तिमय मनोभावों द्वारा अनुभव किया गया उत्साह कभी-कभी शारीरिक लक्षणों हाव-भावों में प्रदर्शित होता है।

तो अर्जुन आश्चर्यचकित रह गया,  इसलिए नहीं कि वह कोई नई चीज़ देख रहा है। लेकिन उस के पास एक सामान्य चीज़ के प्रति एक नया दृष्टिकोण है। यह कोई असाधारण दृश्य नहीं है;  लेकिन यह उपलब्ध सामान्य शब्द के प्रति एक असाधारण रवैया है और इस दृष्टिकोण परिवर्तन के कारण वह आश्चर्यचकित (विस्मयविष्ठः) था और यह आश्चर्य इतना तीव्र और गहरा था कि वह भौतिक स्तर पर भी व्यक्त होने लगा। क्योंकि अत्यधिक भावनाएँ भौतिक शरीर में प्रवाहित होती हैं, क्योंकि मन और शरीर का संबंध है।

भक्तिग्रंथों में ऐसे आठ लक्षणों या ‘अष्ट सात्विक भाव’ का वर्णन किया गया है जो कभी-कभी भक्तों में प्रकट होते हैं जब उनका हृदय भक्ति से रोमांचित हो जाता है।

स्तंभवेदो थ रोमांचः स्वरभेदो थ वेपतुः। वेवर्नयामश्रु प्रलया इत्य्स्तु सात्विकः स्मृतः।।(भक्तिरसामृतसिंधु)

स्तंभवत् होना, स्वेद, स्वर भंग, कम्पन, विवर्णता, (भस्मवर्ण होना) अश्रुपात, और प्रलय (मूर्छा) ये सब शारीरिक लक्षण हैं जिनके द्वारा हृदय में कभी-कभी अगाध प्रेम प्रकट होता है। यही अर्जुन ने अनुभव किया था जिस से उसके शरीर के रोम कूप सिहरने लगे।

धनन्जय के अंतःकरण में जो कुछ  भी द्वैत भाव अवशिष्ट था कि वह संसार मे अद्वितीय योद्धा है, उस का अंतःकरण अब द्रवित हो गया। उस को समझ मे आ रहा है कि परमात्मा के जिस अंश से पूरी सृष्टि व्याप्त है, वह उन का नगण्य   सा अंश है। ऐसा अनन्त आश्चर्यमय दृश्यों से युक्त परम् प्रकाशमय तेजस्वी स्वरूप देखा जिसे वो बिना दिव्य दृष्टि के नहीं देख पा रहा था तो उस का हृदय आश्चर्ययुक्त और प्रफुल्लित हो कर रोमांचित हो गया। उस के रोम रोम उठ खड़े हो गए। वह पसीने से नहा गया और उस का कंठ आश्चर्य से अवरुद्ध हो गया। उस का शरीर आशंका एवम भय से कंपकंपाने लगा। उस की स्थिति उस मानव के समान हो गई जिसे प्रेम, श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप अनेपक्षित मिल गया, जिस से उस की आंखों से खुशी के आंसू झलक उठे। उस का अहम कि वह युद्ध मे अजेय है एवम स्वजन की हत्या नहीं कर सकता, टूट कर बिखर गया था। जिसे वह आजतक अपना सखा समझ रहा था वह तो साक्षात परमात्मा ही है। उस के पारस्परिक सम्बंध बदल गए एवम मित्र के न हो कर जीव एवम परमात्मा के हो गए। उस का मस्तक आनन्द एवम आश्चर्य के साथ श्रद्धा एवम विस्वास के कारण हरि के चरणों मे झुक गया एवम वह नीचे प्रणाम करता हुआ विन्रम भाव से श्रद्धा पूर्वक परमात्मा की स्तुति करने लग गया। अर्जुन के भाव को व्यक्त करने का सही शब्दो का चयन मुश्किल है, क्योंकि यह भाव प्रेम की पराकाष्ठा में प्राप्त प्रियतम के अचानक मिलने से अधिक गहन है।

जब किसी को नमन किया जाता है तो यह स्वीकरोति रहती है यह सब मेरा नही है और मै स्वीकार करता हूँ कि यह मुझे आप की अनुकंपा से प्राप्त है।

संजय द्वारा परमात्मा का दिव्य स्वरूप का वर्णन निश्चय ही प्रफुल्लित एवम ह्रदय में आनंद देने वाला है, यह व्यास जी है जिन की लेखनी ने अव्यक्त निर्गुणाकार को व्यक्त कर दिया एवम अर्जुन जैसे महान योद्धा के स्थान पर हम अवश्य ही यह महसूस करने लग गए होंगे कि किंचित हमारा यह भेद भाव एक मिथ्या भ्रम एवम अहम है कि यह विश्व एक अलग वस्तु है और हम इस से पृथक अन्य वस्तु है। हम सब उस परमात्मा के एक अंश से उत्पन्न सृष्टि के पात्र है जिस का कोई पृथक आस्तित्व नही। जब तक जीव का अन्तःकरण द्रवित हो कर आनंद में परिवर्तित नहीं होता, यह भेद भाव भी बना रहता है।

व्यवहार में किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व उस के चेहरे की आभा, बोलचाल, उस के पहरावे और व्यवहार से झलकती अवश्य है, किन्तु जब तक उस के पद, शिक्षा, उस के निर्णय लेने के अधिकारों को जानकारी न हो, हम उस अपना सहयोगी ही समझते है, परन्तु यदि पता चले जो हमारे साथ काम कर रहा है, वह ही हमारे उद्योग का संचालक है, तो हमारा व्यवहार, आश्चर्य, उस के प्रति अधिकार, अपनी महत्ता समाप्त हो जाती है और हम उस के प्रति समर्पित हो जाते है। फिर अर्जुन जैसे महान योद्धा के समझ परमात्मा का विराट स्वरूप आने से उस की स्थिति तो  अत्यंत विकट थी।

भावावेश के कारण अर्जुन का कण्ठ अवरुद्ध हो गया था।  अर्जुन विराट् रूप भगवान् की जिस विलक्षणता को देखकर चकित हुए एवम श्रद्धा के साथ नतमस्तक होकर और हाथ जोड़कर अर्जुन ने क्या कहा इस का वर्णन आगे के तीन श्लोकों में भगवान् की स्तुति में, आइए! हम सब भी उन के साथ परमात्मा की स्तुति करते हुए पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.14।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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