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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.40 II

।। अध्याय      10.40 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.40

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥

nānto ‘sti mama divyānāḿ,

vibhūtīnāḿ parantapa..।

eṣa tūddeśataḥ prokto,

vibhūter vistaro mayā..।।

भावार्थ: 

हे परन्तप अर्जुन! मेरी लौकिक और अलौकिक ऎश्वर्यपुर्ण स्वरूपों का अंत नहीं है, मैंने अपने इन ऎश्वर्यों का वर्णन तो तेरे लिए संक्षिप्त रूप से कहा है। (४०)

Meaning:

There is no end to my divine expressions, O scorcher of foes. For, what has been spoken of my expressions is (just) an indicator.

Explanation:

Shri Krishna, speaking as Ishvara, began enumerating his divine expressions in the beginning of this chapter. As we have seen so far, he has highlighted the most glorious, powerful and awe-inspiring aspects of his creation. In this shloka, he admits that it is next to impossible to list every single aspect of creation. But he also asserts that every single aspect of creation is divine, since it has sprung out of Ishvara himself. He told that “I have stopped the enumeration of My glories, not because my glories have been exhausted. If I have to enumerate all the glories the list is inexhaustible.” Since, there is no end to divine glory. It can never be exhausted by Krishna himself.

The question can be asked that if everything is the opulence of God, then what was the need of mentioning these? The answer is that Arjun had asked Shree Krishna how he should think of him, and these glories have been described in response to Arjun’s question. The mind is naturally drawn to specialties, and thus, the Lord has revealed these specialties amongst his powers. Whenever we see a special splendor manifesting anywhere, if we look on it as God’s glory, then our mind will naturally be transported to him. In the larger scheme of things, however, since God’s glories are in all things big and small, one can think of the whole world as providing innumerable examples for enhancing our devotion. A paint company in India would advertise, “Whenever you see colors think of us.” In this case, Shree Krishna’s statement is tantamount to saying, “Wherever you see a manifestation of glory, think of me.”

Let us go back to the example of Mr. X and his shiny new car. The seed of sorrow was planted the minute he started considering that “the car is mine”. Instead, if Mr. X thinks that the car is Ishvara’s creation, he will immediately drop his sense of “mine-ness” from it. Furthermore, he realizes that the car is a temporary object and will eventually cease to exist. He also comes to know that the sense of joy he derives from buying a new car is not from the car, but it is from the presence of Ishvara inside it. So if something happens to the car, he remains unaffected and unperturbed.

Now having gone through the list, we find that a 21st century person like us has difficulty identifying with Puraanic glories that would have been familiar to Arjuna. How should we deal with this issue? Shri Krishna gives the answer in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अठारहवें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि आप अपनी दिव्य विभूतियों को विस्तार से कहिये, तो उत्तर में भगवान् ने कहा कि मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है। ऐसा कह कर भी भगवान् ने अर्जुन की जिज्ञासा के कारण कृपापूर्वक अपनी विभूतियों का विस्तार से वर्णन किया। परन्तु यह विस्तार केवल लौकिक दृष्टि से ही है। इसलिये भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि मैंने यहाँ जो विभूतियों का विस्तार किया है, वह विस्तार केवल तेरी दृष्टि से ही है। मेरी दृष्टि से तो यह विस्तार भी वास्तव में बहुत ही संक्षेप से (नाममात्रका) है क्योंकि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है। अतः जब सभी कुछ परमात्मा ही है तो उस की विभूतियों का वर्णन अंतहीन अर्थात असंभव सा है।

कारण कि भगवान् अनन्त हैं तो उन की विभूतियाँ, गुण, लीलाएँ आदि भी अनन्त हैं हरि अनंत हरि कथा अनंता। इसलिये भगवान् ने विभूतियों के उपक्रम में और उपसंहार में दोनों ही जगह कहा है कि मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है। श्रीमद्भागवत में भगवान् ने अपनी विभूतियों के विषय में कहा है कि मेरे द्वारा परमाणुओं की संख्या समय से गिनी जा सकती है, पर करोड़ों ब्रह्माण्डों को रचने वाली मेरी विभूतियों का अन्त नहीं पाया जा सकता। भगवान् अनन्त, असीम और अगाध हैं। संख्या की दृष्टि से भगवान् अनन्त हैं अर्थात् उनकी गणना परार्द्ध तक नहीं हो सकती। सीमा की दृष्टि से भगवान् असीम हैं। सीमा दो तरह की होती है, कालकृत और देशकृत। अमुक समय पैदा हुआ और अमुक समय तक रहेगा, यह कालकृत सीमा हुई और यहाँ से लेकर वहाँ तक यह देशकृत सीमा हुई। भगवान् ऐसे सीमा में बँधे हुए नहीं हैं। तल की दृष्टि से भगवान्,अगाध हैं। अगाध शब्द में गाध नाम तल का है जैसे, जल में नीचे का तल होता है। अगाध का अर्थ हुआ जिस का तल है ही नहीं, ऐसा अथाह गहरा।

अब यह प्रश्न सामने आता है कि यदि सब कुछ भगवान का ही ऐश्वर्य है तब इनका उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा था कि वह उनके दिव्य स्वरूप को कैसे समझे इसलिए अर्जुन के प्रश्न की प्रतिक्रिया में श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया। मन विशिष्ट गुणों की ओर आकर्षित होता है इसलिए भगवान ने अपनी शक्तियों की विलक्षणताओं को प्रकट किया है। जब कभी हम कहीं पर विशद वैभवशाली अभिव्यक्तियों को देखते हैं, यदि हम उन्हें भगवान की महिमा के रूप में देखते हैं तब हमारा मन स्वाभाविक रूप से भगवान के सम्मुख हो जाएगा। जबकि सृष्टि निर्माण की वृहत योजना में भगवान की महिमा सभी छोटी और बड़ी वस्तुओं में व्याप्त है फिर भी हम यह समझ सकते हैं कि सारा संसार हमारी श्रद्धा भक्ति बढ़ाने के लिए असंख्य आदर्श और उदाहरण उपलब्ध करवाता है।

भारत में एक पेंट कम्पनी अपने विज्ञापन में इसे इस प्रकार से व्यक्त करती है-‘जब भी आप रंगों को देखोगे तब हमारे बारे में सोचोगे।’ इस प्रकरण में श्रीकृष्ण का कथन भी समान है-“जहाँ भी आप महिमा की अभिव्यक्तियों को देखें तब मेरे बारे में सोचें।”

शल्य चिकित्सा के विद्यार्थियों को सर्वप्रथम एक सप्ताह के मृत देह पर शल्यक्रिया करने को कहा जाता है यह कोई असत्य नहीं है यह सत्य है कि कितनी ही कुशलता से शल्यक्रिया करने पर भी वह मृत रोगी पुनर्जीवित होने वाला नहीं है, परन्तु इस प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन विद्यार्थी को उस अनुभव को कराना है, जो अपना स्वतन्त्र व्यवसाय करने के लिए जीवन में आवश्यक होता है। इसी प्रकार, भगवान् यहाँ अर्जुन को दृश्य के द्वारा अदृश्य का दर्शन करने की कला को सिखाने के लिए अपनी कुछ विशेष विभूतियों का वर्णन करते हैं।उनका यह उद्देश्य उन की इस स्वीकारोक्ति में स्पष्ट होता है, किन्तु मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार संक्षेप से कहा है। भगवान् द्वारा किया गया वर्णन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। साधकों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्होंने कुछ विशेष उदाहरण ही चुन कर दिये हैं।

अव्यक्त शब्द का प्रयोग प्रकृति तथा ब्रह्म के लिये किया जाता है। ॐ :- अव्यक्त अर्थात्‌ जो व्यक्त नही है अव्यक्त प्रकृति , पुरुष (अविनाशी जीव) , ब्रह्म के लिए प्रयोग होता है। वेद कहते है कि सृष्टि पूर्व में अपने कारण अवस्था में लीन थी अर्थात अव्यक्त थी वह इस अवस्था में थी जिसे किसी भी उपकरण या मन , बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा नही जाना जा सके जिसे वेद ने अव्यक्त कहा अर्थात जो इंद्रियों से परे हो या जिसका ज्ञान या अनुभव इंद्रियों से न हो सके।

ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिस से विश्व की उत्पत्ति होती है , जिस से विश्व आधारित होता है और अन्त में जिस में विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है और प्रकाश- स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।

ब्रह्म को मन से जानने कि कोशिश करने पर मनुष्य योग माया वश उस परम् ब्रह्म की परिकल्पना करता है और संसार में खोजता है तो अपर ब्रह्म जो प्राचीन प्रार्थना स्थल की मूर्ति है उसे माया वश ब्रह्म समझ लेता है अगर कहा जाए तो ब्रह्म को जानने की कोशिश करने पर मनुष्य माया वश विभूति को ही परमात्मा समझ लेता है।

परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है। जब भी उस के व्यक्त अर्थात विभूति स्वरुप का वर्णन हुआ है, “नेति-नेति” करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है।

ब्रह्म मनुष्य है सभी मनुष्य उस ब्रह्म के प्रतिबिम्ब अर्थात आत्मा है सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है जो शून्य है वह ब्रह्म है मनुष्य इस विश्व की जितना कल्पना करता है वह ब्रह्म है । ब्रह्म स्वयं की भाव इच्छा सोच विचार है । ब्रह्म सब कुछ है और जो नहीं है वह ब्रह्म है ।

व्यवहार में प्रत्येक जन एवम श्रेष्ठ में परमात्मा की विभूति हमे प्रेरित करती है कि हम अपने को उस उच्च श्रेणी के लिये प्रयासरत करे। किसी भी व्यक्ति के परमात्मा के प्रति श्रद्धा और विश्वास उस के सकारात्मक गुणों के विकास के अनिवार्य है। 

उदाहरण में हम जब परिवार में रहते है तो हमें अपने माता – पिता, भाई – बहन, पत्नी और बच्चों के साथ उन के अनुकूल व्यवहार से रहना होता है। किंतु सभी अपनी अपनी नियति और विचारों में साथ साथ रहते हुए भी, पृथक पृथक भावनाए और संबंध रखते है। यदि अच्छे संबंध जुड़े रहे तो उसे परमात्मा ही विभूति मानने से आपस में द्वेष या स्वार्थ को स्थान नही मिलेगा। किंतु यदि उस को सांसारिक हो कर अहम, ममत्व और स्वार्थ में जीने की चेष्टा करे तो काल के अंतराल में जब परिवार बड़ा होने के बाद टूटने लगता है तो अवसाद, भय ,क्रोध , लोभ और स्वार्थ को ज्यादा अहमियत मिलती है। जब हम प्रत्येक क्रिया और वस्तु में परमात्मा की विभूति के स्वरूप में जुड़ कर आनंद लेते है तो वह आनंद उस क्रिया या वस्तु के छूटने या नष्ट होने पर अवसाद या दुख का कारण नहीं बन सकता।

जो साधक इन विभूतियों का ध्यान कर के अपने मन को पूर्णत प्रशिक्षित कर लेगा, वह इस बहुविध सृष्टि के पीछे स्थित एक अनन्त परमात्मा को सरलता से सर्वत्र पहचानेगा।

।। हरि ॐ तत सत।। 10.40।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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