।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.39 II
।। अध्याय 10.39 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.39॥
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥
“yac cāpi sarva-bhūtānāḿ,
bījaḿ tad aham arjuna..।
na tad asti vinā yat syān,
mayā bhūtaḿ carācaram”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! वह बीज भी मैं ही हूँ जिनके कारण सभी प्राणीयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि संसार में कोई भी ऎसा चर (चलायमान) या अचर (स्थिर) प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना अलग रह सके। (३९)
Meaning:
And O Arjuna, whatsoever is the seed of all beings, I am that. No moving or non-moving being can exist without me.
Explanation:
Now Shri Krishna begins to conclude the teaching of this chapter. Having provided a long list of Ishvara’s divine expressions, he now gives us a simple formula to recognize him. He says that whatever we come across in the world, whether it is a living or a non-living entity, or whether it is moving or stationary, it has arisen from the seed that is Ishvara. In other words, Ishvara is the cause or the seed of everything in this universe.
Shree Krishna is both the efficient cause of all creation and also the material cause. Efficient cause means that he is the creator who performs the work involved in manifesting the world. Material cause means that he is the material from which creation happens. In verses 7.10 and 9.18, Shree Krishna declared himself as “the eternal seed.” Again here, he states that he is “the generating seed.” He is stressing that he is the origin of everything, and without his potency nothing can exist.
And the material cause always expresses in the effect; in the form of the very existence; when you say an ornament is: the very Is_ness or existence does not belong to the ornament, the existence actually belongs to the gold alone; ornament is nothing but nāma and rūpa; it is an non- substantial entity; if you say nāma rūpa ‘is’: that Is_ness is borrowed from where; the gold. How do you prove that? remove the gold from the ornament; ornament loses its very existence. And therefore, Krishna says I am the material cause who lend existence to every product in the creation; Therefore when you say wall is: Isness belongs to me; when you say: fan is: Is_ness belongs to me; In short, I am the Sat in the creation. What did he say in the starting; Aham ātma gudakēśa. There the word ātma means that I am the very consciousness in every being; in finishing he says: I am the very existence in every being; I am sat cit svarūpaḥ; obtaining in the entire creation.
One way of understanding this is as follows. When we refer to an object, let’s say it’s a book, we say: “This is a book”. There are two aspects pointed out here. First is the book, which is quite obvious. But we also use the word “is” to indicate that the book exists, that the book is visible, and it will be visible to someone else. Shri Krishna says that the very existence of the book, the “is-ness” of the book, is nothing but Ishvara.
Bhagavan says: I am the material cause without which nothing in the creation, moving or non-moving can exist. And therefore, if somebody asks, who is God? We say, who “Is”, is God; What does that mean; Is ness is the God; all others are nama rupa only. So yat carācāram bhūtam syāt maya vina asti; tat nā; there is nothing which can exist without me. Thus, he started with cit, ended with sat; cit and sat are nirguṇa Īśvara vibhuthi; and all others are saguṇa Īśvara vibhūthiḥ; vibhūthiḥmeans mahima.
In other words, this entire universe will not exist without Ishvara. All of the names and forms in the universe use Ishvara are their basis. If we comprehend this, and develop our vision based on this knowledge, we will automatically see Ishvara everywhere, just like we automatically “see” electricity in every electrical gadget.
।। हिंदी समीक्षा ।।
सबै घट रामु बोलै रामा बोलै, राम बिना को बोलै रे।असथावर जंगम कीट पतंगम घटि-घटि रामु समाना रे ।।
संत नामदेव की उक्त पंक्तियां, इस श्लोक के अर्थ को दर्शाती है। जिस में अर्जुन ने परमात्मा से उन की समस्त विभूतियो को बताने की प्रार्थना की थी, फिर लगभग 82 विभूतियो को बताने के बाद भगवान श्री कृष्ण सांतवे अध्याय के सनातन बीज एवम नवम अध्याय के अविनाशी बीज की बात को दोहराते हुए कहते है कि मेरी विभूतियां अनन्त है, उन में से प्रत्येक का वर्णन करना संभव नही। जब यह ब्रह्मांड, संसार , क्षर, अक्षर प्राणी मेरी ही उत्पत्ति है तो मै तो इन सब का कारक हूँ, मै ही वो बीज स्वरूप हूँ जिस से यह सब क्षर-अक्षर का विस्तार हुआ है। इसलिये जो भी हम देखते है, सुनते है, अनुभव करते है, विचार या मनन करते है उन सब को मेरी विभूति मान कर चिंतन करो।
अर्जुन का प्रश्न था कि भक्त योग में परमात्मा का चिंतन किस प्रकार करे, क्योंकि जो इन्द्रिय अगोचर है, उस की भक्ति करने में कठनाई होती है। इसलिये परब्रह्म का कुछ स्वरूप भक्ति करने के लिये होना चाहिये। संसार में जडचेतन, स्थावरजङ्गम, चरअचर आदि जो कुछ भी देखने में आता है, वह सब परमात्मा बिना नहीं हो सकता। इसलिये भगवान कहते है कि सब मेरे से ही होते हैं अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ। इस वास्तविक मूल तत्त्व को जान कर साधक की इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि जहाँ कहीं जायँ अथवा मनबुद्धि में संसार की जो कुछ बात याद आये, उन सब को भगवान् का ही स्वरूप माने। ऐसा मानने से साधक को भगवान् का ही चिन्तन होगा, दूसरे का नहीं क्योंकि तत्त्व से भगवान् के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं।
विश्व की बीजावस्था- बीज में वृक्ष की अव्यक्त अवस्था के तुल्य है। अनुकूल परिस्थितियों को पाकर बीज से अंकुर फूटकर ऊपर की ओर तने का रूप ले लेता है और उसी प्रकार भूमि के अन्दर उस का मूल उतनी गहराई तक पहुँचता है। नाम और रूपमय यह सम्पूर्ण विश्व जब अपनी अव्यक्त अवस्था में होता है तब वह उपनिषदों के अनुसार, प्रलय की स्थिति कहलाती है। यह समष्टि प्रलय का सिद्धांत व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर बुद्धिगम्य हो जाता है।
हमारी सुषुप्ति अवस्था में, हमारे व्यक्तिगत स्वभाव, चरित्र, क्षमता, शिक्षा, संस्कृति, सद्व्यवहार आदि सब अव्यक्त स्थिति में विद्यमान रहते हैं। संक्षेप में, निद्रावस्था में हमारे व्यक्तित्व की विशेषताएं बीजावस्था में रहती हैं। विश्राम काल के अन्तराल के बाद, जब ये वासनाएं स्वयं को व्यक्त करने के लिए अधीर हो उठती हैं, तब यदि अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हो जायें, तो वे पूर्णरूप से व्यक्त होती हैं। इसी प्रकार समष्टि मन की विश्राम की अवस्था में सम्पूर्ण जीवों की वासनाओं के साथ यह विश्व बीजावस्था में विद्यमान रहता है। यह एक अत्यन्त सुन्दर एवं तत्त्वबोधक उदाहरण हमारे प्राचीन ऋषियों ने दिया है। गर्भावस्था से, कालान्तर में अनुकूल परिस्थितियों में, यह अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है और उसकी इस प्रथम अभिव्यक्ति को ऋषियों ने सुन्दर नाम दिया है हिरण्यगर्भ। इस शब्द का अर्थ है, चराचर जगत् का गर्भ। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण समष्टि कारण शरीर अर्थात् समस्त प्राणियों की वासनाओं के साथ तादात्म्य करके, सर्वज्ञ ईश्वर के रूप में कहते हैं कि वे वह महान् बीज हैं, जिस से यह संसार वृक्ष फलीभूत हुआ है तथा भविष्य में भी असंख्य बार ऐसा ही होता रहेगा।
विज्ञान और वेदांत की प्रामाणिकता का आधार उस की मनन और निदिध्यासन के निकले हुए निष्कर्ष होते है। इस सृष्टि की रचना एक ब्रह्म या अणु से हुई और यह हिरण्यगर्भ से विकसित होते होते विभिन्न जीव और जड़ वे चेतन जीव उत्पन्न हुए। अतः सृष्टि का मूल वह एक मात्र परब्रह्म ही है और विज्ञान में भी एक अणु अर्थात God particle से यह सृष्टि का विकास हुआ।
लौकिक अनुभव यह है कि बीज से वृक्ष की उत्पत्ति होने की प्रक्रिया में स्वत बीज का नाश हो जाता है। अत भगवान् के कथन से गीता का कोई विद्यार्थी यह न समझ ले कि इस विश्व की उत्पत्ति में स्वयं भगवान् नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार की विपरीत धारणा की निवृत्ति के लिए, श्रीकृष्ण कहते हैं, ऐसा कोई चर या अचर भूत नहीं है, जो मेरे बिना रहता है। परमात्मा का बीजत्व ऐसे ही है, जैसे समुद्र तरंगों का बीज है। तरंगों की उत्पत्ति और विकास समुद्र से भिन्न स्थान पर नहीं होते। जहाँ समुद्र नहीं, वहाँ तरंगों का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। उसी प्रकार, असंख्य तरंगों की उत्पत्ति में स्वयं समुद्र कभी नष्ट नहीं होता।यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस अविद्या से प्रकट होता है, जो मानों सत्य को आच्छादित कर देती है। इस अविद्या का अस्तित्व और उसकी भ्रमोत्पादक शक्ति ये दोनों ही प्रक्षेपित जगत् के स्रोतभूत ब्रह्म में ही स्थित होते हैं। यह आत्म अज्ञान ही सृष्टि का कारण है। चैतन्य आत्मा के बिना यह अविद्या और अविद्याजनित हमारे संसार के दुख प्रकाशित नहीं होते और हमें उनका भान तक नहीं होता।जैसे तरंगों का जनक, धारक और पोषक जल ही है, वैसे ही चैतन्य आत्मा इस संसार वृक्ष का जनक और पोषक है। आंशिक कथन में वे इस बात को भी जोड़ते हैं कि मेरे बिना कोई भूतवस्तु नहीं रह सकती। इसलिए यह विश्व भगवत्स्वरूप ही है।
जैसे यहाँ गीता में भगवान् ने अर्जुन से अपनी विभूतियाँ कही हैं, ऐसे ही श्रीमद्भागवत में (ग्यारहवें स्कन्ध के सोलहवें अध्याय में ) भगवान् ने उद्धवजी से अपनी विभूतियाँ कही हैं। गीता में कही कुछ विभूतियाँ भागवत में नहीं आयी हैं और भागवत में कही कुछ विभूतियाँ गीता में नहीं आयी हैं। गीता और भागवत में कही गयी कुछ विभूतियों में तो समानता है, पर कुछ विभूतियों में दोनों जगह अलग अलग बात आयी है; जैसे — गीता में भगवान् ने पुरोहितों में बृहस्पति को अपनी विभूति बताया है — ‘पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्’ (10। 24) और भागवत में भगवान् ने पुरोहितों में वसिष्ठजी को अपनी tv विभूति बताया है — ‘पुरोधसां वसिष्ठोऽहम्’ (11। 16। 22)। अब शङ्का यह होती है कि गीता और भागवत की विभूतियों का वक्ता एक होने पर भी दोनों में एक समान बात क्यों नहीं मिलती? इसका समाधान यह है कि वास्तव में विभूतियाँ कहने में भगवान् का तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की महत्ता बताने में नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन कराने में है। अतः गीता और भागवत – दोनों ही जगह कही हुई विभूतियों में भगवान् का चिन्तन करना ही मुख्य है। इस दृष्टि से जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदि की विशेषता न देखकर केवल भगवान् की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान् की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये।
भगवान कहते हैं: मैं वह भौतिक कारण हूँ जिसके बिना सृष्टि में कोई भी वस्तु, चर या अचर, अस्तित्व में नहीं रह सकती। और इसलिए अगर कोई पूछे कि भगवान कौन है? हम कहते हैं, जो “है”, वह ईश्वर है; इसका क्या मतलब है; अस्तित्व ही ईश्वर है; अन्य सभी नाम रूप ही हैं। तो यत् चराचरं भूतं स्यात् मया विना अस्ति; तत् ना; ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बिना अस्तित्व में हो। इस प्रकार उन्होंने चित्त से शुरू किया, सत् पर समाप्त किया; चित और सत् निर्गुण ईश्वर विभूति हैं; और अन्य सभी सगुण ईश्वर विभूतिः हैं; विभूतिः मतलब महिमा.
विभूति चिंतन में ऋणात्मक बातों का चिंतन नही है क्योंकि यह परमात्मा की विभूति का अभाव है जिस का चिंतन परमात्मा के स्वरूप से नही हो सकता। यह स्वरूप परमात्मा का ही है परंतु चिन्तन स्वरूप परमात्मा के अभाव का है। सुर-असुर, नीच एवम दुष्ट व्यक्ति सभी परमात्मा के ही स्वरूप है किंतु यह अहम, कामना एवम अपने कर्मो से लिप्त है, इसलिये इन को चिंतन योग्य नही माना चाहिए।
।। हरि ॐ तत सत।।10.39।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)