।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.33 II
।। अध्याय 10.33 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.33॥
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥
“akṣarāṇām a-kāro ‘smi,
dvandvaḥ sāmāsikasya ca..।
aham evākṣayaḥ kālo,
dhātāhaḿ viśvato- mukhaḥ”..।।
भावार्थ:
मैं सभी अक्षरों में ओंकार हूँ, मैं ही सभी समासों में द्वन्द्व हूँ, मैं कभी न समाप्त होने वाला समय हूँ, और मैं ही सभी को धारण करने वाला विराट स्वरूप हूँ। (३३)
Meaning:
Among the alphabets I am “A” and among grammatical compounds I am Dvandva. I only am the inexhaustible time. I am the provider facing all directions.
Explanation:
The word “akshara” means letter, but also means imperishable. Shri Krishna says that among the aksharas, the imperishable letters, Ishvara is manifested foremost in the letter “a”. In Sanskrit, all letters are formed by combining a half-letter with “a.” For example, क् + अ = क (k + a = ka). Hence, the letter “a” is the most important in the Sanskrit alphabet. “A” is also the first vowel of the alphabet, and since the vowels are written before the consonants, “A” comes at the very beginning.
So, because अ is the most fundamental letter or the most fundamental sound; and why do we say that it is the most fundamental sound, because when you open your mouth and allow the wind to pass out, what will be the sound; what will come? Ah; when you open the mouth and allow the sound to come; letter anyone Chinese, Russian, Japanese, let them open the mouth clearly and allow the sound to come, it will be ah alone; and that is why when we want the children to open the mouth, what we say, you say show ah.
Although Sanskrit is such an ancient language, it is highly refined and sophisticated. A common procedure in Sanskrit language is to combine words to form compound words. When, in the process of making one compound word, two or more words give up their case endings, it is called samāsa, and the resulting word is called samāsa pada, or compound word. There are primarily six kinds of samāsa: 1) dwandva, 2) bahubṛihi, 3) karm dhāray, 4) tatpuruṣh, 5) dwigu, 6) avyayī bhāv. Amongst these, dwandva is the best because both words remain prominent in it, while in the others, either one word becomes more prominent, or both words combine together to give the meaning of a third word. The dual word Radha-Krishna is an example of dwandva. Shree Krishna highlights it as his vibhūti.
Previously, time was mentioned as the ultimate counter. Here, time is taken up in its infinite nature. It is that infinite time, “kaala”, which is prevalent before, during and after the creation of the universe. I am the kāla tatvam which puts an end to everything; but which itself does not have an end. So therefore, ākṣayaḥ kālaḥ means inexhaustible time. So, everything else gets exhausted in time, but the time continues throughout. In fact, even during pralaya kālam; everything is resolved, but kāla is there, working potentially. And because of the continuity of kāla alone, the next cycle of sr̥ṣti is possible. Do therefore Krishna say I am the kāla tatvam which is inexhaustible.
And dhātā ahaṃ; dhātā means the one who gives appropriate result for appropriate action; to the appropriate person, at the appropriate time; so I have got a cosmic computer; which cannot have (what virus, red hover) which will never be struck by any virus; a computer which has got in records, all the karmas of all the jīvās, done during all the time; the karma of ant, plant, animals, birds, living beings, dēvās, asurās, everything I have got, and at the right time, I give the karma phalam; And therefore only viśvatōmukhaḥ; my face is turned in all the 10 directions; because I have to see who is doing what karma; who is doing the mischief; so I observe all the karmas of all the people, register them and give the result at the appropriate time; therefore vishvato mukha; the face turned in all directions.
So, whenever we read literature in both prose and poetry form, or when we contemplate the results of our actions, we should always realize that it is Ishvara working through all of them.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कोई भी संवाद बिना भाषा के सम्भव नही, अभिव्यक्ति चेहरे से, शरीर से एवम आचरण से हाव भाव या मनोदशा से व्यक्त तो की जा सकती है किंतु बिना संवाद के वो भी पूर्ण रूप से व्यक्त नही होती। फिर उस को विभिन्न स्थानों अपनी बात रखने एवम संजो कर रखने के लिए भाषा का सब से ज्यादा महत्व है। हिंदी की देवनागरी में स्वर एवम व्यंजन वर्ण है। यह संस्कृत से उत्पन्न है। जिस में किसी भी व्यंजन को बिना ‘अ’ के साथ व्यक्त नहीं किया जा सकता।
मैं अक्षरों में अकार हूँ यह सर्वविदित तथ्य है कि भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता। सभी भाषाओं में संस्कृत की विशेष मधुरता उस में किये जाने वाले अकार के प्रयोग की प्रचुरता के कारण है। वस्तुत प्रत्येक व्यंजन में अ जोड़कर ही उसका उच्चारण किया जाता है। यह अ मानो उस में स्निग्ध पदार्थ का काम करता है, जिस के कारण नाद की कर्कशता दूर हो जाती है। इस अ के सहज प्रवाह के कारण शब्दों के मध्य एक राग और वाक्यों में एक प्रतिध्वनि सी आ जाती है। किसी सभागृह में संस्कृत मन्त्रों के दीर्घकालीन पाठ के उपरान्त, संवेदनशील लोगों के लिए एक ऐसे संगीतमय वातावरण का अनुभव होता है, जो मानव मन के समस्त विक्षेपों को शान्त कर सकता है। प्रत्येक अक्षर का सारतत्त्व अकार है वह शब्दों और वाक्यों की सीमाओं को लांघकर वातावरण में गूंजता है और सभी भाषाओं की वर्णमालाओं में वह प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित है। अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। पद्म पुराण में एवम पराशर भट्ट ने अष्टश्लोकी ग्रंथ में लिखा है ‘ अकारार्थो विष्णु:’ अर्थात अकार का अर्थ विष्णु है। अतः भगवान भी यहाँ ‘अ’ को अपनी विभूति कहते है।
“अ” का उच्चारण स्वत: ही मुख के खोलने से ही होता है क्योंकि मुख के खोलने से जो वायु आती या जाती है, उस के साथ ही अ की ध्वनि भी उत्पन्न होती है। इसलिए प्रत्येक व्यंजन में अ जुड़ा है।
प्रणव अक्षर ॐ का प्रथम अ ही ओंकार स्वरूप है। यह ‘अ’ मैं ही हूँ।
यद्यपि संस्कृत ऐसी प्राचीन भाषा है जो अति परिष्कृत और सशक्त है। संस्कृत भाषा की सामान्य प्रक्रिया में एकल शब्दों को मिलाकर समास शब्द बनाए जाते हैं। जब दो या अधिक शब्द अपने सम्बन्धी शब्दों या विभक्तियों को छोड़कर एक साथ मिल जाते हैं तब उनके इस मेल को समास कहते हैं। समास द्वारा मिले हुए शब्दों को सामासिक शब्द अथवा समास पद कहा जाता है। प्रमुख रूप से छः प्रकार के समास हैं-1. द्वन्द, 2. बहुब्रीहि, 3. कर्मधारय, 4. तत्पुरुष, 5. द्विगु, 6. अव्यवीभाव।
दो शब्दों के समास में यदि पहला शब्द प्रधानता रखता है तो वह अव्ययी भाव समास होता है। यदि आगे का शब्द प्रधानता रखता है तो वह तत्पुरुष समास होता है। यदि दोनों शब्द अन्य के वाचक होते हैं तो वह बहुब्रीहि समास होता है। यदि दोनों शब्द प्रधानता रखते हैं तो वह द्वन्द्व समास होता है। जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। इन में से द्वन्द्व सर्वोत्तम है क्योंकि इनमें दोनों शब्दों की प्रमुखता होती है जबकि अन्य समासों में किसी एक शब्द की तुलना में दूसरे शब्द की अधिक प्रमुखता होती है या दोनों शब्दों का संयोग तीसरे शब्द का अर्थ स्पष्ट करता है। ‘राधा-कृष्ण’ यह दो शब्द द्वन्द समास का उदाहरण है।
जब आत्मा एवम परमात्मा में भेद मिट जाए एवम दोनों समान रूप से एक ही अर्थ बिना ऊंच नीच के हो, उस द्वंद समास को यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इस की रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता, परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं
तीसवें श्लोक के पदों में आये काल का अर्थ कल्प, युग, वर्ष, अयन, मास, दिन, घड़ी और क्षण अर्थात गणना किये जाने वाले काल में और यहाँ आये अक्षय काल में यही अन्तर है वहाँ का जो काल है, वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, बदलता रहता है। वह काल ज्योतिष शास्त्र का आधार है और उसी से संसार मात्र के समय की गणना होती है। काल की गति ही सृष्टि और उस के प्रत्येक जीव और जड़ की गति है। इसलिए काल के कारण ही जीव जन्म लेता और फिर बालक, युवा, वृद्ध हो कर मृत्यु को प्रदान होता है। परन्तु यहाँ का जो अक्षय काल है। टाइम मशीन की कल्पना काल की यात्रा ही है जो भूतकाल और भविष्य काल की यात्रा कर के जीव को उस के और सृष्टि के स्वरूप को दर्शा सके।
अक्षय काल जो महासर्ग से पहले और जो महाप्रलय के बाद भी विद्यमान है और समय की गणना करने वाले काल को भी अपने साथ महाप्रलय में समाप्त कर देता है। यह सनातन, शाश्वत, अनादि, अनन्त, नित्य और अक्षय परब्रह्म का स्वरूप ही है, इसलिये वह परमात्मस्वरूप होने से कभी बदलता नहीं। सामान्य भाषा मे जब बोला जाता है उस का काल आ गया, उस का अर्थ हम उस काल की करते है जो जीव की मृत्यु से करते है। यह अक्षय काल सब को खा जाता है और स्वयं ज्यों का त्यों ही रहता है अर्थात् इस में कभी कोई विकार नहीं होता। इस के अतिरिक्त जीव के विशिष्ट समय पर होने वाली समस्त घटनाओ का प्रतीक उस के विशिष्ट काल का प्रतीक है, जिस की गणना चाहे ज्योतिषी कर पाए या न कर पाए। उसी अक्षय काल जो प्रकृति और ब्रह्मांड से अतीत है, जिस की गणना नही हो सकती, उस काल को यहाँ भगवान् ने अपनी विभूति बताया है।
काल को तीन भेद 1) समय वाचक काल, 2) प्रकृति रूपी काल जो महाप्रलय के साम्यावस्था प्रकृति ही होती है 3) नित्य शाश्वत विज्ञानानन्द घन परमात्मा। सम्यवाचक स्थूल काल की अपेक्षा तो बुद्धि की समझ मे न आने वाला प्रकृति रूप काल सूक्ष्म और पर है और इस प्रकृति रूप काल से भी परमात्मा रूप काल अत्यंत सूक्ष्म, परातिपर और पराम श्रेष्ठ है, परमात्मा कहते है यही काल मै ही हूँ।
ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफल विधाता है। संस्कारों के अनुसार मनुष्य कर्म करता है जिस का नियमानुसार उसे फल प्राप्त होता है। वह सृष्टि के प्रत्येक जड़ चेतन के कार्य के फलों का हिसाब रखता है और उस के अनुसार जीव अपने कर्मो के भोग भोगने के लिए विभिन्न लोकों में जाता है और मोक्षके लिए पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है। असंख्य जीव की 84 लाख योनियों और कर्मों का पूरा लेखा जोखा रखने वाला धाता परमात्मा ही है। वह दशों दिशाओं की ओर मुख रखता है, इसलिए वह विश्वतोमुख है। विश्वतोमुख शब्द द्वारा यह कहा गया है कि आत्मा न केवल सब में एक है, किन्तु सब से विलक्षण भी है और वह प्रत्येक प्राणी में स्थित हुआ सर्वत्र देखता है। इस सम्पूर्ण भाव को केवल एक शब्द विश्वतोमुख में व्यक्त किया गया है।
विश्वतोमुख कह कर परमात्मा ने प्रत्येक जड़-चेतन में अपने ही स्वरूप का वर्णन किया है कि सभी ऐन्द्रिक मानसिक और बौद्धिक ग्रहणों के लिए चैतन्य आत्मा की कृपा आवश्यक है। इसलिये सब के कर्मो का फल लिखने वाले, सृष्टि की रचना करने वाले चार मुख वाले ब्रह्मा मै ही हूँ। ऐसा कहा जाता है कि चारो वेदों की रचना ब्रह्मा के चतुर्थ मुखों से हुई है, इसलिये मै ही विराट स्वरूप अर्थात सर्वत्र व्याप्त, सब को धारण, पालन पोषण करने वाला हूँ। अतः विभूति स्वरूप जन्म से लेकर धारण-पोषण करने वाला समस्त स्वरूप में एक ही परमात्मा जो जन्म से मृत्यु तक और मृत्यु के उपरांत भी, कर्म फल और मोक्ष और प्रकृति और योगमाया के द्वारा सभी प्राणी को धारण भी करते है और पोषण भी करते है।
समस्त श्रुतियो और भावनाओ को व्यक्त करने के आधार में अक्षर के मूल में, कभी भी नष्ट नही होने वाले समय में, असंख्य जीव के कर्म फलों के धाता में और जीव और ब्रह्म की समानता में जो भी हम जान सकते है, वह परमात्मा ही है।
।। हरि ॐ तत सत।।10.33।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)