Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.32 II Additional II

।। अध्याय      10.32 II विशेष II

।। आदि शंकराचार्य – वाद विवाद ।। विशेष  – गीता 10.32 ।।

आदि शंकराचार्य, संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु, तुलसीदास आदि आदि महान संत महाभारत की गीता के बाद मध्यकालीन भारत की विभूतियां है जिन्हें गीता में विभूतियों के रूप में यद्यपि स्थान नही भी मिला हो, किन्तु उन का जीवन एवं दर्शन परमात्मा की विभूति ही है। वाद- विवाद से सनातन संस्कृति को पुनः स्थापित करने में आदि शंकराचार्य के योगदान को ध्यान में रखते हुए, यह प्रसंग प्रस्तुत करना भी आवश्यक है।

भारत के इतिहास में एक ऐसा भी समय आया है जब देश में धर्म और अध्यात्म के नाम पर अराजकता फैल रही थी। चार्वाक, लोकायत, कापालिक, शाक्त, सांख्य, बौद्ध, माध्यमिक तथा अन्य बहुत से सम्प्रदाय और शाखाएं बन गई थी। इस प्रकार के सम्प्रदायों की संख्या लगभग 72 हो गई थी। सब आपस में एक दूसरे के विरोधी थे। कहीं कोई शान्ति नहीं। अनाचार, अन्धविश्वास, द्वन्द और संघर्ष का बोलबाला था। लगता था हर तीसरे व्यक्ति का अपना दर्शन, अपना सिद्धान्त और अपना अनुगामी दल है। आध्यात्मिक क्षेत्र में हुए ऐसे पतन के समय शंकराचार्य का अवतरण हुआ।

आदि शंकराचार्य का जन्म केरल प्रदेश के कालडी नाम के गांव में सन् 788 में हुआ। यह गांव कल- कल करती सदानीरा पेरियार नदी के किनारे है। परिवार में काफी समय तक कोई बच्चा न होने के कारण शंकर का जन्म परिवार के लिए अत्यधिक प्रसन्नता दायक था। कहते हैं शंकर की माता आर्यम्बा के स्वप्न में साक्षात भगवान शंकर ने दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया कि वे स्वयं उनकी कोख से जन्म लेंगे। इसी कारण से नवजात शिशु का नाम शंकर रखा गया। बालक शंकर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे और इन्होंने बालपन में ही वेद, पुराण, वेदांग, उपनिषदों आदि का अध्ययन कर लिया था। साथ ही इन की रूचि अन्य धर्मों और सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों को पढ़ने में भी थी।

बचपन से ही इन्हें प्राकृत, अवधी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान था। ‘‘माधवैय शंकर विजया’’ नामक पुस्तक के अनुसार बालक शंकर ने एक वर्ष की आयु में संस्कृत, दो वर्ष की आयु में अपनी भाषा मलयालम और तीन वर्ष की आयु में पढ़ना सीख लिया था। बालपन से ही काव्य और पुराणों में इन की रूचि थी। पांच वर्ष की आयु में इन का उपनयन संस्कार हुआ। कहते हैं एक बार संस्कृत कालिज में चतुश्पाठी विद्यार्थी और उनके गुरू किसी तर्क- वितर्क में संलग्न थे। पांच वर्षीय बालक शंकर उस वाद-विवाद को सुन रहे थे। किसी को भी इस बात का ज्ञान नहीं था कि एक छोटा सा बालक उन की बातें सुन रहा है। लेकिन बालक अधिक देर तक शान्त नहीं बैठ सका। गुरु- शिष्यों के संवाद के बीच अचानक हस्तक्षेप कर उसने अपना मत रखा। वे सभी हतप्रभ थे। उसने कहा कि वह काफी समय से उन की बातचीत सुन रहा था परन्तु एक बिन्दु पर आकर वह स्वयं को रोक नहीं सका क्योंकि आप दोनों ही अपने-अपने तर्कों से विमुख हो रहे थे। मैंने इस विषय पर एक समन्वित पक्ष आपके सामने रखा है। यह थी पांच वर्ष के बालक की प्रतिभा।

जब ये सात वर्ष के थे कि इन के पिता का देहान्त हो गया और आठ वर्ष की आयु में ये सन्यासी हो गये। इन के सन्यास लेने की कथा भी विचित्र है। कहते हैं एक दिन शंकर अपनी माता के साथ पेरियार नदी में स्नान के लिए गए। वहां इन का पैर फिसल गया और इन्हें लगा कि एक मगरमच्छ ने इन की टांग पकड़ ली है। ये वहीं से ज़ोर से चिल्लाये, ‘‘मां, मुझे मगरमच्छ खींच रहा है, यह मुझे खा जायेगा, मुझे सन्यासी बन जाने की आज्ञा दे दें। मैं सन्यासी बनकर मरना चाहता हूं।’’ माता के सामने और कोई विकल्प नहीं था। उसने हां कर दी। शंकर ने नदी में ही अपथ- सन्यास की दीक्षा अपने मन ही मन में ली। अवश्यम्भावी मृत्यु के समय लिए गए सन्यास को अपथ सन्यास कहते हैं। कहते हैं, मगरमच्छ ने इन्हें तुरन्त छोड़ दिया। ये पानी से बाहर आये, सन्यासी बन ही गए थे। अपनी माता को अपने सम्बन्धियों की देखभाल में छोड़ कर ये देशाटन के लिए निकल गये।

घूमते-घूमते शंकर हिमालय में बदरीनाथ पहुंच गए और उन्होंने वहां स्वामी गोविन्दपाद आचार्य से भेंट की। शंकर को लगा – ये ही उसके वास्तविक गुरु हैं। शंकर ने उनके चरण स्पर्श किए स्वामी ने शंकर से पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’ शंकर ने कहा, ‘‘गुरुदेव, न तो मैं अग्नि हूं, न वायु, न मिट्टी, न पानी, मैं एक सनातन आत्मा हूं जो सर्व व्याप्त है।’’ शंकराचार्य की यह रचना शिवाष्टक के रूप में उपलब्ध है। गोविन्दाचार्य जी इस उत्तर से अत्यन्त प्रसन्न हुए और शंकर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। गुरु ने शंकर को अद्वैतवाद की शिक्षा दी और बाद में उसे काशी जाने का आदेश दिया।

काशीवास शंकर के लिए वरदान सिद्ध हुआ। काशी प्रवास में ही इन्हें भगवान विश्वनाथ के साक्षात दर्शन हुए। भगवान विश्वनाथ ने इन्हें आशीर्वाद दिया और आज्ञा दी कि वेदान्त शास्त्रों पर भाष्य की रचनाकर सनातन धर्म की रक्षा करो। भगवान विश्वनाथ की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर इन्होंने प्रस्थानत्रयी भाष्यों की रचना की। यहां रहकर उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषदों की व्याख्याएं लिखी। अनेक स्तोत्रों की रचना की जिनमें शिवभुजयं, शिवानन्द लहरी, शिवपादादि के शान्तस्तोत्र, वेदसार शिवस्तोत्र, शिवपराधक्षमापनस्तोत्र, दक्षिणामूर्ति अष्टक, मृत्युंजयमानसिकपूजा, शिव पंचाक्षरस्तोत्र, द्वादशलिंगस्तोत्र, दशशलोकी स्तुति आदि उल्लेखनीय हैं। यही समय था जब शंकर शंकराचार्य बन गए और इन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा और सनातन धर्म की पुनःस्थापना की। बड़े-बड़े विद्वानों से शास्त्रार्थ किए और उन सबको अपने दृष्टिकोण की ओर मोड़ा। उन्होंने भास्कर भट्ट, दण्डी, मयूरा हर्ष, अभिनव गुप्ता, मुरारी मिश्रा, उदयनाचार्य, धर्मगुप्त, कुमारिल, प्रभाकर आदि मूर्धन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया।

इस के बाद उन की भेंट महिष्मति के मण्डन मिश्र से हुई। मण्डन मिश्र कर्म मीमांसा के विद्वान थे और सन्यासियों के प्रति उन के मन में एक प्रकार की घृणा थी। जब शंकराचार्य मण्डन मिश्र से मिले, उस समय वे अन्य विद्वानों से घिरे बैठे थे। शंकराचार्य और मण्डन मिश्र में किसी धार्मिक विषय पर वाद- विवाद हो गया। शंकर ने मिश्र जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। मण्डन मिश्र सहमत हो गए। निर्णायक के रूप में उपस्थित विद्वानों ने मण्डन मिश्र की पत्नी उदया भारती को चुना जो विदुषी थी। निश्चित हुआ कि यदि शंकर हार गए तो वे गृहस्थ हो जाएंगे और यदि मण्डन मिश्र हार गए तो वे सन्यासी हो जाएंगे। शास्त्रार्थ 17 दिन तक चला। मण्डन मिश्र की पत्नी ने निर्णायक की भूमिका में दोनों विद्वानों के गले में एक-एक माला डाल दी और कहा, ‘‘जिस किसी की माला के फूल पहले मुरझाने लगे तो वह स्वयं को पराजित मान लें।’’ यह कहकर वो अपने घर के कामकाज में व्यस्त हो गई। सत्रहवें दिन मण्डन मिश्र की माला के फूल मुरझाने लगे। उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली।

लेकिन, ‘‘नहीं – अभी नहीं।’’ उदया भारती ने यह पराजय स्वीकार नहीं की। उन्होंने शंकर से कहा, ‘‘मैं मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी हूं। आपने अभी मण्डन के अर्धभाग को पराजित किया है, अभी आपने मुझ से शास्त्रार्थ करना है।’’ शंकर ने महिला से शास्त्रार्थ करने से मना किया। भारती ने अनेक उदाहरण दिए जहां महिलाओं ने शास्त्रों और अध्यात्म का अध्ययन किया था। शंकर अनिच्छा से भारती से शास्त्रार्थ के लिए सहमत हुये। इस बार फिर शास्त्रार्थ की प्रक्रिया 17 दिन तक चली। अन्त में जब भारती को लगा कि शंकर को पराजित करना कठिन है, तब उन्होंने कामशास्त्र का सहारा लिया। उन्होंने शंकर से कामशास्त्र सम्बंधी प्रश्न पूछने शुरू किये।

शंकर ने पहले इसमें आनाकानी की। भारती अपनी जिद्द पर अड़ी रही। अन्ततः शंकर ने एक महीने का समय मांगा क्योंकि वे इस ज्ञान से अनभिज्ञ थे। शंकर काशी गए। वहां योग विद्या से अपने शरीर को छोड़ा। अपने शिष्यों से अपने शरीर की रक्षा करने का कहा और स्वयं एक सद्यमृत राजा अमरूक के शरीर में प्रवेश कर गए। राजा जीवित हो गया। यद्यपि राजा के रूप में जीवित व्यक्ति के कर्म, गुण, व्यवहार वास्तविक राजा से भिन्न थे। फिर भी वे राजा के रूप में राजगृह में रहे। गृहस्थ जीवन, पारिवारिक व्यवहार और दाम्पत्य रहस्यों को समझा। वे एक महीने बाद पुनः अपने चोले में आ गए और लौटकर उन्होंने मण्डन मिश्र की पत्नी से फिर शास्त्रार्थ करने के लिए कहा। अब वे उन के काम शास्त्र सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने के लिए तैयार हो गए, परन्तु मण्डन मिश्र और भारती ने पराजय मान कर शंकर का नमन किया। शंकर ने मण्डन मिश्र का नामकरण सुरेश्वराचार्य किया और उन्हें श्रृंगेरी मठ का भार सौंप दिया।

इन के बालपन से ही जुड़ी एक और अलौकिक घटना इस प्रकार है। इनकी माता का नियम था कि प्रतिदिन प्रातः नदी में स्नान किए बगैर कुछ भी खाना-पीना अनास्था है। एक दिन इनकी माता नदी स्नान करने गई तो वे काफी समय तक लौटी नहीं। प्रतीक्षा करने के बाद बालक शंकर माता को ढूंढने निकले। रास्ते में देखा कि इनकी माता अधमरी-सी सड़क पर लेटी हैं। इन्होंने माता को उठाया, उन्हें स्नान कराया और धीरे-धीरे घर ले आये। उसी दिन निश्चय किया कि यदि माता नदी तक जाने में असमर्थ हैं तो क्यों नहीं नदी को गांव तक लाया जाये। प्राचीन समय में भगीरथ ने भी तो ऐसा ही किया था। बालक शंकर ने हृदय से अभ्यर्थना की और अन्ततः नदी ने अपना रूख शंकर के गांव की ओर, नहीं, उनके घर की ओर मोड़ दिया। शंकर की माता गद्गद थी। आज भी नदी इनके घर के पास से उसी प्रकार बहती है।

शंकराचार्य को हिन्दू, बौद्ध तथा जैन मत के लगभग 80 प्रधान सम्प्रदायों के साथ शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होना पड़ा था। हिन्दू धर्मावलम्बी लोग यथार्थ वैदिक धर्म से विच्युत होकर अनेक संकीर्ण मतवादों में विभक्त हो गए थे। आचार्य शंकर ने वेद की प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा की और हिन्दु धर्म के ‘‘सभी मतवादों का संस्कार कर जनसाधारण को वेदानुगामी बनाया। वेद का प्रचार उनका अन्यत्र प्रधान अवदान है। शंकर को वेदान्त के अद्वैतवाद सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने अनेक शास्त्रों का भाष्य लिखा। इनके अद्वैतवाद के अनुसार संसार का अन्तिम सत्य ‘दो नहीं’ एक होता है। इसी का नाम ब्रह्म है। ‘एकमेव हि परमार्थसत्यं ब्रह्म।’ अर्थात् ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्य है। यही एक सत्य है शेष सभी असत्य है। शंकर ने हिन्दुत्व को पौराणिक धर्म से मोड़कर उपनिषदों की ओर उन्मुख कर दिया। 1200 वर्ष पूर्व के उस अस्त-व्यस्त बौद्धिक वातावरण में यह कार्य कितना कठिन साध्य था, इसका अनुमान लगाना भी सम्भव नहीं है।

इनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण परन्तु सबसे छोटा ग्रंथ है ‘भज गोविन्दम्’। इसमें वेदान्त के मूल आधार की शिक्षा अत्यंत सरल गेय शब्दों में दी गई है। इसके श्लोकों की लय अत्यधिक मधुर है और इन्हें सरलता से याद किया जा सकता है। इसमें मात्र 31 श्लोक हैं। इसकी गणना भक्तिगीतों में की जाती है। इनमें पहले बारह श्लोक ‘‘द्वादष मंजरिका स्तोत्रम’’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका अर्थ है बारह श्लोक रूपी फूलों का गुच्छा। चौदह श्लोक ‘‘चतुर्दश मंजरिका स्तोत्रम्’ के नाम से विख्यात हैं। आचार्य के प्रत्येक शिष्य ने एक-एक श्लोक को गुरु प्रेरणा के रूप में कहा। इसके बाद आचार्य शंकर ने पुनः चार श्लोकों के माध्यम से सभी सच्चे साधकों को आशीर्वाद दिया। पहला श्लोक टेक रूप में है।

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्

गोविन्दम भज मूढमते।

सम्प्राप्ते सान्निहिते काले

न हि न हि रक्षति डुकृकरणें।

सभी ग्रंथों की रचना के पीछे उनका एक ही भाव था कि मनुष्य को ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त करने का मार्ग स्पष्ट दिखायी देना चाहिए। अद्वैत को प्रमुखता देते हुए भी शंकर ने शिव, विष्णु, शक्ति और सूर्य पर स्तोत्र लिखे। इनका आग्रह समाज में समन्वय लाने का था। इन्हें आध्यात्मिक सुधारक भी माना जाता है क्योंकि शाक्त मन्दिरों में बलि देने की प्रथा का इन्होंने विरोध किया।

बदरिकाश्रम, द्वारका, जगन्नाथपुरी और श्रृंगेरी देश की चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना का काम सबसे अहम था। इस तरह से देश की भौगोलिक एकता को प्रत्यक्ष करने का गम्भीर कार्य शंकराचार्य ही कर सकते थे। इन मठों के अध्यक्ष आचार्य श्री शंकराचार्य के नाम से ही जाने जाते हैं। शंकर ने देश के घुमक्कड़ साधुओं और सन्तों को एकत्र कर दस प्रमुख समूहों में एकत्रित किया। प्रत्येक मठ को इन्होंने एक- एक वेद का उत्तरदायित्व सौंपा – बदरिकाश्रम के ज्योतिर्मठ को अथर्ववेद दिया, श्रृंगेरी के शारदापीठ को यजुर्वेद, जगन्नाथपुरी के गोवर्धनमठ को ऋग्वेद और द्वारका के कलिका मठ को सामवेद सौंपा।

ब्रह्मसूत्र, श्रीमदभगवद्गीता और उपनिषदों के भाष्य, शंकराचार्य ने कहते हैं, श्री बदरीनाथ की व्यास गुफा और ज्योर्तिमठ की गुफा में रहते हुए लिखे थे। इन्हें प्रस्थानत्रयी भी कहते हैं। ज्योर्तिमठ में इन्हें दिव्य ज्योतिर्मठ के दर्शन हुए। स्वामी अपूर्वानन्द ने अपनी पुस्तक ‘आचार्य शंकर’ में आचार्य के जीवन की अनेक अलौकिक और चमत्कारिक घटनाओं का उल्लेख किया है। प्रदेश के राजा राजशेखर शंकर के बालपन से इनसे प्रभावित थे और समय रहते वे इनके परम शिष्य हो गए। राजा राजशेखर एक साहित्यिक व्यक्ति थे और साहित्य रचना ही उनकी रूचि थी। एक बार काफी समय बाद राजा और शंकर की जब भेंट हुई तो शंकराचार्य ने उनसे उनकी साहित्यिक गतिविधियों के बारे में चर्चा की। राजा ने अत्यंत खिन्न स्वर में उत्तर दिया कि ‘‘उन्होंने अब साहित्यिक गतिविधियां समाप्त कर दी हैं क्योंकि कुछ समय पूर्व ही उनके तीन नाटक, संभवतः इश्वर शाप के कारण, अग्नि में भस्मीभूत हो गए हैं। इस चोट के कारण अब मेरा कुछ लिखने का मन नहीं करता।’’ शंकर भी यह सुनकर अत्यंत क्षुब्ध हुए। उन्होंने कहा, ‘‘आपका कष्ट मैं समझता हूं क्योंकि ग्रंथकार के लिए ग्रंथ उसकी सनातन के समान होते हैं। यह आपकी मानस सृष्टि थी। आपने ये तीनों नाटक मुझे पढ़कर सुनाये थे। मुझे तीनों ही नाटक आदि से अन्त तक अक्षरषः याद हैं। आप चाहें तो उन्हें मुझसे लिख कर पुनरूद्धार कर सकते हैं।’’ राजा को इससे आश्चर्य हुआ और प्रसन्नता भी हुई। राजा ने पुलकित होकर कहा, ‘‘आचार्य, कृपया सुनायें, मैं लिपिक बुलाता हूं, वह लिख लेगा।’’ कुछ ही दिनों में तीनों नाटक पुनः लिख लिए गए। राजा ने पढ़ा और देखा कि यह उनकी रचना की अविकल पुनःस्थापना थी। आनन्द, विस्मय और कृतज्ञता से राजा ने बार-बार आचार्य को प्रणाम किया। यह आचार्य की अलौकिक स्मरण शक्ति का चमत्कार था।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य बहुत कम आयु में ही ऐसे संत-विद्वान-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे कि उनकी कीर्ति पताका आज तक फहरा रही है। उनके मठ-शिक्षा केन्द्र आज भी विराजमान हैं और ज्ञान-धन से समृद्ध हैं। उनके हजारों शिष्य थे, जिनमें से चार शिष्यों को उन्होंने जगदगुरु शंकराचार्य बनाया। उनके एक परम प्रिय शिष्य थे सनन्दन, जो गुरु के ज्ञान में आकंठ डूबे रहते थे। सनन्दन को गुरु पर अटूट विश्वास था। एक बार सनन्दन किसी काम से अलकनन्दा के पार गए हुए थे। आदि शंकराचार्य अपने दूसरे शिष्यों को यह दिखाना चाहते थे कि सनन्दन उन्हें क्यों ज्यादा प्रिय हैं। उन्होंने तत्काल सनन्दन को पुकारा, सनन्दन शीघ्र आओ, शीघ्र आओ। अलकनन्दा के उस पर आवाज सनन्दन तक पहुंची, उन्होंने समझा गुरुजी संकट में हैं, इसलिए उन्होंने शीघ्र आने को कहा है। वे भाव विह्वल हो गए। नदी का पुल दूर था, पुल से जाने में समय लगता। गुरु पर अटूट विश्वास था, उन्होंने गुरु का नाम लिया और तत्क्षण जल पर चल पड़े। नदी पार कर गए। आदि शंकराचार्य ने प्रभावित होकर उनका नाम रखा – पद्मपाद। पद्मपाद बाद में गोवद्र्धन मठ पुरी के पहले शंकराचार्य बने।

उनके दूसरे परम शिष्य मंडन मिश्र उत्तर भारत के प्रकाण्ड विद्वान थे, जिनको शास्त्रार्थ में आदि शंकराचार्य ने पराजित किया था। मंडन मिश्र की पत्नी उभयभारती से आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ जगत प्रसिद्ध है। यहां सिद्ध हुआ कि अध्ययन और मनन ही नहीं, बल्कि अनुभव भी अनिवार्य है। अनुभव से ही सच्चा ज्ञान होता है। मंडन मिश्र को उन्होंने सुरेश्वराचार्य नाम दिया और दक्षिण में स्थित शृंगेरी मठ का पहला शंकराचार्य बनाया।

एक गांव में प्रभाकर नामक प्रतिष्ठित सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उन्हें केवल एक ही बात का दुख था कि उनका एक ही पुत्र पृथ्वीधर जड़ और गूंगा था। लोग उसे पागल भी समझ लेते थे, बच्चे उसकी पिटाई करते थे, लेकिन वह कुछ न कहता था। परेशान माता-पिता पृथ्वीधर को आदि शंकराचार्य के पास ले गए और बालक को स्वस्थ करने की प्रार्थना की। आदि शंकराचार्य ने कुछ सोचकर उस बालक से संस्कृत में कुछ सवाल किए। चमत्कार हुआ, बालक भी संभवत: ऐसे प्रश्न की प्रतीक्षा में था, उसने संस्कृत में ही बेजोड़ जवाब दिए। गुरु ने एक जड़ से दिखने वाले बच्चे में भी विद्वता को पहचान लिया था, उन्होंने उस बालक को शिष्य बनाते हुए नया नाम दिया – ‘हस्तामलक। हस्तामलक ही बाद में भारत के पश्चिम में स्थित शारदा पीठ-द्वारकाधाम के प्रथम शंकराचार्य बने।

शृंगेरी में निवास करते समय आदि शंकराचार्य को गिरि नामक एक शिष्य मिला। वह विशेष पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन आज्ञाकारिता, कर्मठता, सत्यवादिता और अल्पभाषण में उसका कोई मुकाबला न था। वह गुरु का अनन्य भक्त था। एक दिन वह गुरुजी के कपड़े धोने गया, उधर आश्रम में कक्षा का समय हो गया, बाकी शिष्य आदि शंकराचार्य से अध्ययन प्रारम्भ करने को कहने लगे, जबकि गुरुजी गिरि की प्रतीक्षा करना चाहते थे। कुछ शिष्यों ने गिरि के ज्ञान और उसके अध्ययन की उपयोगिता पर प्रश्न खड़े किए, तो आदि शंकराचार्य को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने गिरि को तत्क्षण व्यापक ज्ञान उपलब्ध कराकर असीम कृपा की और यह प्रमाणित कर दिया कि अनन्य गुरु भक्ति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। गिरि को उन्होंने तोटकाचार्य नाम दिया और बाद में उत्तर में स्थापित ज्योतिर्पीठ का प्रथम शंकराचार्य बनवाया।

जीवन भर वैदिक धर्म की पुनप्र्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने जो प्रयत्न किए, उन्हें भविष्य में क्रियाशील रखने का प्रबन्ध करके उन्होंने 32 वर्ष की अल्पायु में महाप्रस्थान करने का निश्चय किया। अपने शिष्यों के साथ केदारधाम पहुंचे और उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘वत्स, इस शरीर का कार्य समाप्त हो गया है। अब स्वरूप में लीन होने का समय आ गया है। तुम लोगों को कुछ ज्ञातव्य हो तो पूछ लो।’’ परमशिष्य पद्मपाद ने सजल नयनों से कहा, ‘‘हे देव, आप की कृपा से हम लोग कृतकृत्य तथा सफल मनोरथ है।’’ शिष्यों को आशीर्वचन देते हुए शंकराचार्य ने स्वर्गारोहण किया।

इस अपूर्व विचारक, ब्रह्मज्योति से देदीप्यमान, दर्षनाचार्य, दैवीय प्रतिभा युक्त, युगद्रष्टा आचार्य को हमारा शत शत नमन।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 10.32 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply