।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.31 II
।। अध्याय 10.31 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.31॥
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥
“pavanaḥ pavatām asmi,
rāmaḥ śastra-bhṛtām aham..।
jhaṣāṇāḿ makaraś cāsmi,
srotasām asmi jāhnavī”..।।
भावार्थ:
मैं समस्त पवित्र करने वालों में वायु हूँ, मैं सभी शस्त्र धारण करने वालों में राम हूँ, मैं सभी मछलियों में मगर हूँ, और मैं ही समस्त नदियों में गंगा हूँ। (३१)
Meaning:
Among the purifiers I am the wind and among the weapon wielders I am Raama. Among the sea creatures I am the crocodile and among the rivers I am Ganga.
Explanation:
Shri Krishna begins this shloka with the topic of purification. He says that wind is the foremost expression of Ishvara among all of the purifiers in the world.
In nature, wind performs the work of purification very effectively. It converts impure water into water vapor; it carries away the dirty smells of the earth; it makes fire burn by fuelling it with oxygen. It is thus the great purifier of nature. We know this from experience. Deep inhalation and exhalation remove several toxins from the body. If a room has been locked in a long time, the first thing we do is to open the window.
Lord Raama is also known as “Kodanda Paani”, the wielder of weapons. Among all of the weapon wielders in the world, Lord Raama is the foremost. This is because although he was adept at wielding several types of weapons, he only used them as a last resort when no other methods of diplomacy worked. In the Raamayana, we can see numerous instances when he killed Rakshasaas after they did not heed his warning.
we have to use four upāyās; sāma, dhāna, bhēda and dhanda; sāma, dhāna bhēda are non-violent methods of protecting dharma; and we should attempt initially to protect dharma by non-violent method only and if non-violent methods fail; ultimately we will have to use violent method and violence for dharma rakṣṇam is not wrong. Not only it is not wrong; it is right; and not only it is right, but that alone is also right.
For Kṣatriya, dharma yuddham is a duty. Dharma yuddham produces puṇyam; and if a person takes to dharma yuddha; he will attain only veera svarga and never pāpam and naragam. And not only Krishna advised Arjuna to take to dharmayuddha; all our gods wield weapons only for the sake of dharma rakṣanam.
Therefore, Lord should wield weapon to destroy the external enemy as well as the internal enemy. And all Gods are great; but here Krishna says among the weapon wielders, I am Rāmaḥ; Rāma is the greatest God among śastrabhṛt; And Rāma has got what bow, I told you, Khōdandapāṇi; So Sastrabhr̥tām Rāmaḥ aham.
Now, just like we saw power and majesty in the Lion, we see power and majesty in the giant whale and the crocodile. “Makara” refers either to crocodile or the giant whale. Both of these are powerful sea creatures. Shri Krishna says that among the sea creatures, Ishvara’s foremost expression is the Makara.
Among the rivers, Ishvara is Jaahnavi or Ganga. Jaahnavi refers to the daughter of sage Jahnu. It is said that the Ganga’s turbulent waters disturbed the meditation of sage Jahnu. Angered, he drank her, and only released her when the gods prayed to him. Furthermore, knowledge, just like the river Ganga, flows from a higher plane to a lower plane, and is perennial. Also, knowledge purifies, just like a river purifies.
The Ganges is a holy river that has its beginning from the divine feet of the Lord. It descended on earth from the celestial abodes. Many great sages have performed austerities on its banks, adding to the holiness of its waters. Unlike normal water, if water from the Ganges is gathered in a vessel, it does not putrefy for years. This phenomenon was very pronounced earlier but has reduced in intensity in modern times because of the millions of gallons of pollutants being poured into the Ganges.
So, whenever we feel the wind, when we see weapons used justly, when we behold the giant whale or the mighty river, we should know that all these are Ishvara’s manifestations.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मैं पवित्र कर्त्ताओं में वायु हूँ किसी स्थान की स्वच्छता के लिए सूर्य और वायु के समान प्रभावशाली अन्य कोई स्वास्थयकर और अपूतिक (घाव को सड़ने से रोकने वाली औषधि) साधऩ उपलब्ध नहीं है। यदि यहाँ केवल वायु का ही उल्लेख किया गया है, तो उस का कारण यह है कि महर्षि व्यास जानते थे कि सूर्य की उष्णता में ही वायु की गति हो सकती है। जहाँ सदा वायु बहती है, वहाँ सूर्य का होना भी सिद्ध होता है। किसी गुफा में न सूर्य का प्रकाश होता है और न वायु का स्पन्दन। यहां बहती पवन को परमात्मा अपनी विभूति कहते है क्योंकि पवित्र बहती पवन मन, आत्मा एवम प्रकृति को न केवल सौंदर्य प्रदान करती है, वरन जीवन को भी संचालित करती है।
भारतीय अनुभूति में सृष्टि पांच महाभूतों (तत्वों) से बनी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच महाभूत हैं। इनमें ‘वायु’ को प्रत्यक्ष देव कहा गया है। वायु प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्म भी। विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोष ‘ऋग्वेद’ में स्तुति है ‘नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।’ ‘तन्मामवतु’ -वायु को नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्म है, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें। ‘ऋग्वेद’ का यही मन्त्र ‘यजुर्वेद’ , ‘अथर्ववेद’, व ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ में भी जस का तस आया है। सभी जीवों में प्राण की सत्ता है, प्राण नहीं तो जीवन नहीं। प्राण वस्तुतः वायु है। प्राण वायु को आत्मतत्व भी माना गया है।
वैदिक पूर्वज वायु को देवता जानते हैं, उसे बहुवचन ‘मरूद्गण’ कहते हैं। वायु प्राण है, अन्न भी प्राण है। अन्न का प्राण वर्षा है। वायुदेव/मरूतगण वर्षा लाते हैं। ‘ऋग्वेद’ में मरूतों की ढेर सारी स्तुतियां हैं। ऋषियों का भाव बोध गहरा है। वायु प्राण है, वायु जगत् का स्पंदन है। ऋषियों की दृष्टि मेें वे देवता हैं इसीलिए वायु का प्रदूषण नहीं करना चाहिए। वे जीवन है, जीवन दाता भी हैं। वाुय से वर्षा है, वायु से वाणी है। कण्ठ और तालु में वायु संचार की विशेष आवृत्ति ही मन्त्र है। गीत-संगीत के प्रवाह का माध्यम वायु हैं। गंध-सुगंध और मानुष गंध के संचरण का उपकरण भी वायु देव हैं। वायु नमस्कारों के योग्य हैं।
शरीर और प्राण-वायु का संयोग जीवन है, दोनो का वियोग मृत्यु है। वाग्भट्ट ने ठीक कहा है वह विश्वकर्मा, विश्वात्मा, विश्वरूप प्रजापति है। वह सृष्टा, धाता, विभु, विष्णु और संहारक मृत्यु है। ‘चरक संहिता’ में कहते हैं वह भगवान (परम ऐश्वर्यशाली) स्वयं अव्यय हैं, प्राणियों की उत्पत्ति व विनाश के कारण है, सुख और दुख के भी कारण हैं, सभी छोटे बड़े पदार्थो को लांघने वाले हैं, सर्वत्र उपस्थित हैं। यहां आगे शरीर के भिन्न अंगों में प्रवाहित 5 वायु का वर्णन है। फिर इनसे जुड़े रोगों का विस्तार से विवेचन है। भारतीय मनीषा से वायु को समग्रता में देखा और प्रतीकों में गाया। परम बलशाली हनुमान पवनपुत्र हैं। लंकादहन में यों ही 49 पवन नहीं चले थे। बेशक भारतीय ग्रन्थों में काव्य का प्रवाह है लेकिन कौन इंकार करेगा कि वायु का प्रदूषण हजारों रोगों की जड़ है। प्राणवायु के लिए ही लोग सुबह-सुबह टहलने निकलते हैं, जहां वायु सघन है, वहां के जीवन में नृत्य है। जंगलों में वायु सघन है। भारत का अधिकांश प्राचीन ज्ञान वनों/अरण्यों में ही पैदा हुआ था।
वायु देव के अध्ययन और उपासना पर भी हमारे पूर्वजों ने बड़ा परिश्रम किया था। अध्ययन चिन्तन की भारतीय दृष्टि में वायु प्रकृति की शक्ति है। उन्होंने वायु का अध्ययन एक पदार्थ की तरह किया है। भारतीय दृष्टि में वे सृष्टि निर्माण के पांच महाभूतों से एक महाभूत हैं, उनका अध्ययन जरूरी है लेकिन दिव्य शक्ति की तरह उनको प्रणाम भी किया जाना चाहिए। ‘ऋग्वेद’ के ऋषि मरूद्गणों का जन्म, स्वभाव वर्षा लाने का उनका काम ठीक से जाना चाहते हैं लेकिन नमस्कारों के साथ। यूरोपीय विद्वान सूर्य का भी अध्ययन कर रहे हैं, भारतीय ऋषि सूर्य का अध्ययन उनसे ज्यादा कर चुके हें। सूर्य यहां देवता हैं, तेजोमय सविता हैं, सो तत्सवितुर्वरेण्य है। ‘चरक संहिता’, ‘आयुर्विज्ञान’ का आदरणीय महाग्रन्थ है। इसके 28वें अध्याय (श्लोक 3) में आत्रेय ने बताया है – ‘वायुरायुर्बलं वायुर्वायु र्धाता शरीरिणाम’। वायु ही आयु है। वायु ही बल है, शरीर को धारण करने वाले भी वायु ही हैं। कहते हैं यह संसार वायु है, उसे सबका नियन्ता गाते है – ‘वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुवायुश्च कीर्तितः।’ यहां ‘कीर्ततः’ शब्द ध्यान देने योग्य है। अर्थात् वायु को सर्वशक्तिमान बताने की परम्परा पुरानी है, पहले से ही गायी जा रही है।
पंच महाभूत में वायु तत्व को पवित्र करने वाला कहने का उद्देश्य यही है, समस्त सृष्टि में वायु से प्रदूषण का हरण होता है। वायु प्रत्येक जीव का प्राण है जो उस मे पाचन, ऊर्जा, एवम क्रियाशीलता का संचालन करती है, अग्नि पवन से सहयोग से जलती है, वर्षा का जीवनचक्र, वनस्पति, नदिया और प्रकृति के सौंदर्य सभी का श्रेय वायु के बहते स्वरूप में है। पृथ्वी का वायुमंडल पृथ्वी की अंतरिक्ष से होने वाले उल्कापिंडों से रक्षा भी करता है। इसलिये वायु की पवित्रता को भगवान अपनी विभूति कहते है।
मैं शस्त्रधारियों में राम हूँ भारत के आदि कवि महर्षि बाल्मीकि ने एक सम्पूर्ण काव्य की छन्दबद्ध रचना के लिए रामायण के नायक मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र का चित्रण किया है। यह चित्रण अत्यन्त विस्तृत एवं विशुद्ध है, जिसमें श्री राम को जीवन के समस्त क्षेत्रों में एक पूर्ण पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीराम एक पूर्ण एवं आदर्श पुत्र, पति, भ्राता, मित्र, योद्धा, गुरु, शासक और पिता थे। सामान्य जनता के दोषों तथा अत्यन्त उत्तेजना और भ्रम उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में श्रीराम की सार्वपाक्षिक पूर्णता और भी अधिक चमक उठती है। ऐसे सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष के हाथ में ही वह योग्यता है, जो उस धनुष को धारण करे, जिसमें से सदैव अमोघ बाणों की ही वर्षा होती है। राक्षसों का वध करने वाले, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की महिमा का वर्णन करना यहां उचित नही, क्योंकि उन्हें ऐसा कौन है जो नहीं जानता। भगवान राम ने शस्त्रों का प्रयोग साधु-सज्जन और सामान्य जन के रक्षार्थ एवम शत्रु पर भी बिना किसी वैरभाव और बिना किसी अभिमान के आत्मविश्वास के साथ किया, इसलिये बल और शक्ति जो किसी की रक्षा एवम कल्याण के हेतु उठे, वह शस्त्रधारी राम को परब्रह्म अपनी विभूति कहते है।
परमात्मा का मानवीय रूप में भगवान विष्णु के सातवें अवतार में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार है, जिन्होंने मर्यादा का पाठ पढ़ाते हुए, अन्याय एवम अत्याचार का सामना किया और उसे समाप्त भी किया। राम के चरित्र और साहस यहां तक था कि उन्होंने अत्यंत बलशाली रावण का सामना वानर और भालू की सेना ले कर किया। ऐसे शस्त्रधारी राम का सामना करने लायक कोई भी योद्धा उस युग मे नही था। उन के द्वारा मर्यादा का पालन और दी हुई शिक्षा के कारण, आज भी जो जन मानस के आराध्य है, उन को अपनी विभूति बताने का एक ही अर्थ है, कि भगवान श्री कृष्ण भी परमात्मा का ही स्वरुप है। वह विभूति राम के रूप में 12 कलाओ के साथ भी प्रकट होती है और 16 कलाओ के साथ कृष्ण के रूप में भी प्रकट होती है। भगवान राम को अपनी विभूति बता कर अपने अवतार की भी पुष्टि कर दी गयी है।
धर्म की रक्षा करना प्रत्येक क्षत्रिय का कर्तव्य धर्म है। धर्म की रक्षा के लिए साम, दाम, दंड और भेद यह चार कूट नीति में कर्म करने को होते है। भगवान राम ने शस्त्रों को धारण कर के इसी नीति में धर्म की रक्षा हेतु रावण से युद्ध किया और साम से शुरू कर के दंड तक कार्य किया। युद्ध भूमि में अर्जुन के समक्ष दुर्योधन को भी इसी नीति से कार्य करते हुए, जब दंड की बारी आई तो अर्जुन द्वारा निराशा का कोई औचित्य नहीं है। उसे भी शस्त्र धारी राम के अनुसार की व्यवहार करना होगा।
आज के संदर्भ में सनातन धर्म की रक्षा के लिए और आत्म रक्षा के लिए यह संदेश गीता द्वारा प्रत्येक सनातन धर्म के लोग को समझना चाहिए, कि कैसे राम के आदर्श पर चल कर धर्म की रक्षा करे।
हिंदू पौराणिक कथाओं, के अनुसार मकर, एक मिथकीय प्राणी है और देवी गंगा और वरुण का वाहन है। यह प्रेम और वासना के हिन्दू देवता कामदेव का प्रतीक चिह्न भी है और उनके ध्वज जिसे कर्कध्वज कहा जाता है पर चित्रित है।
अपने वाहन मकर पर सवार माता गंगा परंपरागत रूप से मकर को एक जलीय प्राणी माना जाता है और कुछ पारंपरिक कथाओं में इसे मगरमच्छ से जोड़ा गया है, जबकि कुछ अन्य कथाओं में इसे एक सूंस (डॉल्फिन) माना गया है। कुछ स्थानों पर इसका चित्रण एक ऐसे जीव के रूप में किया गया है जिसका शरीर तो मीन का है किंतु सिर एक गज का. पारंपरिक रूप से मकर जल से संबंधित जीव है, वह जल जो अस्तित्व और प्रजनन का स्रोत है। ज्योतिष में, मकर, बारह राशियों में से एक है।
मैं मत्स्यों में मकर हूं, भगवान ने जलचर में मकर को अपनी विभूति बताया क्योंकि जलचर में मकर किसी भी प्राणी से ज्यादा ताकतवर है। एक पुरानी कहावत भी है कि जल में रह कर मकर से वैर नही किया जाता, अर्थात सामान्य रूप जल में मकर जल के प्राणियों में इतना शक्तिशाली माना गया है कि उसे हम जल के प्राणियों का राजा भी कह सकते है। मकर वरुणदेव, गंगा एवम नर्मदा के वाहन भी है। इसलिये अपने क्षेत्र में शक्तिशाली होने से भगवान से मकर यानि मगर को अपनी विभूति कहा है।
नदियों में जाह्नवी हूँ जह्नु ऋषि की पुत्री जाह्नवी कहलाती है, जो गंगानदी का एक नाम हैं। आख्यायिका यह है कि एक बार जह्नु ऋषि ने सम्पूर्ण गंगा नदी का पान कर उसे सुखा दिया और तत्पश्चात्, लोककल्याण के लिए उसे अपने कानों के द्वार से बाहर बहा दिया हम पहले भी देख चुके हैं कि गंगा नदी का यह रूप सांकेतिक है। हिन्दू लोग गंगा को अध्यात्म ज्ञान अथवा भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का प्रतीक मानते हैं। अपने गुरु से प्राप्त ऋषियों की ज्ञान सम्पदा को, साधक शिष्य ध्यानाभ्यास के द्वारा आत्मसात् कर लेता है यही नदी का आचमन है। ज्ञान के झरने से पान कर ज्ञानपिपासा को शान्त करना आदि वाक्यों का प्रयोग प्राय सभी भाषाओं में होता है, जिनका मूल संस्कृत भाषा है। आख्यायिका में कहा गया है कि इस नदी का उद्गम ऋषि के कानों से हुआ। वास्तव में, यह अत्यन्त सुन्दर काव्यात्मक कल्पना है, जो कान का संबंध श्रुति से स्थापित करती है। उपनिषद् ही श्रुति हैं, जिस में गुरु शिष्य के संवाद द्वारा आत्मज्ञान का बोध कराया गया है। भारत में, समय समय पर आचार्यों का अवतरण होता है, जो अपने युग के सन्दर्भ से प्राचीन ज्ञान की पुर्नव्यवस्था करते हैं परन्तु यह प्रचार कार्य वे तभी प्रारम्भ करते हैं, जब उन्होंने स्वयं वैदिक सत्य का साक्षात् अनुभव कर लिया हो। इस स्वानुभूति के बिना कोई भी श्रेष्ठ आचार्य जगत् में आकर इस प्राचीन सत्य का नवीन भाषा में प्रचार करने का साहस नहीं करेगा। गंगा के अनेक पर्यायवाची नामों में से जाह्नवी का यहाँ उल्लेख उपर्युक्त विशेष अभिप्राय को दर्शाने के लिए ही किया गया है।
कहा जाता है कि गंगा सप्तमी पर मोक्षदायिनी मां गंगा में डुबकी लगाने से दस पापों का हरण होता है। गंगा सप्तमी के दिन गंगा पूजन एवं स्नान से यश-सम्मान की प्राप्ति होती है। मां गंगा तीनों लोक देवलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक को अपने पवित्र जल से तृप्त करती हैं। स्वर्ग में मां गंगा को मंदाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं। नदियों के पवित्र नदी जो सब प्राणियों का कल्याण कर उन्हें पाप मुक्त करने के लिये स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई है, वो गंगा में मैं ही हूँ।
परमात्मा अपनी विभूति में सौम्यता, पवित्रता, वेग, गति बल को महत्व देते हुए इन सब को अपना स्वरूप बताया।
।। हरि ॐ तत सत।। 10.31।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)