Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.29 II Additional – 2 II

।। अध्याय      10.29 II विशेष -2 II

।। पितर ।। विशेष 2 – गीता 10.29 ।।

पितर के बारे में कुछ जान कारी भी हम लोगो को होनी चाहिये क्योंकि प्रायः हम सभी श्राद्ध करते ही है।

हिंदू धर्म में पितर को 84 लाख योनियों में से एक माना गया है। मान्यता है कि विभिन्न लोकों में रहने वाली ये दिव्य आत्माएं संतुष्ट होने पर व्यक्ति पर अपना आशीर्वाद बरसाती हैं, जिस से मनुष्य को धन, यश, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है और कुल की वृद्धि होती है। इस तरह से देखें तो पितृपक्ष के दौरान किया जाने वाला श्राद्ध पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता को व्यक्त करने का माध्यम है। जिस से प्रसन्न होकर पितर सुख- समृद्धि प्रदान करते हैं।

पितृपक्ष में पितरों के किए जाने वाले श्राद्ध के बारे मान्यता है कि इस की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। मान्यता है कि जब मृत्यु के बाद सूर्यपुत्र कर्ण की आत्मा स्वर्ग पहुंची तो उन्हें वहां पर खाने के लिए भोजन की बजाय ढेर सारा स्वर्ण दिया गया। तब उन्होंने इंद्र देवता से इस का कारण पूछा तो उन्होंने कर्ण को बताया कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्होंने कभी भी अपने पितरों के निमित्त कभी भी भोजन दान, तर्पण आदि नहीं किया। तब कर्ण ने जवाब दिया कि उन्हें अपने पूवजों के बारे में कुछ भी ज्ञात न था, इसलिए अनजाने में उन से यह भूल हुई। तब उन्हें अपनी भूल को सुधारने के लिए पृथ्वी पर 16 दिन के लिए भेजा गया। जिस के बाद उन्होंने अपने पितरों के मोक्ष के लिए विधि- विधान से श्राद्ध किया। मान्यता है कि तभी से पितृपक्ष के 16 दिनों में श्राद्ध करने की परंपरा चली आ रही है।

सभी सनातन धर्मावलम्बी इन्हे मानते है और इन के बारे में विसात से शास्त्रों (गरुड़ पुराण, पद्म पुराण) में बताया गया है! ज्यादातर लोग ये जानते है की पितृ हमारे पूर्वज होते है जो अपने अग्रजो द्वारा पूजित होते है! ये बात सही है लेकिन उस से भी ज्यादा कहीं और गूढ़ है पितरो की सच्चाई!

किसी व्यक्ति का ऐसा मृत पूर्वपूरुष जिसका प्रेतत्व छुट चुका हो । विशेष—प्रेत कर्म या अंत्येष्टि कर्म संबंधी पुस्तकों में माना गया है कि अरण और शवदाह के अनंतर मृत व्यक्ति तो आतिवाहिक शरीर मिलता है । इसके उपरांत जब उसके पुत्रादि उस के निमित्त दशगात्र का पिंडदान करते है तब दशपिंडों से क्रमशः उसके शरीर के दश अंग गठित होकर उसको एक नया शरीर प्राप्त होता है । इस देह में उस की प्रेत संज्ञा होती है । षोडश श्राद्ब और सपिंडन के द्बारा क्रमशः उस का यह शरीर भी छुट जाता है और वह एक नया भोगदेह प्राप्त कर अपने बाप दादा और परदादा आदि के साथ पितृलोक का निवासी बनता है अथवा कर्मसंस्कारा- नुसार स्वर्ग नरक आदि में सुखदुःखादि भोगता है । इसी अवस्था में उस को पितृ कहते है । जब तक प्रेतभाव बना रहता है तब तक मृत व्यक्ति पितृ संज्ञा पाने का अधिकारी नहीं होता ।

पितर योनि के लिये पुण्य कर्मों का निर्णय निष्काम, सात्विक एवम व्यवसायिक बुद्धि से  किये कर्मो के आधार पर देव पितर ही करते है। सांसारिक दृष्टिकोण एवम देव लोक के दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है क्योंकि यहाँ छुपा कर कुछ नही होता। अतः पितर भी देव पितर और मनुष्य पितर होते है।

एक प्रकार के देवता जो सब जीवों के आदिपूर्वज माने गए है । विशेष—मनुस्मृति में लिखा है कि ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और देवताओं से संपूर्ण स्थावर जंगम जगत की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा के पूत्र मनु हुए । मनु के मरोचि, अग्नि आदि पुत्रों को पुत्रपरंपरा ही देवता, दानव, दैत्य, मनुष्य आदि के मूल पूरूष या पितर है ।

श्री विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि के आदि में जब उन्होंने रचना प्रारम्भ की तब ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग अर्थात पीठ से पितरों की उत्पत्ति हुई। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर का त्याग कर दिया जिससे पितर उत्पन्न हुए थे। पितरों को जन्म देने वाला ब्रह्माजी का वह शरीर संध्या बन गया, इसलिए पितर संध्या के समय अधिक शक्तिशाली होते हैं।

धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।

दरअसल पितृ देव, देवताओ के भी देवता होते है! शास्त्रों में 7 स्वर्गो के होने की बात कही है और सभी स्वर्गो में हर एक में एक यानि सात अलग अलग पितृ देवता है जो उन स्वर्गो के अधिपतियों द्वारा पूजित है! साथ ही ये भी जाने की पितृ देव देवो की पूजा करते है और देव पितरो की, मतलब दोनों एक दूसरे के इष्ट है!

यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाह, अनल, सोम, अर्यमा, अग्निशावत्त, बहिर्षद और यम- ये सात इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। श्राद्ध आदि जो भी पिंड दान और पूर्वजों के लिए जीव धरती में कर्म करता है वे कहते है कि अर्यमा के पास पहुंचते है और अर्यमा के पास उस जीव के पूर्वजों की जानकारी होने से वे उसे उन के पास पहुंचा देते है।

इन सातों में प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।

भगवान चित्रगुप्तजी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल हैं। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है।

पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पुराण अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।

सामान्य धारणा यह है कि जिन की मृत्यु हो जाती है वह पितर बन जाते हैं। लेकिन गरूड़ पुराण से यह जानकारी मिलती है कि मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। सफर के दौरान संतान द्वारा प्रदान किये गये पिण्डों से प्रेत आत्मा को बल मिलता है। यमलोक में पहुंचने पर प्रेत आत्मा को अपने कर्म के अनुसार प्रेत योनी में ही रहना पड़ता है अथवा अन्य योनी प्राप्त होती है।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कह कर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है।

पितर से यह भी ज्ञात होता है कि मृत्यु के बाद भी जीव का संबंध संसार से नही छूटता और प्रेत से उच्च श्रेणी में जाने के लिए उसे उस के पुत्रों से पिंड दान आदि श्राद्ध की क्रियाएं चाहिए। इसी प्रकार वह जीव अपने परिवार के कार्यों में मदद भी अर्यमा पितर के माध्यम से करता है। अतः यह मान्यता है कि जीव के मृत्यु के बाद उस का मन और बुद्धि का सूक्ष्म रूप बने रहने से उस की कामना, आसक्ति और मोह उसे अपने परिवार की ओर खींचता है। उस से मुक्ति श्राद्ध में पिंड दान आदि से होती है और उसे उस का बल मिलता है जिस से वह प्रेत योनि से मुक्त हो कर पितर बनता है। पितर की उच्च श्रेणी देव योनि है। इसलिए पितर योनि में जीव के सूक्ष्म शरीर में अपने परिवार के प्रति स्नेह बना ही रहता है। इसलिए तीन पीढ़ी के श्राद्ध किए जाते है। अतः सूक्ष्म शरीर में कर्म बन्धन  के साथ, संस्कार, संचित ज्ञान और कामना, मोह और आसक्ति की भावनाएं भी रहती है, जो जीव को अपने पूर्व जन्म की ओर आकर्षित करती है। अतः 84 लाख योनियों में पितर और देव भी योनियां ही भोग के लिए निमित्त है।

दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।

अर्यमा का परिचय :

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।

इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का ‘हव्य’ और श्राद्ध में स्वधा का ‘कव्य’ दोनों स्वीकार करते हैं।

अब यदि हम उन पितरो की पूजा करते है जो देवो के इष्ट है तो देव भी प्रसन्न होते है या यूँ कहें की पितृ देवो से भी प्रथम पूज्य है! इन सात के आलावा जो हमारे गोत्र की आगे पहले की पीढ़िया है जो की या तो स्वर्ग में है या नरक में या तो तिर्यक योनि (जानवरो के जन्म में) या वनस्पति योनि में वो सभी भी हमारे पितृ और पूजनीय है!

रामायण में उल्लेख है की श्री राम चंद्र जी ने भी अपने पितरो (दशरथ जी का) का पिंडदान किया था, महाभारत में भीष्म ने भी शांतनु का श्राद्ध किया था! हर श्राद्ध में अपनी तिथि पर, त्योहारों, विशेष रूप से अमावस्या और पूर्णिमां के दिन सभी पितृ अपने अपने घरो में वायु रूप में आते है!

।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 2 – 10.29 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply